💤💤💤💤💤 नींद ♠️♠️♠️♠️♠️

जिंदगी में पहले भी बहुत काम किया है, खेत में काम करने से लेकर घर बनवाने में ईंट ढोने तक, बहुत थकावट भी आई पर कभी इतनी बुरी हालत नहीं हुई। दरअसल 3 दिन से एक पल के लिए भी सो नहीं पाया हूँ। बहन की शादी हो तो दौड़ भाग भी करनी ही पड़ती है, क्या मुझे नहीं पता ? और मैं नहीं करता तो और करता भी कौन? बुआ जी को उनके ससुराल से लाने भी और कौन जाता? हलवाई , टेंट, खाने पीने का सामान लाने और बारात की व्यवस्थाओं में सोने का वक़्त कैसे मिलता भला, पर अब सब निपट जाने के बाद चैन से सो जाना चाहता था। सोचा कि 2 घड़ी की नींद मिल जाए तो सच में चैन मिल जाएगा। पर फिर एक कॉल आया और मुझे दिल्ली निकलना पड़ रहा है। मौसी जी नहीं रहे, जाना तो पड़ेगा ही। पापा ने मम्मी को नहीं बताया, मुझसे बोले कि 'तुम चले जाओ। इसे अभी से भेज देंगे तो 12 दिन वहीं रुकना पड़ेगा। इतने दिन क्या करेगी वहाँ, रो रो कर ये भी अपनी हालत खराब लेगी खामखाँ। शुगर और बीपी पेशेंट है कोई दिक्कत हो गई तो हमको ही परेशानी हो जाएगी।' पापा ने बोला है तो अब मानना भी पड़ेगा ही, अकेले बेटे होने का एक नुकसान ये भी है कि कोई और ऑप्शन नहीं होता, न घरवालों के पास न खुद के पास। सब की सारी अपेक्षाएँ आप ही से जुड़ी होती हैं। हल्की सी अवज्ञा का स्वर उठा नहीं कि तुरंत कोई न कोई कपूत पूत होने का स्टिकर कहीं से लाकर माथे पर चिपका जाता है। सोचा कि क्यों रिस्क लें, बस में ही जाना है तो सो जाऊंगा बस ही में, पर स्लीपर कोच में बस सीट का ही जुगाड़ हो पाया, और अब उसी का इंतज़ार हो रहा।

शाम का धुंधलका अंधेरा बस स्टैंड की एलईडी लाइट्स ने पाट दिया है। एक बड़ी सी डिजिटल घड़ी बस अड्डे पर अपने जगमगाते नियॉन बल्बों की रोशनी में चीख चीख कर टाइम बता रही है। ढेर सारे आदमी, ढेर सारी औरतें और उतने ही ढेर सारे बच्चे न जाने कहाँ कहाँ जाने के लिए निकल निकल कर यहाँ जमा हो रहे हैं। मैं उनींदी आँखों से मुँह बाए बस सब देख रहा हूँ। पास ही कन्याओं का एक झुंड खड़ा है जो न जाने क्या गॉसिप कर रहा है। शायद कुछ लड़कियाँ कुछ को सी ऑफ करने आई होंगी। एक दूसरे से चुहल करते हुए हाथ पर ताली दे रहीं। ठहाकों के बीच एक नजर उस तरफ दौड़ाई, एक कन्या ने भी चिप्स चेपते हुए मुझे देखा पर फिर नजर फेर ली। शायद इन ललाई लिए आँखों मे मैं उसे कोई नशेड़ी नजर आ रहा हूंगा।

वाह,  लो मेरी बस भी आ गई। भीड़ कुछ ज्यादा नहीं लग रही ? हाँ ज्यादा ही तो है। पर मुझे क्या मेरे पास तो सीट है। सी 2, हाँ यही है। इस सी 2 के पीछे पता नहीं क्या लॉजिक है? शायद ट्रेन के बर्थ की तरह नाम रखते रखते किसी दिन ये लोग भी चार्ट चिपकाया करेंगे बुलेटिन बोर्ड पर । खैर जो भी हो, जाकर बैठ गया मैं तो। बस चल पड़ी है। पर आज एसी बस भी रोडवेज वाली फीलिंग दे रही है। सभी सीटें फुल हैं पर लोग अभी भी खड़े ही हैं। फिर से सोचा कि मुझे क्या, मेरे पास तो सीट है न। एक आंटी जी भी खड़े हुए हैं, उम्र भी ५५-६० के आसपास तो होगी ही। पर मुझे क्या। इतनी उम्र है, ढलती उम्र के साथ कमजोरी आ ही जाती है, तभी तो बस में पिल्लर पकड़ के खड़ी हैं। पर मुझे उससे क्या। हो सकता है बीमार भी हों। पर मुझे उससे क्या। मम्मी भी तो शुगर पेशेंट हैं, कल को वो ऐसे ही तकलीफ में हों तो ? पर मुझे उससे.... नहीं नहीं.... ऐसा नहीं करना चाहिए न ? पर मुझे सोना है। गैलरी में ही सो जाउँ तो ? हाँ, ये सही है। आंटी जी को बुला कर अपनी सीट पर बिठा दिया। ज्यादा देर खड़े नहीं रह सकता। इसलिए नहीं कि टांगे काम न कर रही, इसलिए क्योंकि अब सोना है मुझे। खम्भे को पकड़ कर वहीं बैठ गया। टांगे फैलाने जितनी जगह नहीं है इसलिए पालथी मार ली। स्लीपर वालों ने पर्दे खींच लिए हैं। और कुर्सी वालों ने भी कुर्सियों को ढीला छोड़ कर खुद उस पर पसर गए हैं। आंटीजी सीधी होकर बैठी हैं, सीधी ही होंगी शायद वरना ये तो सब जानते हैं कि इस कुर्सी को आराम कुर्सी में कैसे बदलते हैं। मैंने उनकी कुर्सी का लीवर घुमा दिया तो वो भी रिलैक्स करने लगीं। अब सब ठीक है। सब आराम की मुद्रा में आ रहे। मुझे भी सोना है अब।

खम्भे को पकड़े पकड़े नींद में खोता जा रहा हूँ। घर जाकर सबका हिसाब भी करना है। हलवाई, टेंट, खाने पीने का सामान सबका, पापा को तो कुछ भी नहीं मालूम , और वो अकेले सब करेंगे भी कैसे? माता पिता तो सारी उम्र बच्चों के लिए करते ही हैं। अब जब मौका आया है तो हम पीछे क्यों हटें? मौसी जी नहीं रहे, अब उनके बच्चे चाहें भी तो उनके लिए कभी कुछ कर पाएंगे कभी ? नहीं न। अचानक ज़ोर का धमाका हुआ। मैं भाग कर बस से बाहर आ गया। बस किसी ट्रोले से टकरा गई थी। ड्राइवर की आधी लाश अभी सीट पर है बाकी आधी पता नहीं। कुछ लोग और भी हैं जो बाहर आ रहे निकल निकल कर। रोने चीखने चिल्लाने की आवाज़ें। मैं मूर्तिवत खड़ा हूँ। बहुत लोगों को बहुत चोटें लगी हैं। पर कुछ साहसी लोग भी हैं जो अपनी चोटों की परवाह न करते हुए, दूसरों को बचाने की जुगत कर रहे हैं। मैं कितना स्वार्थी हूँ न ? अच्छा भला हूँ पर किसी की सहायता तक नहीं कर रहा। और वो आंटी जी ? उनको क्या हुआ होगा, वो ठीक तो होंगी न ? जैसे ही विचार मन में आया दौड़कर बस के क्षत दरवाजे तक गया, देखा कुछ लोग उन्हें सहारा देकर नीचे ला रहे थे। माथे से खून बह रहा था। बेचारी भली औरत मेरी आई को खुद पर ले लिया। अगर मैं उस सीट पर होता तो इनकी जगह मेरा माथा फटा होता। देखो मैं तो भला चंगा खड़ा हूँ। भगवान इनकी उम्र लम्बी करें। इन्हें शीघ्र आरोग्य प्रदान करें। इन्हें ही नहीं सबको, पता नहीं कितनों को चोटें आई है। अभी भी लोग बाहर आ रहे। मैं फिर से दरवाजे तक आ गया। मुझे भी दूसरों की सहायता करनी चाहिए न। पर कुछ लोग किसी के हाथ और पांव से पकड़ कर लगभग घसीटते हुए नीचे ला रहे। ओह लगता है ये तो मर ही गया बेचारा। इसकी नींद तो अब कभी न खुलेगी। मैं रास्ते से हट गया। चाँद की रोशनी में लाश का चेहरा दिखा। खून से तरबतर, शायद सर पर कोई गहरी चोट आई है। कपड़े देखे तो चौंक गया, ये सचमुच मैं था......!

#जयश्रीकृष्ण

✍️ अरुण

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गुरु माँ का स्नेह

हमारी गुरु माँ भी बहुत कमाल हैं, सबके खाने पीने और स्वास्थ्य की देखभाल ऐसे करती हैं जैसे सच में हमारी जननी ही हों। पर कुछ दिनों से बहुत भुलक्कड़ सी हो गई हैं। हम लोगों के नाम तक याद न रहते। आज सुबह आदरणीय गुरुजी ही उनके कोपभाजन बन गए। दरअसल हुआ यूँ की प्रातः सब को कलेवा करवाने के बाद उन्हें ये तो स्मरण पड़ रहा था कि कोई है जिसने अल्पाहार नहीं लिया ये भी कि किसने नहीं लिया पर 'उस किसने' का नाम भूल गए। गुरुजी ध्यान-योग सत्र समाप्त कर जब स्वयं अल्पाहार करने पहुंचे तो गुरुमाता उन्हीं पर बिफर पड़ी। बोलीं 'आपको अपनी क्षुधापूर्ति की पड़ी है, उस बेचारे ने भी सुबह से कुछ न खाया, आपको उसकी लेशमात्र भी चिंता हुई?'

तिवारी जी मुस्कुराए, बोले, ' अच्छी बात है पहले अपने उस पुत्र को ही खिला दो प्रिय, मुझे बताओ मैं अभी उसे यहीं बुलवा लेता हूँ।'

गुरु माता ने याद करने का बहुत प्रयास किया पर नाम याद नहीं आया। रुआंसी होकर बोली, 'अरे वो है न मेढ़क सी आँखों वाला।'

गुरु जी हमें काव्य में अलंकार विषय पर बहुत बार व्याख्यान देते रहते हैं, पर निजी जीवन की वार्ताओं में ये सुख उन्हें गुरुमाता के श्रीमुख से ही प्राप्त होता है। इतनी विलक्षण उपमा सुनकर सोचने लगे कि इसका उपमेय कौन हो सकता है? एक एक कर भिन्न भिन्न चित्र उनके स्मृति पटल पर उभरने लगे।

गुरुमाता अधीर हो रही थी, बोलीं 'आप इतना समय क्यों लगा रहे हैं, बुलवा दीजिए न'

'हूँ, पर किसे? मानव चरित्रों पर पशु गुणों का आरोप कर तुमने मुझे दुविधा में डाल दिया प्रिय। इतने शिष्यों में से नेत्रों में मेढ़क से समता रखने वाला ढूंढने में समस्या आएगी ही, नाम याद करो या कोई अन्य चिह्न बताओ' गुरु जी बोले।

'ओहो, आप भी न, 7 ही तो शिष्य हैं। मैं उसकी बात कर रही हूँ जिसके सिर पर टिंडे जैसे रोएँ ही बचे हैं, बाल झड़ रहे धड़ाधड़।' गुरुमाता ने उलाहने के स्वर में कहा।

कदाचित गुरुजी ने इस बार चीन्ह लिया कि किसकी बात हो रही, इसलिए जोर जोर से हँसने लगे।

गुरु माँ को लगा कि ये अभी भी नहीं समझे। फिर कहने लगी, 'अरे वही जिसके खरगोश जैसे कान हैं। चलते समय बंदर की तरह उछलता है।'

गुरुजी पेट पकड़ कर और जोर से हंसने लगे।

गुरुमाता सौम्यता से बोली, 'आप हंस क्यों रहे हैं, अरे उसे बुलवा दीजिए न जिसके कान मंजीरे जैसे है, और जिसका पेट गजानन गणेश जी जैसा है।'

गुरु जी ने एक हाथ मुँह पर रखा दूसरे से पेट को दबाते हुए बोले, अरे बस बस, और फिर जोर से हंसने लगे।

गुरुमाता को खीज आ रही थी, झल्ला कर बोली, 'आप यहाँ हीही कर रहे वहाँ मेरा कद्दू जैसे गालों वाला बच्चा सुबह से भूखा बैठा होगा। आप रहने दीजिए मैं स्वयं ही बुला लाती हूँ। कह कर वे पाक कुटीर से बाहर आईं।

वटवृक्ष के नीचे शुक्ला जी क्लास चल रही थी। हम सब नीचे बैठे उन्हें बस सुन रहे थे। गुरुमाता की उपस्थिति से पूर्णतया अनभिज्ञ सरदार अत्यंत गम्भीर होकर डींगें हांकने में व्यस्त थे। बोले,'तुम सब के सब ढक्कन ही रहोगे, लिखवा लियो हमसे। अबे बोर नहीं होते रोज रोज यही सब पकाऊ खाना खा के ? हम तो आज अमृत चख कर आ रहे। कन्या गुरुकुल के पिछवाड़े एक बेर का वृक्ष है।'
विमी बोले, ' हाँ हाँ, हमनें भी सुना है उसके बारे में...!'

सबकी दृष्टि विमी की ओर घूम गई, तो सरदार चिल्लाते हुए बोले, 'अबे चुप बे, घण्टा पता है तुमको, आज हम उसी बेरी के बेर खा कर आए हैं, वो भी पेटभर कर। ये लो तुम लोगों के लिए भी लाए हैं, कह कर अपनी धोती के साइड में बंधी पोटली खोल दी। चारों ओर बेर ही बेर बिखर गए। भगदड़ और लूट मच गई। अचानक एक हाथ से किसी ने शुक्ला की गुद्दी पकड़ ली। शुक्ला ने गर्दन घुमाई तो देखा गुरु माता ने अपने एक हाथ मे खड़ाऊ थाम रखा था। क्रोध से तमतमाते हुए बोली, ' मैं इस लंगूर के खाने के लिए कब से चिंतित हो रही हो और ये बिना आज्ञा दीवारें फांदता घूम रहा।'

हम नहीं समझ पाए कि शुक्ला को इतना पीटने की क्या जरूरत थी? चलो पीटा सो पीटा पर पूरे हफ्ते के लिए गुरुकुल वालों के कच्छे और धौतियाँ धोने का दंड ? ये तो ज्यादती ही हो गई बेचारे के साथ।

वैसे बेर वाकई मीठे थे, इस बात की पुष्टि किसी से भी की जा सकती है।

#जयश्रीकृष्ण

#गुरुकुल_के_किस्से

✍️ अरुण

Rajpurohit-arun.blogspot.com

🎪🎪🎪🎪 तिरुशनार्थी ♠️♠️♠️♠️

एक बार एग्जाम के लिए तिरुपति गया था। घरवाले बोले जा ही रहे हो तो लगे हाथ बालाजी से भी मिल आना। मुझे भी लगा कि विचार बुरा नहीं है। रास्ते म...