💭💫💭💫💭 तुझे याद हो के न याद हो ♠♠♠♠♠

मुझे याद है जब तुम हमारे पड़ोस में रहने आई थी, मैंने पहली बार किसी अनजान को देख अजीब सा अपनापन महसूस किया था। जब तुमने अपनी काली बड़ी विस्मित आँखों से मुझे घूरा था तो मैं झेंप गया था और तुम खिलखिला दी थी , तुम्हारा हँसना कितना अलग था जैसे घुघरुओं की खनक। तुम्हे पता है जब तुम्हारी और मेरी दीदी बहने बनी तो मुझे बहुत ख़ुशी हुई थी। उनको मैं भी 'दी' कहता था, बहन वाला नही पागल 'वो' दूसरे वाला।😊

   तुमको हर बार बस इक झलक देख लेने की कोशिश हमेशा करता था कभी तुम्हारे घर के खुले दरवाजे में से, और कभी दरवाजे की ओट में झांकती परछाईनुमा आकृतियों में तुम्हारी परिकल्पना करता कि शायद ये तुम ही रही होगी। जब कभी दरवाजा बंद दिखता अच्छा सा नही लगता , गुस्सा सा आता था। बड़े हो रहे थे , तुम भी और मैं भी, और मेरे सपने भी, तुम उनसे अनजान रही होगी, शायद, पर तुम्हारी रहस्यमयी मुस्कान से लगता, जैसे जगती आँखों के सपनों की खबर तुमको भी थी।
एक दिन माँ, हाँ बाबा तुम्हारी माँ ने कहा था इसे थोड़ा पढ़ा दिया करो। ट्यूशन शुरू हो गई थी मैं तुमको पढ़ाता और पढ़ता भी था। कभी खो जाता तुम्ही को देखते देखते, फिर तुम झुंझला कर मुझे हिला देती, मैं तो पहले से हिला हुआ था, तुम्हारी छुअन से धुआं धुआं हो जाता। तुम मुझे देख कर मुस्कुराने लगती, कहती बुद्धू हो तुम तो सच में।

कॉलेज के उन मिट्ठू से दिनों की याद तो तुम्हे भी आती होगी, मैं हमेशा इंतज़ार करता था तुम्हारा और एक के बाद एक कई बसें गुजर जाती अनन्त पथ पर, तुम्हारा साथ जो चाहिए था , आधा घण्टा तो बहुत होता है आधा पल भी होता तब भी वही किया होता, कितनी हैरानी से देखा था तुमने जब संडे को भी वैसे ही इंतज़ार करते पाया था मुझे, और फिर से कहा था 'बुद्धू ही हो तुम'।

तुम्हे खुल कर कुछ भी कहने से न जाने क्यूँ एक डर से लगता था, डर सब कुछ खो देने का, सब दोस्त कहते बिना कहे क्या पाओगे, फिर उस दिन बड़ी घबराहट से,डरते डरते मैंने तुम्हे कॉलेज जाते वक्त किताब में 'सब-कुछ' लिखा एक खत रख कर दे दिया था। तुमने भी बड़ी चालाकी से आते वक्त किताब वापस कर दी थी, पर खत पढ़ा था तुमने, तुम ये भले न कहो पर किताब के बदले पन्ने गवाही दे रहे थे। तुम जन्मदिन भी नही मनाती थी अपना,और पता है वो मैं ही था जो तुम्हारे हर जन्मदिन पर कार्ड दे जाता था तुम्हारे घर चुपके से, तुम सोचती ये बिना नाम का कार्ड न जाने कौन बुद्धू लाया।

कौन जानता था तुम्हारे मन में क्या चल रहा है, मैं तो अपने मन की जानता हूँ जहाँ बस तुम ही तुम थी। मुझे पता है जरूर उस दिन जब तुम अपनी सहेली के साथ मेरी और इशारा करके खिलखिला रही थी तो जरूर मेरा मज़ाक उड़ा रही थी। बहुत रोक लेना चाहा पर दिल भर आया, दो दिन तक घर से बाहर नही निकला था मैं। तुम आई थी फिर बहाने से, कि नोट्स चाहिए, और चुपके से आँखें बंद कर दी थी मेरी। पर तुम तो आँखे बंद रहे तब भी नज़र आ जाती हो, नज़र आ गई थी और पहचान लिया था तुम्हें। तुमने सॉरी बोला था पहली बार, फिर मुस्कुराई और मैं खो गया था उसी मुस्कुराहट में।

उस रोज अंताक्षरी चल रही थी, और तुम मेरी और थी (मैं तो हमेशा से तुम्हारी और था, आज भी हूँ), बहुत रात ही गई थी, सब हंसी मजाक कर रहे साथ साथ,और अचानक तुमने मेरा हाथ पकड़ा था। क्या कहूँ क्या करूँ कुछ समझ ही नही आया, बस दिल में हज़ारों घण्टियाँ एक साथ बज उठी थी, मैं हाथ पर तुम्हारे हाथ की गर्माहट महसूस कर पा रहा था, गला सूख गया था। फिर टेढ़ी नज़र से तुमने देखा और मुँह बिचकाते हुए धीमे से कहा था बुद्धू ही रहोगे तुम तो।

मैं छत पर पतंग उड़ाता तो तुम भी आ जाती थी अपनी छत पर,और तब पेच लड़ने लगते, आसमान में भी और जमीन पर भी। फर्क इतना था कि जमीन पर हर बार मेरी पतंग कट जाती और लूटने वाली हर बार तुम ही होती। तुम कविताएँ किया करती थी , गुड़िया पर, घर पर , परिवार पर, बड़े अच्छे बोल हुआ करते थे, मुझे कुछ समझ नही आते, अच्छे लगते तो बस इसलिए क्योंकि वो तुम कह रही थी। मैं क्रिकेट खेलता गली में तो तुम मेरे लिए बाहर से हूटिंग करती, और जोश जोश में उड़ा दिया करता बॉल, जो सीधी सुनारों के घर उनके खाली पड़े नोहरे की और दौड़ लगाती, सब कहते जिसने फेंकी है वही लाएगा, मैं थोड़ा गर्व और थोड़ी खिसियाहट लिए बॉल लाने जाता ।

 तुम्हारी दीदी की शादी में तुम परी लग रही थी, बारात में आए ज्यादातर सब बस तुम्हे ही ताक रहे थे टुकुर टुकुर, बहुत गुस्सा आ रहा था उन सब पर, एक बुढ़ा तुम्हारे पापा से कह रहा था की ये बेटी हमे दे दो। क्यों भई क्यों दे दो आखिर, और कोई नही मिली तो मेरी वाली पे ही डाका। सॉरी यार, मन ही मन बुढ़े को खूब गालियाँ दी थी मैंने,दी की शादी न होती तो पता नही क्या करता,  जानता हूँ बुरा हूँ मैं पर क्या करूँ यार कंट्रोल ही नही हो रहा था। तुमने कहा था फ़िक्र न करो कुछ बुरा न होगा और मैं मान गया था हर बार की तरह।

माँ कहा करती थी की तुम और मैं बराबर हैं उम्र में, फिर तुम्हारे घरवालों को क्या जल्दी पड़ी थी तुम्हारी शादी करने की। और तुमने तो कहा था कुछ बुरा न होगा,  तुमने तो कभी खुद से बताया भी नही, बस घर आना बंद कर दिया। इज्जतदार घर की शरीफ लड़की जो हो, रिश्ता हो गया तो जो रिश्ता जुड़ गया था उसे ठोकर मारने में कोई बुराई कैसे नज़र आती। पता है मैं बहुत रोया करता था, तुम्हे शायद कुछ भी याद न हो , पर मैं कुछ भी नही भूला। ठीक कहा था तुमने बहुत बुरा हूँ मैं अपना तो छोडो अपने घरवालों का भी ख्याल नही किया, बुद्धू हूँ ना, तुम्हारे बिन नही जी पाया यार 😢😢😢😢।

#जयश्रीकृष्ण
©अरुण

Rajpurohit-arun.blogspot.com

🎪🎪🎪🎪 तिरुशनार्थी ♠️♠️♠️♠️

एक बार एग्जाम के लिए तिरुपति गया था। घरवाले बोले जा ही रहे हो तो लगे हाथ बालाजी से भी मिल आना। मुझे भी लगा कि विचार बुरा नहीं है। रास्ते म...