अपने घरवालों के जुल्मों का शिकार कमोबेश सभी बच्चे बनते हैं, मैं ज्यादा वाली कैटेगरी में आता हूँ। 5 भाई-बहनों में सबसे बीच में मेरा नम्बर आता था। मतलब की 2 बड़ी बहनें और एक छोटी बहन, और एक छोटा भाई। सोच कर एकबारगी भ्रम होता है कि 5 बच्चों में आखिर किसी के हिस्से कितनी कुटाई आती होगी ? पर यकीन जानिए मेरे हिस्से में इतनी आती थी कि शायद पूरी लिखने से पहले मुझे यादों के पहाड़ चढ़ कर आँसुओं के समंदर लांघने पड़ेंगे। बहनों को कन्या वर्ग से होने की वजह से प्रिविलेज प्राप्त था तो छोटा भाई छोटे होने का जन्मजात अमोघ कवच लेकर ही पैदा हुआ था , नतीजतन हर बार बस मैं बच जाता जिसे ऐसी कोई प्रोटेक्शन हासिल नहीं थी सो मुझे कूट कर हाथों के बट निकाले जाते। ऐसा कई बार हुआ जब भाई-बहनों के कुसुर पर भी मुझे शानदार तरीके से धोया गया, पर मैं उस बारे में अब कोई बात नहीं करके केवल अपने बारे में बात करूंगा। हमारे पड़ोस में एक मौसी रहती थी वो भी काफी खूंखार थी, उनके दो बेटे थे पप्पी और राजू, वे दोनों भी कूटे जाते। मौसी की संगति से मम्मी जो पहले से ही काफी खूंखार थी, और भी प्रचंड हो उठती, और उस जुल्म की ज्वाला से दुनिया को बचाने वाले मसीहा के रूप में मुझे सामने आना ही पड़ता। कभी-कभी लगता जैसे मैंने इसी के लिए अवतार लिया होगा।
बचपन में खेल से लेकर छोटी-छोटी बातों पर घनघोर पिटाई हुआ करती। घर के नाम पर बस एक कच्चा कमरा था, जिसमें माताश्री हर दोपहर को खर्राटेदार विश्राम किया करती। पता नहीं क्यूँ पर बिना 'शनिवार राति' का विचार किए, यहाँ तक कि बिना किसी से प्यार किए, हमें रोजाना नींद नहीं आती थी। जब कभी हमारी महफ़िल सजने का दुस्साहस करने को होती हम कूट दिए जाते। चुपचाप खेलने के लिए चोर, सिपाही, राजा, मंत्री जैसी पर्ची छाप ली जाती पर न जाने किसी की एक हंसी हमें अनेक आँसू दे जाती। लग रहा है जैसे स्टोरी में करुण रस अधिक घुल रहा है। चलिए कुछ और सुनिए। एक बार पड़ोस के बनियों के घर पर एक कन्या पधारी। आई थिंक कन्या का प्रसंग आते ही आप सब की बांछे खिल गई होंगी ? और कइयों की मुस्कान तो शिल्पा शेट्टी की तरह कानों तक भी जा पहुंची होगी? हैं जी ? बिल्कुल उसी तरह पप्पी-राजू की भी खिल गई थी, मेरी भी खिली थी पर उन सब से कम। एक्चुअली जो मुझे वास्तव में जानते हैं वो ये भी जानते हैं कि भले ही यहाँ मेरी छवि एक मुँहफट, बहिर्मुखी, किसी से कुछ भी कह देने वाले इंसान की हो, जो कन्याओं से भी कुछ भी कहने में संकोच नहीं करता पर हकीकत में कन्याओं से बात करते हुए मेरी फटती है। अब भी फटती तो तब न फटने के सवाल ही नहीं था। आखिर 10-12 साल में कोई इतना भी तोप नहीं हो जाता।
राजू मेरा हमउम्र है तो पप्पी मुझसे 2 साल बड़ा। मैं बताना भूल गया कि उनके ताया जी का एक बेटा 'छोटू' भी आया हुआ था। कन्या के पधारने की सूचना पप्पी लाया था, वही सबसे अधिक उद्विग्न भी हो रहा था। बनियों की लड़की हमारे साथ रोज खेलती थी। उस दिन वो किसी ओर खेल की भी योजना बनाने लगे। मैं बहुत डर रहा था, 'पर न जाने क्यों जानबूझकर भी चुप था'। धीरे-धीरे शाम गहराने लगी। बनियों की लड़की आज अपनी 'उस' कजिन को साथ लेकर खेलने आई थी। सब बच्चे यहाँ वहाँ गली में खेल रहे थे,जब काफी अंधेरा हो गया तो पप्पी ने छुप्पम-छुपाई का प्रस्ताव रखा जिसे सबने खुशी-खुशी मान लिया। मैंने कहा कि मैं बारी दूँगा, आप सब छुपो। घर के पास एक रेहड़ी खड़ी थी एक कन्या, राजू और छोटू उसके पीछे छुप गए। पप्पी दूसरी कन्या के साथ पास के खंडहर घर के कमरे में छुप गया। मैं गिन रहा था 1, 2, 3, 4.......20,21, आवाज़ दे रहा था ...आ जाऊं...पर जा नहीं रहा था, अब याद नहीं आ रहा, शायद ये भी किसी 'योजना' का भाग ही हो,.....50, 51, 52,.....आ जाऊं ? मैं आ जाऊँ कहते कहते उन्हें ढूंढने के लिए आगे बढ़ा ही था कि लड़कियों ने हंगामा कर दिया। जोर-जोर से रोने लगी, मैं और भी डर गया। लड़कियों ने अपने घर की ओर दौड़ लगा दी और हमनें अपने घरों की ओर, पर दिल बुरी तरह अपराधबोध से भरा था। अनिष्ट की आशंका मन को घेरे हुए थी।
जो होना था, वही हुआ थोड़ी देर में पड़ोस की आंटी और वो दो रोती हुई कन्याएँ बाहर खड़ी थी। जोर शोर से चिल्लाने की आवाज़ें सुन कर गला बैठ गया। कन्याओं ने घर पर शिकायत कर दी थी कि खेल के बहाने उन्हें गलत तरीके से छुआ गया है। जैसे ही मम्मी को पता लगा कि 'उस' खेल का एक प्रतिभागी मैं भी था तो उन्होनें 'नरमे की एक गीली लकड़ी' से वहीं मुझे पीटना शुरू कर दिया। मैं रो रहा था, कह रहा था कि मैंने कुछ नहीं किया, पर पिटाई करना बंद नहीं हुआ। मौसी ने भी राजू-पप्पी को उसी लकड़ी से बहुत मारा, शायद 'छोटू' को भी 2-4 डंडे रसीद किए थे, हालांकि बाद में पप्पी ने बताया था कि असली मुजरिम ही वही था। मम्मी मुझे बेतहाशा पीट ही रही थी कि 'उस' लड़की ने कहा कि आंटी जी ये उनमें नहीं था। इसने कुछ नहीं किया। पर तब तक नरमे की गीली लकड़ी भी टूट चुकी थी। मम्मी दनदनाती हुई अंदर चली गई, मैं जब लड़खड़ाते हुए घर में गया तो देखा पता नहीं क्यूँ वो खुद रो रही थी। मैंने फिर से कहा कि मैंने सच में कुछ नहीं किया मम्मी, जवाब में उन्होंने मुझे गले से लगा लिया और रोती रही। पीठ पर दिल्ली वाले सरदार जी की तरह कई लकीरें उभर आई थी जिनसे खून रिस रहा था, उन पर हल्दी का लेप भी उन्होंने ही लगाया। थोड़ी देर में वो आंटी जी भी हमारे घर आईं तो कहने लगी इस तरह नहीं मारना चाहिए था बच्चे को, दो-चार थप्पड़ लगा देते बस, और ये तो बेचारा उनमें से था भी नहीं। मम्मी ने रोते-रोते ही कहा कि अगर ये उनमें से होता तो आज इसे मार ही डालती मैं।
आज मैं उस घटना को याद करता हूँ तो सोचता हूँ कि क्या मैं वाकई उनमें से नहीं था ? शायद था। कई बार खुद से प्रश्न करता हूँ कि अगर बारी देने की जगह उनके साथ छुपा होता तो मैंने क्या किया होता ? उत्तर में ब्लेंक हो जाता हूँ। मैं क्या करता क्या नहीं ईश्वर जाने पर मम्मी ने कुछ गलत नहीं किया। वो सज़ा शायद बहुत जरूरी थी। हमारे अध्यापक हों, माता-पिता हो, या बड़े-बुजुर्ग हों, मुझे नहीं लगता कि किसी को अपने बच्चे को पीट कर आनन्द आता होगा। उनके प्यार की तरह उनकी मार भी बहुत जरूरी है। वो हमें गलत होने से, गलतियाँ करने से रोक लेना चाहते हैं। उनके अनुभवों का प्रसाद अगर तमाचे खाकर भी मिले तो खाते रहिए।
#जयश्रीकृष्ण
✍️ अरुण
Rajpurohit-arun.blogspot.com
बचपन में खेल से लेकर छोटी-छोटी बातों पर घनघोर पिटाई हुआ करती। घर के नाम पर बस एक कच्चा कमरा था, जिसमें माताश्री हर दोपहर को खर्राटेदार विश्राम किया करती। पता नहीं क्यूँ पर बिना 'शनिवार राति' का विचार किए, यहाँ तक कि बिना किसी से प्यार किए, हमें रोजाना नींद नहीं आती थी। जब कभी हमारी महफ़िल सजने का दुस्साहस करने को होती हम कूट दिए जाते। चुपचाप खेलने के लिए चोर, सिपाही, राजा, मंत्री जैसी पर्ची छाप ली जाती पर न जाने किसी की एक हंसी हमें अनेक आँसू दे जाती। लग रहा है जैसे स्टोरी में करुण रस अधिक घुल रहा है। चलिए कुछ और सुनिए। एक बार पड़ोस के बनियों के घर पर एक कन्या पधारी। आई थिंक कन्या का प्रसंग आते ही आप सब की बांछे खिल गई होंगी ? और कइयों की मुस्कान तो शिल्पा शेट्टी की तरह कानों तक भी जा पहुंची होगी? हैं जी ? बिल्कुल उसी तरह पप्पी-राजू की भी खिल गई थी, मेरी भी खिली थी पर उन सब से कम। एक्चुअली जो मुझे वास्तव में जानते हैं वो ये भी जानते हैं कि भले ही यहाँ मेरी छवि एक मुँहफट, बहिर्मुखी, किसी से कुछ भी कह देने वाले इंसान की हो, जो कन्याओं से भी कुछ भी कहने में संकोच नहीं करता पर हकीकत में कन्याओं से बात करते हुए मेरी फटती है। अब भी फटती तो तब न फटने के सवाल ही नहीं था। आखिर 10-12 साल में कोई इतना भी तोप नहीं हो जाता।
राजू मेरा हमउम्र है तो पप्पी मुझसे 2 साल बड़ा। मैं बताना भूल गया कि उनके ताया जी का एक बेटा 'छोटू' भी आया हुआ था। कन्या के पधारने की सूचना पप्पी लाया था, वही सबसे अधिक उद्विग्न भी हो रहा था। बनियों की लड़की हमारे साथ रोज खेलती थी। उस दिन वो किसी ओर खेल की भी योजना बनाने लगे। मैं बहुत डर रहा था, 'पर न जाने क्यों जानबूझकर भी चुप था'। धीरे-धीरे शाम गहराने लगी। बनियों की लड़की आज अपनी 'उस' कजिन को साथ लेकर खेलने आई थी। सब बच्चे यहाँ वहाँ गली में खेल रहे थे,जब काफी अंधेरा हो गया तो पप्पी ने छुप्पम-छुपाई का प्रस्ताव रखा जिसे सबने खुशी-खुशी मान लिया। मैंने कहा कि मैं बारी दूँगा, आप सब छुपो। घर के पास एक रेहड़ी खड़ी थी एक कन्या, राजू और छोटू उसके पीछे छुप गए। पप्पी दूसरी कन्या के साथ पास के खंडहर घर के कमरे में छुप गया। मैं गिन रहा था 1, 2, 3, 4.......20,21, आवाज़ दे रहा था ...आ जाऊं...पर जा नहीं रहा था, अब याद नहीं आ रहा, शायद ये भी किसी 'योजना' का भाग ही हो,.....50, 51, 52,.....आ जाऊं ? मैं आ जाऊँ कहते कहते उन्हें ढूंढने के लिए आगे बढ़ा ही था कि लड़कियों ने हंगामा कर दिया। जोर-जोर से रोने लगी, मैं और भी डर गया। लड़कियों ने अपने घर की ओर दौड़ लगा दी और हमनें अपने घरों की ओर, पर दिल बुरी तरह अपराधबोध से भरा था। अनिष्ट की आशंका मन को घेरे हुए थी।
जो होना था, वही हुआ थोड़ी देर में पड़ोस की आंटी और वो दो रोती हुई कन्याएँ बाहर खड़ी थी। जोर शोर से चिल्लाने की आवाज़ें सुन कर गला बैठ गया। कन्याओं ने घर पर शिकायत कर दी थी कि खेल के बहाने उन्हें गलत तरीके से छुआ गया है। जैसे ही मम्मी को पता लगा कि 'उस' खेल का एक प्रतिभागी मैं भी था तो उन्होनें 'नरमे की एक गीली लकड़ी' से वहीं मुझे पीटना शुरू कर दिया। मैं रो रहा था, कह रहा था कि मैंने कुछ नहीं किया, पर पिटाई करना बंद नहीं हुआ। मौसी ने भी राजू-पप्पी को उसी लकड़ी से बहुत मारा, शायद 'छोटू' को भी 2-4 डंडे रसीद किए थे, हालांकि बाद में पप्पी ने बताया था कि असली मुजरिम ही वही था। मम्मी मुझे बेतहाशा पीट ही रही थी कि 'उस' लड़की ने कहा कि आंटी जी ये उनमें नहीं था। इसने कुछ नहीं किया। पर तब तक नरमे की गीली लकड़ी भी टूट चुकी थी। मम्मी दनदनाती हुई अंदर चली गई, मैं जब लड़खड़ाते हुए घर में गया तो देखा पता नहीं क्यूँ वो खुद रो रही थी। मैंने फिर से कहा कि मैंने सच में कुछ नहीं किया मम्मी, जवाब में उन्होंने मुझे गले से लगा लिया और रोती रही। पीठ पर दिल्ली वाले सरदार जी की तरह कई लकीरें उभर आई थी जिनसे खून रिस रहा था, उन पर हल्दी का लेप भी उन्होंने ही लगाया। थोड़ी देर में वो आंटी जी भी हमारे घर आईं तो कहने लगी इस तरह नहीं मारना चाहिए था बच्चे को, दो-चार थप्पड़ लगा देते बस, और ये तो बेचारा उनमें से था भी नहीं। मम्मी ने रोते-रोते ही कहा कि अगर ये उनमें से होता तो आज इसे मार ही डालती मैं।
आज मैं उस घटना को याद करता हूँ तो सोचता हूँ कि क्या मैं वाकई उनमें से नहीं था ? शायद था। कई बार खुद से प्रश्न करता हूँ कि अगर बारी देने की जगह उनके साथ छुपा होता तो मैंने क्या किया होता ? उत्तर में ब्लेंक हो जाता हूँ। मैं क्या करता क्या नहीं ईश्वर जाने पर मम्मी ने कुछ गलत नहीं किया। वो सज़ा शायद बहुत जरूरी थी। हमारे अध्यापक हों, माता-पिता हो, या बड़े-बुजुर्ग हों, मुझे नहीं लगता कि किसी को अपने बच्चे को पीट कर आनन्द आता होगा। उनके प्यार की तरह उनकी मार भी बहुत जरूरी है। वो हमें गलत होने से, गलतियाँ करने से रोक लेना चाहते हैं। उनके अनुभवों का प्रसाद अगर तमाचे खाकर भी मिले तो खाते रहिए।
#जयश्रीकृष्ण
✍️ अरुण
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