बरसों बाद 'गाँव' जा रहा हूँ, अपने आप से मतलब रखने वाला शहरी जो हो गया हूँ, टाइम ही नहीं है किसी और के लिए, कई बार मन होता पर नही जा पाया, बहुत सी यादें जुडी हैं इस शब्द से, मेरे लिए गाँव का मतलब ढेर सारी मौसियों के घर, हाँ मेरी सभी चारों मौसियों की भी शादी मेरे ही गाँव में हुई है। गाँव मतलब, बेरी के झाड़ वाली कांटेदार बाड़ वाली दीवारों वाले घर, खींप सीणीयाँ वाले वातानुकूलित झोंपड़े और ढूंडे, जिनमें जेठ की तपती दुपहरी में भी न जाने कैसे शीतल बयार बहा करती, तब भी जब बाहर हवा चलने का नामो निशान तक न हुआ करता। गाँव मतलब बालू मिट्टी के टीले, धोरे, जो कहते अभी अभी हज़ारों साँप यहाँ से गुज़रे हैं। कुछ धोरे तो इतने बड़े हो गए थे मानो खुद को पहाड़ कहलवाना चाहते हो,उन पर चढ़ कर पास के 3-4 दूसरे गाँव नज़र आते, गाँव मतलब होली, चंग की थाप पर थिरकते कदम, गींदड़ में लड़कों का लड़की बन होने वाला स्वांग, हंसी-ठिठोली। गाँव मतलब बरसात के पानी से बना अस्थायी तालाब 'नाडिया' और किनारे की बालू में लोट कर छलांग लगाओ नहा कर सब खुद को फेल्प्स की फीलिंग दे दो, सब कुछ वैरी सिम्पल। एंड फाइनली गाँव का मतलब जिंदगी, उससे जुड़े लोग, आत्मीयता, रीति-रिवाज और उन्हें निभाने की तन्मयता। सब कुछ जैसे खो सा गया था, इसलिए इस बार जब मौसी जी के घर से बुलावा आया तो फटाफट प्रोग्राम बना डाला।
पूरे रास्ते गाड़ी चलाते वक्त गाँव की खुशबू को दूर से ही महसूस करने की चाहत के चलते बाहर तांक झांक करते आया, टीले अब उतने भूरे नहीं लग रहे, अकड़ कर खड़े रहने वाले धोरे भी अब सीधे हो रहे, जाने क्यूँ पर मेरा मन हरे भरे टीले स्वीकार नहीं कर पा रहा। मुख्य सड़क से गाँव की और घूमते ही मोहन चाचा नज़र आ गए, मोहन चाचा , इनकी गिनती गाँव के सबसे रईस लोगों में होती है , फूसकी (पुष्पा,चाचा की इकलौती बेटी) की शादी की धाक आज भी गांववालों के मन पर है,होती भी क्यूँ न बेटी को तो इतना दिया की लड़के वालों को ले जाने में ही पसीने आ गए और तो और सभी बारातियों को भी चाँदी के बर्तन की यादगार भेंट दी गई थी। तब से बस अकड़ के चलते हैं , क्या मजाल जो किसी से सीधे मुँह बात कर लें। उनको देख मैंने गाड़ी से उतर उनके पांव छुए, बदले में आशीर्वाद रूप में 'हूँ' मिला, सीधे बोले कब आया?
'जी, बस अभी अभी चला आ रहा हूँ।'
चाचा एक और 'हूँ' में बात निपटा कर अपने रस्ते हो लिए। मैं उन्हें जाते देख रहा था। चाचा ऐसे तो न थे, बहुत मेहनती थे और ये शौहरत उन्होंने अपनी मेहनत से पाई थी विरासत में नहीं पर गाँव से बाहर शहर तक उन्हें ले जाने वाले पापा थे। आज उन्ही की संतान से अकारण ऐसी बेरुखी ? चलो जी कोई बात नहीं। सोचते सोचते गाड़ी बढ़ा दी।
गाँव में भी अब बाड़ की जगह ईंट की दीवारों ने ले ली है, कुछेक घरों में अब भी कांटेदार झाड़ की बाड़ है। दीवारें अच्छी नहीं लग रही मुझे, और कांटे खुशनुमा अहसास जगा रहे है, बड़ी हसरत से देखता आगे बढ़ा जा रहा हूँ। मौसी का घर झोंपड़ा नहीं रहा अब तो अच्छा खासा महल है , आज सज धज के और भी अच्छा लग रहा है पर झोपड़ी की चाह पूरी न होने से मन में कसक जैसा कुछ है। भीतर डीजे की कानफोड़ू ध्वनि गूँज रही। देखा कुछ बच्चे नाच रहे हैं 'भंडारे म् नाचे म्हारी बीनणी ए' गीत की धुन पर। डीजे है? पर ढोली क्यूँ नही ? स्वयं से प्रश्न करता मैं भीतर प्रविष्ट होने लगा। 'अरे रे रे रुक बेटा', मौसी जी अचानक एक थाली के साथ प्रकट हुई, 'टीका तो निकलवा ले, भाई की शादी में आया है इतना भी नही जानता? ' तप्त मन पर जैसे मरहम सी रख दी हो। गीला कुमकुम लगा भले ही माथे पर था पर शीतलता भीतर तक अनुभव हो रही थी। मौसी जी बहुत खुश नजर आ रही थी, स्वाभाविक भी था चार बेटे हैं उनके, सब के सब उम्र में मुझसे बड़े हैं, अच्छा खासा कमाते है, बिजनेस है रुपया पैसा भी है, और अब इकलौती बची हुई ख़ुशी भी उनकी होने जा रही थी, बेटे की शादी हो रही थी। अब तक शादी न हो पाने के कारण मौसी कुछ दुःखी से रहते थे पर अब सब ठीक होने जा रहा था।
सब शादी के कामों में लगे थे, मैं क्या करता, बोर होने लगा तो छत पर चला गया टहलने, सोचा देखूँ ऊपर से मेरा गाँव कैसा नज़र आता है। गाँव का शहरीकरण साफ नजर आ रहा था पक्के मकान, और उनकी छतों पर टंगे डी टी एच के छोटे छाते कुकुरमुते की तरह हर और दिख रहे थे। अचानक मदि भैया, मेरा मतलब मदन सिंह, मौसी जी के छोटे बेटे और हमारे बड़े भैया ने कंधे पर हाथ रखा।
'क्या यार, कब आए? और यहाँ क्या रहे हो अकेले में, खाना वाना कुछ हुआ के नही ?'
'हाँ भैया, खा लिया। नीचे कोई नहीं था बात करने को तो यहाँ आ गया।'
'अच्छा! चल अब नीचे चलते हैं। आजा।'
'हाँ भैया, पर एक बात बताइए। वो गोपाल काकोसा का घर है ना? ये उनके घर में साड़ी वाली औरत कौन है ?'
'हाहाहा, अरे भाई तू किस लोक से आया है, तुझे कुछ नहीं पता ? ये बहु है उनकी। रमेश की लुगाई'
'पर साड़ी? हमारी राजपूती ड्रेस क्यूँ नहीं पहनी इन्होंने ?'
'अरे भाई, वो हमारा पहनावा है इनका नही'
'मतलब?'
'मतलब ये भाई मेरे, कि हमारी जाति की है ही नहीं।'
'लव मैरिज है ?'
'हाहाहा तेरे यही समझ में आएगा शहरी बाबू। तू यही मान ले। चल अब आजा।'
नीचे आए, तो बहुत सारे परिचित और कुछ अपरिचित चेहरे घूम रहे थे। मैं वही भैया के साथ बैठ गया। सामने एक कमरा बाहर से बंद है, एक नज़र भर देखा फिर ध्यान हटा कर भैया से पूछा , अच्छा भैया बारात कहाँ जाएगी ?
भैया फिर से हंसने लगे। समझ नही आया की भैया किस पर हंस रहे, मेरी बात पर या मुझ ही पर :| और इसमें हंसने जैसा क्या था आखिर ? अपनी झेंप मिटाने को बोला की भैया मैं गाँव का चक्कर लगा के आता हूँ और बाहर निकल आया।
ठाकुर जी का मंदिर आज भी वैसा ही है, सब पूजा-अर्चना करने जाएंगे पर पैसा-खर्चना कोई नहीं करता। चूने और पत्थर से बनी दीवारों तक को दीमक चाट गई हैं, प्रसाद पर मंडराते मकोडों के झुंड आज भी वैसे हैं जैसे पहले दिखाई देते थे। 'पीर जी के रोजे' के पास मेरी दूसरी मौसी का लड़का लक्ष्मण नजर आया, शायद खेत से आ रहा था। सोशल मीडिया की चपेट में आकर ये भी लक्ष्मण से लकी हो गया है मुझे देखा तो भाग के करीब आया, गले लगाया बोला आप कब आए भैया, चलो घर।
सरोज मौसी ने खाट पकड़ रखी थी। मौसा जी तो अब रहे नहीं , उनके सिरहाने खड़ी लड़की ने घूँघट खींचा और अंदर चली गई। पूछा तो पता लगा लकी मियां ने शादी बना डाली किसी की लड़की भगा के, मौसी जी बताते वक़्त कुछ उदास नज़र आए फिर बोले 'चल भाग के ही सही आई तो अपनी जात वाली। आजकल तो जिसे देखो दूसरी जात में परणीज (विवाह) रहा है। और जात पात अब कौन देखता है सबको बीनणी चाहिए चाहे जैसे भी आए। पहले लड़के वालों की कदर होती थी अब लड़की वालों की है।' उनके शब्दों के सच के साथ परेशानी के निशानी उनकी पेशानी पर दिख गए, 2 लड़के और हैं अब उन्हें कौन अपनी लड़की देगा। मैं चलने को हुआ तो मौसी जी बोले, अपने भाइयों का ध्यान रखना, कोई लड़की हो तेरे ससुराल में तो बताना। 'जी मौसी जी, ये भी कोई कहने की बात है।' कहकर उनके पांव छुए और बाहर आ गया। लकी मेरे साथ ही हो लिया।
गांव के लोग अब भी कुएँ का ही पानी पीना पसंद करते हैं, लकी बता रहा था। सुना था कोई 'जर्मन योजना' से पालर पाणी घर घर पहुँचाने की स्कीम आई थी पर लोगों ने नकार दिया।
मुझे इन बातों में कोई रूचि नहीं बात बदलते हुए पूछा,' इस बार की होली कैसी रही ? '
'कैसी होली भैया, कोई होगा तभी तो रंग उड़ेगा।'
'मतलब?'
'अब किसके पास वक़्त है होली के लिए, सब बाहर रहते है पैसे कमाने का भूत सवार है सब पर, जिसके पास सब है उस पर भी, एक अजीब सी होड़ है सबसे आगे निकल जाने की, पर न जाने कहाँ'
'अच्छा छोड़ वो सब, प्रकाश भाईजी की बारात कहाँ जा रही है तुझे पता है ?'
'हाहाहा, क्या भैया आप भी, आपको नहीं पता ? बारात कहीं नहीं जा रही'
'हैं ? मतलब ? मैं समझा नहीं'
'अरे भैया, बीनणी पहले ही आ गई तो बारात की जरूरत क्या है ?'
'तू ढंग से बताने का क्या लेगा'
'हाहाहा बताता हूँ बताता हूँ, देखो भैया बारात दुल्हन को लिवाने ही तो जाया करती है न, अब सिस्टम बदल गया है, दुल्हन पहले आ जाती है तो लिवाने का कोई झंझट ही नहीं'
मुझे कुछ समझ नही आया फिर से, लकी को गुस्से से घूरा तो वो फिर से कहने लगा,' भैया यहाँ लड़कियाँ बची ही कहाँ है शादी के लिए, इक्का दुक्का जिनके हैं वो सब चाहते हैं कि उनकी बेटी की शादी तो कलेक्टर से करेंगे, गलत नहीं हैं ऐसा सोचना पर फिर बाकि लड़को का क्या होगा ? आपको पता है गाँव में इतने कुँवारे है कि कान काटो तो कुआं भर जाए। अब इन्ही कुँवारों ने ये स्कीम चलाई है, दूर दराज से किसी गरीब की बेटी को ले आते हैं पैसा देकर, उनका भी फायदा और इनका भी, अपने प्रकाश भैया भी उनमें से एक है। '
लकी चुप हो गया पर मेरे कान में 'गरीब की बेटी' शब्द गूँजता रहा। सोचने लगा,अपने धन से किसी का आँगन आबाद करने वाला तो सबसे बड़ा धनवान हुआ, पर क्या स्त्री की यही नियति है ? उसे किसी चीज की तरह खरीदा और बेचा जाए? जो बिक कर आई होगी उसे तो पता भी न होगा की खरीददार कौन है, कैसा है ? सोचने लगा, क्या रमेश और प्रकाश भाईजी जैसे लोग गलत कर रहे हैं? मौसी जी के यहाँ डीजे अब भी पूरी आवाज़ के साथ दहाड़ रहा था, पर मुझे लग रहा था जैसे ये शोर किसी की मजबूरी की सिसकियाँ दबाने का प्रपंच मात्र है, घुटन-सी होने लगी, चुपचाप वहाँ से निकल कर वापस लौट चला। ये मेरा वो गाँव है ही नहीं 😢😢😢
#जयश्रीकृष्ण
©अरुण
पूरे रास्ते गाड़ी चलाते वक्त गाँव की खुशबू को दूर से ही महसूस करने की चाहत के चलते बाहर तांक झांक करते आया, टीले अब उतने भूरे नहीं लग रहे, अकड़ कर खड़े रहने वाले धोरे भी अब सीधे हो रहे, जाने क्यूँ पर मेरा मन हरे भरे टीले स्वीकार नहीं कर पा रहा। मुख्य सड़क से गाँव की और घूमते ही मोहन चाचा नज़र आ गए, मोहन चाचा , इनकी गिनती गाँव के सबसे रईस लोगों में होती है , फूसकी (पुष्पा,चाचा की इकलौती बेटी) की शादी की धाक आज भी गांववालों के मन पर है,होती भी क्यूँ न बेटी को तो इतना दिया की लड़के वालों को ले जाने में ही पसीने आ गए और तो और सभी बारातियों को भी चाँदी के बर्तन की यादगार भेंट दी गई थी। तब से बस अकड़ के चलते हैं , क्या मजाल जो किसी से सीधे मुँह बात कर लें। उनको देख मैंने गाड़ी से उतर उनके पांव छुए, बदले में आशीर्वाद रूप में 'हूँ' मिला, सीधे बोले कब आया?
'जी, बस अभी अभी चला आ रहा हूँ।'
चाचा एक और 'हूँ' में बात निपटा कर अपने रस्ते हो लिए। मैं उन्हें जाते देख रहा था। चाचा ऐसे तो न थे, बहुत मेहनती थे और ये शौहरत उन्होंने अपनी मेहनत से पाई थी विरासत में नहीं पर गाँव से बाहर शहर तक उन्हें ले जाने वाले पापा थे। आज उन्ही की संतान से अकारण ऐसी बेरुखी ? चलो जी कोई बात नहीं। सोचते सोचते गाड़ी बढ़ा दी।
गाँव में भी अब बाड़ की जगह ईंट की दीवारों ने ले ली है, कुछेक घरों में अब भी कांटेदार झाड़ की बाड़ है। दीवारें अच्छी नहीं लग रही मुझे, और कांटे खुशनुमा अहसास जगा रहे है, बड़ी हसरत से देखता आगे बढ़ा जा रहा हूँ। मौसी का घर झोंपड़ा नहीं रहा अब तो अच्छा खासा महल है , आज सज धज के और भी अच्छा लग रहा है पर झोपड़ी की चाह पूरी न होने से मन में कसक जैसा कुछ है। भीतर डीजे की कानफोड़ू ध्वनि गूँज रही। देखा कुछ बच्चे नाच रहे हैं 'भंडारे म् नाचे म्हारी बीनणी ए' गीत की धुन पर। डीजे है? पर ढोली क्यूँ नही ? स्वयं से प्रश्न करता मैं भीतर प्रविष्ट होने लगा। 'अरे रे रे रुक बेटा', मौसी जी अचानक एक थाली के साथ प्रकट हुई, 'टीका तो निकलवा ले, भाई की शादी में आया है इतना भी नही जानता? ' तप्त मन पर जैसे मरहम सी रख दी हो। गीला कुमकुम लगा भले ही माथे पर था पर शीतलता भीतर तक अनुभव हो रही थी। मौसी जी बहुत खुश नजर आ रही थी, स्वाभाविक भी था चार बेटे हैं उनके, सब के सब उम्र में मुझसे बड़े हैं, अच्छा खासा कमाते है, बिजनेस है रुपया पैसा भी है, और अब इकलौती बची हुई ख़ुशी भी उनकी होने जा रही थी, बेटे की शादी हो रही थी। अब तक शादी न हो पाने के कारण मौसी कुछ दुःखी से रहते थे पर अब सब ठीक होने जा रहा था।
सब शादी के कामों में लगे थे, मैं क्या करता, बोर होने लगा तो छत पर चला गया टहलने, सोचा देखूँ ऊपर से मेरा गाँव कैसा नज़र आता है। गाँव का शहरीकरण साफ नजर आ रहा था पक्के मकान, और उनकी छतों पर टंगे डी टी एच के छोटे छाते कुकुरमुते की तरह हर और दिख रहे थे। अचानक मदि भैया, मेरा मतलब मदन सिंह, मौसी जी के छोटे बेटे और हमारे बड़े भैया ने कंधे पर हाथ रखा।
'क्या यार, कब आए? और यहाँ क्या रहे हो अकेले में, खाना वाना कुछ हुआ के नही ?'
'हाँ भैया, खा लिया। नीचे कोई नहीं था बात करने को तो यहाँ आ गया।'
'अच्छा! चल अब नीचे चलते हैं। आजा।'
'हाँ भैया, पर एक बात बताइए। वो गोपाल काकोसा का घर है ना? ये उनके घर में साड़ी वाली औरत कौन है ?'
'हाहाहा, अरे भाई तू किस लोक से आया है, तुझे कुछ नहीं पता ? ये बहु है उनकी। रमेश की लुगाई'
'पर साड़ी? हमारी राजपूती ड्रेस क्यूँ नहीं पहनी इन्होंने ?'
'अरे भाई, वो हमारा पहनावा है इनका नही'
'मतलब?'
'मतलब ये भाई मेरे, कि हमारी जाति की है ही नहीं।'
'लव मैरिज है ?'
'हाहाहा तेरे यही समझ में आएगा शहरी बाबू। तू यही मान ले। चल अब आजा।'
नीचे आए, तो बहुत सारे परिचित और कुछ अपरिचित चेहरे घूम रहे थे। मैं वही भैया के साथ बैठ गया। सामने एक कमरा बाहर से बंद है, एक नज़र भर देखा फिर ध्यान हटा कर भैया से पूछा , अच्छा भैया बारात कहाँ जाएगी ?
भैया फिर से हंसने लगे। समझ नही आया की भैया किस पर हंस रहे, मेरी बात पर या मुझ ही पर :| और इसमें हंसने जैसा क्या था आखिर ? अपनी झेंप मिटाने को बोला की भैया मैं गाँव का चक्कर लगा के आता हूँ और बाहर निकल आया।
ठाकुर जी का मंदिर आज भी वैसा ही है, सब पूजा-अर्चना करने जाएंगे पर पैसा-खर्चना कोई नहीं करता। चूने और पत्थर से बनी दीवारों तक को दीमक चाट गई हैं, प्रसाद पर मंडराते मकोडों के झुंड आज भी वैसे हैं जैसे पहले दिखाई देते थे। 'पीर जी के रोजे' के पास मेरी दूसरी मौसी का लड़का लक्ष्मण नजर आया, शायद खेत से आ रहा था। सोशल मीडिया की चपेट में आकर ये भी लक्ष्मण से लकी हो गया है मुझे देखा तो भाग के करीब आया, गले लगाया बोला आप कब आए भैया, चलो घर।
सरोज मौसी ने खाट पकड़ रखी थी। मौसा जी तो अब रहे नहीं , उनके सिरहाने खड़ी लड़की ने घूँघट खींचा और अंदर चली गई। पूछा तो पता लगा लकी मियां ने शादी बना डाली किसी की लड़की भगा के, मौसी जी बताते वक़्त कुछ उदास नज़र आए फिर बोले 'चल भाग के ही सही आई तो अपनी जात वाली। आजकल तो जिसे देखो दूसरी जात में परणीज (विवाह) रहा है। और जात पात अब कौन देखता है सबको बीनणी चाहिए चाहे जैसे भी आए। पहले लड़के वालों की कदर होती थी अब लड़की वालों की है।' उनके शब्दों के सच के साथ परेशानी के निशानी उनकी पेशानी पर दिख गए, 2 लड़के और हैं अब उन्हें कौन अपनी लड़की देगा। मैं चलने को हुआ तो मौसी जी बोले, अपने भाइयों का ध्यान रखना, कोई लड़की हो तेरे ससुराल में तो बताना। 'जी मौसी जी, ये भी कोई कहने की बात है।' कहकर उनके पांव छुए और बाहर आ गया। लकी मेरे साथ ही हो लिया।
गांव के लोग अब भी कुएँ का ही पानी पीना पसंद करते हैं, लकी बता रहा था। सुना था कोई 'जर्मन योजना' से पालर पाणी घर घर पहुँचाने की स्कीम आई थी पर लोगों ने नकार दिया।
मुझे इन बातों में कोई रूचि नहीं बात बदलते हुए पूछा,' इस बार की होली कैसी रही ? '
'कैसी होली भैया, कोई होगा तभी तो रंग उड़ेगा।'
'मतलब?'
'अब किसके पास वक़्त है होली के लिए, सब बाहर रहते है पैसे कमाने का भूत सवार है सब पर, जिसके पास सब है उस पर भी, एक अजीब सी होड़ है सबसे आगे निकल जाने की, पर न जाने कहाँ'
'अच्छा छोड़ वो सब, प्रकाश भाईजी की बारात कहाँ जा रही है तुझे पता है ?'
'हाहाहा, क्या भैया आप भी, आपको नहीं पता ? बारात कहीं नहीं जा रही'
'हैं ? मतलब ? मैं समझा नहीं'
'अरे भैया, बीनणी पहले ही आ गई तो बारात की जरूरत क्या है ?'
'तू ढंग से बताने का क्या लेगा'
'हाहाहा बताता हूँ बताता हूँ, देखो भैया बारात दुल्हन को लिवाने ही तो जाया करती है न, अब सिस्टम बदल गया है, दुल्हन पहले आ जाती है तो लिवाने का कोई झंझट ही नहीं'
मुझे कुछ समझ नही आया फिर से, लकी को गुस्से से घूरा तो वो फिर से कहने लगा,' भैया यहाँ लड़कियाँ बची ही कहाँ है शादी के लिए, इक्का दुक्का जिनके हैं वो सब चाहते हैं कि उनकी बेटी की शादी तो कलेक्टर से करेंगे, गलत नहीं हैं ऐसा सोचना पर फिर बाकि लड़को का क्या होगा ? आपको पता है गाँव में इतने कुँवारे है कि कान काटो तो कुआं भर जाए। अब इन्ही कुँवारों ने ये स्कीम चलाई है, दूर दराज से किसी गरीब की बेटी को ले आते हैं पैसा देकर, उनका भी फायदा और इनका भी, अपने प्रकाश भैया भी उनमें से एक है। '
लकी चुप हो गया पर मेरे कान में 'गरीब की बेटी' शब्द गूँजता रहा। सोचने लगा,अपने धन से किसी का आँगन आबाद करने वाला तो सबसे बड़ा धनवान हुआ, पर क्या स्त्री की यही नियति है ? उसे किसी चीज की तरह खरीदा और बेचा जाए? जो बिक कर आई होगी उसे तो पता भी न होगा की खरीददार कौन है, कैसा है ? सोचने लगा, क्या रमेश और प्रकाश भाईजी जैसे लोग गलत कर रहे हैं? मौसी जी के यहाँ डीजे अब भी पूरी आवाज़ के साथ दहाड़ रहा था, पर मुझे लग रहा था जैसे ये शोर किसी की मजबूरी की सिसकियाँ दबाने का प्रपंच मात्र है, घुटन-सी होने लगी, चुपचाप वहाँ से निकल कर वापस लौट चला। ये मेरा वो गाँव है ही नहीं 😢😢😢
#जयश्रीकृष्ण
©अरुण
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