कॉलेज का प्रथम वर्ष, घर से दूर रहने का पहला अनुभव, और इस अनुभव से साक्षात् हो रहे हम तीन भेरी मच एक्साइटेड फेल्लोज, हम यानि मैं ,अजय और 'माही'। ओ हेल्लो भाई साहब, 'माही' नाम पर एक्स्ट्रा ध्यान लगाने से कोई फायदा नहीं, 'माही' मने कोई षोडसी कन्या नहीं है, माही बोले तो महेंद्र, आपकी और हमारी तरह एक खड़ूस मुस्टंडा। हाँ तो ये मुस्टंडा टोली घर से निकलते ही, बहुत दूर चलते ही गंगानगर के पाल हॉस्पिटल के पिछु वाली गली में अपना टेम्परेरी आशियाना मने खोली तलाशने आ पहुँची। गुलशन ने बोला था, अपना डॉ. गुलशन, बोले तो गुल्लू डार्लिंग ने। गेट पर आकर मन ही मन जोर से पढ़ा ह्म्म्म 'नरेश निवास', हाँ लग तो यही रहा है, फिर एक दूसरे को एक विजेता वाली मुस्कान गिफ्ट कर भीतर दाखिल हुए। नरेश निवास, किसी बनिए नरेश का घर था। खुद फर्स्ट फ्लोर पर विराजित इस फैमिली ने नीचे 8 छोटे छोटे कमरे बना कर होस्टल का साइड बिजनेस भी जमा रखा था। बनियाज आर ऑलवेज भेरी कलेवर इन मनी मैटर 😊। वैल, गुल्लू ने सब सेटिंग कर रखी थी हमे बस उसमे फिट होना था। यूँ की हो गए हम भी।
आठ कमरों के भांति भांति के विचित्र प्राणियो में अकेला गुल्लू हमारी ऐज का था बाकि सब सीनियर सिटिज़न , वो खुसट वाले नहीं, समझा करो न स्वीटी, बस 4-5 साल या उससे ज्यादा वाले सीनियर थे। ज्यादातर पंजाब से यहाँ लॉ पढ़ने आए थे, कुछ एम एससी करने। सब बड़ा प्यार करते हम लोग, और अपना ये प्यार विभिन्न प्रकार से यदा कदा जताते भी रहते थे। वन्स देयर वाज़ जब माही टाइप सेंटर पर एक गुटखा छाप गुंडे को पीट आया और नेक्स्ट डे जब सेंटर पर जाते हुए उसकी फट कर होद हो रही थी बिकॉज़ गुटखा मियाँ ने भी कल देख लेने का पूरा पूरा भरोसा दिया था, उस दिन भी हमारी होस्टल पार्टी ने गुटखा और उसकी बाकि की उधार की सुपारियों की चिंदी बिखेर दी थी। 😊😊 एंड रिजल्ट माही बीकेम सेल्फ डिक्लेअरड़ दादा ऑफ़ द सेंटर।
बड़ा मस्ती मज़ाक का माहौल रहता, पर हमारे ये बड़े ..बड़े वो थे, खुद कभी किताब को छुएं भी नहीं पर उनके आने पर हमारी पढ़ाई शुरू मिलनी चाहिए। कुछ भी खाने पीने को घर से लाते या बनाते इन देवताओं को भोग लगाए बिना नसीब न होता। और कोई कितना बनाएगा या लाएगा ? जो भी होता 16 लोगो के चखने में ही चला जाता। और हम बेचारे समय के मारे मासूम करते भी तो क्या करते, बहुत बार भूखे रह जाना पड़ता, क्योंकि थोड़ा बोलने का ढीठ लोगो पर असर होता नहीं और ज्यादा बोल के अपनी हड्डियां तुड़वाने में हम भी यकीन नहीं करते ।
31 दिसंबर का सर्द दिन, हम लोग चुपचाप कमरे में पढ़ाई कर रहे थे। बाकी सब एक एक करके विजिट कर गए, देखा बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं , ह्म्म्म गुड गुड बहुत अच्छे, वैरी नाइस वैरी नाइस, लगे रहो लगे रहो, पर किसी ने नहीं पुछा कि खाना क्यों नही बना रहे। एक्चुअली हमने प्लान बना लिया था कि आज कुछ स्पेशल बनाते है, दूध लेकर दही जमा दिया, आलू उबाल कर और थोड़े प्याज़ काट कर रख दिए। किसी को कानो कान खबर नही होनी चाहिए, सब कुछ मस्त प्लान के अकॉर्डिंग चल रहा था। आज की रात हम आलू के परांठे बना के गुल छर्रे उड़ाने वाले थे, बोला था न ? बेचारे मासूम, तो वैसे ही मासूम गुल छर्रे 😊। पेट में ताबड़तोड़ चूहे अपना अलग आईपीएल चला रहे थे पर सब सह कर रात होने वाली पार्टी का इंतज़ार कर रहे थे। इंतज़ार हमेशा मुश्किल होता है पर भूखे रहकर खाने के लिए इंतज़ार करना पड़े तो वो और भी डेंजर होवे है। देर से ही सही पर आखिर रात हुई, माही सब कमरों के बाहर हल्के कदमो से जाकर रेकी कर आया, कहीं कोई जाग तो नही रहा, और ये फैसला सुनाया की 12 बजे से पहले किया तो रिस्क है। बहुत भूख लग रही थी पर फिर भी थोड़ा और इंतज़ार किया , आखिर 11 बजे के आसपास सब्र का पैमाना छलका, और तवा स्टोव पर जमा कर हम तीनों उसके चारों और बैठ गए, माही ने मसाला तैयार किया, मैं परांठा बेल रहा था तो अजय उसे तवे पर पटक कर आगे पीछे से घी की मालिश कर रहा था। कि 'हो जा तैयार पट्ठे, आज छोंड़ेंगे नहीं, खीखीखीखी', लगभग आधी रात 10x10 का छोटा सा कमरा भीतर से बंद कर हम अपना सीक्रेट मिशन अंजाम तक पहुंचाने में जुटे थे।
घी के जलने से कमरा पूरा सफेद धुएँ से भर गया था, जो हमे बिना बताए कमरे के रोशनदान से बाहर निकलने लगा। उसी समय एम एससी फाइनल ईयर के स्टूडेंट कुलजिंद्र भाईजी का लघुशंका निवारण के लिए अपने कमरे से बाहर आना हुआ, कमरे के रोशनदान से बाहर आते धुएँ से उन्हें लगा की कहीं लौंडे अंदर सोते हुए जल तो नही गए। फटाफट भाग कर दरवाजा खटखटाया हमे आवाज़ लगाई, हम हड़बड़ा गए, ये क्या हुआ, अब क्या होगा, पर खुद को संयत कर वापस कहा सब ठीक है भाईजी। पर चूक हो चुकी थी, दरवाजा खोलने का हुक्म हुआ, पर हमने ना खोलने का निश्चय कर लिया था, बोले आप जाओ भाईजी कुछ नही हुआ है सोने दो आप। कुलजिंद्र भाईजी को संतोष न हुआ रोशनदान में गर्दन घुसा कर भीतर झाँका।
'ओये ए की है? प्रोण्ठे, बुआ खोल हुणे, नई ता म् होरा नू वी सद के ल्योना' (अरे ये क्या है? पराँठे, दरवाजा खोलो अभी, नहीं तो मैं अभी बाकी लोगों को भी बुला के लाता हूँ)
हालाँकि उनके इस डायलॉग का भरपूर असर हुआ था हम पर , पर अजय के दरवाजे खोलने से पहले ही कुलजिंद्र भाईजी की लात दरवाजे की चिटकनी ले उड़ी।
आराम से भीतर दाखिल होकर बिना किसी से पूछे पराँठे ठुसना शुरू कर दिया। अपनी मेहनत पर यूँ पानी फिरते देख बहुत सैड वाली फीलिंग आ रही थी, पर चुप थे। कुलजिंद्र भाईजी ने जी भर कर खाने के बाद प्रस्थान किया पर थोड़ी देर में एक के बाद एक बाकि होस्टल मेंबर आने लगे और जब सब चले गए तो पीछे लुटे पिटे से हम थे।
उसी वक़्त बाहर भड़ भड़ भड़ पटाखे फूटने का शोर होने लगा, पता लगा नया साल लग गया, हमने एक दूसरे की और देखा बोले 'हैप्पी न्यू ईयर', आटा और तैयार कर लो, पराँठा तो हमारे भाग में वैसे भी था नहीं। 😊☺😢
#जयश्रीकृष्ण
©अरुण
Rajpurohit-arun.blogspot.com
आठ कमरों के भांति भांति के विचित्र प्राणियो में अकेला गुल्लू हमारी ऐज का था बाकि सब सीनियर सिटिज़न , वो खुसट वाले नहीं, समझा करो न स्वीटी, बस 4-5 साल या उससे ज्यादा वाले सीनियर थे। ज्यादातर पंजाब से यहाँ लॉ पढ़ने आए थे, कुछ एम एससी करने। सब बड़ा प्यार करते हम लोग, और अपना ये प्यार विभिन्न प्रकार से यदा कदा जताते भी रहते थे। वन्स देयर वाज़ जब माही टाइप सेंटर पर एक गुटखा छाप गुंडे को पीट आया और नेक्स्ट डे जब सेंटर पर जाते हुए उसकी फट कर होद हो रही थी बिकॉज़ गुटखा मियाँ ने भी कल देख लेने का पूरा पूरा भरोसा दिया था, उस दिन भी हमारी होस्टल पार्टी ने गुटखा और उसकी बाकि की उधार की सुपारियों की चिंदी बिखेर दी थी। 😊😊 एंड रिजल्ट माही बीकेम सेल्फ डिक्लेअरड़ दादा ऑफ़ द सेंटर।
बड़ा मस्ती मज़ाक का माहौल रहता, पर हमारे ये बड़े ..बड़े वो थे, खुद कभी किताब को छुएं भी नहीं पर उनके आने पर हमारी पढ़ाई शुरू मिलनी चाहिए। कुछ भी खाने पीने को घर से लाते या बनाते इन देवताओं को भोग लगाए बिना नसीब न होता। और कोई कितना बनाएगा या लाएगा ? जो भी होता 16 लोगो के चखने में ही चला जाता। और हम बेचारे समय के मारे मासूम करते भी तो क्या करते, बहुत बार भूखे रह जाना पड़ता, क्योंकि थोड़ा बोलने का ढीठ लोगो पर असर होता नहीं और ज्यादा बोल के अपनी हड्डियां तुड़वाने में हम भी यकीन नहीं करते ।
31 दिसंबर का सर्द दिन, हम लोग चुपचाप कमरे में पढ़ाई कर रहे थे। बाकी सब एक एक करके विजिट कर गए, देखा बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं , ह्म्म्म गुड गुड बहुत अच्छे, वैरी नाइस वैरी नाइस, लगे रहो लगे रहो, पर किसी ने नहीं पुछा कि खाना क्यों नही बना रहे। एक्चुअली हमने प्लान बना लिया था कि आज कुछ स्पेशल बनाते है, दूध लेकर दही जमा दिया, आलू उबाल कर और थोड़े प्याज़ काट कर रख दिए। किसी को कानो कान खबर नही होनी चाहिए, सब कुछ मस्त प्लान के अकॉर्डिंग चल रहा था। आज की रात हम आलू के परांठे बना के गुल छर्रे उड़ाने वाले थे, बोला था न ? बेचारे मासूम, तो वैसे ही मासूम गुल छर्रे 😊। पेट में ताबड़तोड़ चूहे अपना अलग आईपीएल चला रहे थे पर सब सह कर रात होने वाली पार्टी का इंतज़ार कर रहे थे। इंतज़ार हमेशा मुश्किल होता है पर भूखे रहकर खाने के लिए इंतज़ार करना पड़े तो वो और भी डेंजर होवे है। देर से ही सही पर आखिर रात हुई, माही सब कमरों के बाहर हल्के कदमो से जाकर रेकी कर आया, कहीं कोई जाग तो नही रहा, और ये फैसला सुनाया की 12 बजे से पहले किया तो रिस्क है। बहुत भूख लग रही थी पर फिर भी थोड़ा और इंतज़ार किया , आखिर 11 बजे के आसपास सब्र का पैमाना छलका, और तवा स्टोव पर जमा कर हम तीनों उसके चारों और बैठ गए, माही ने मसाला तैयार किया, मैं परांठा बेल रहा था तो अजय उसे तवे पर पटक कर आगे पीछे से घी की मालिश कर रहा था। कि 'हो जा तैयार पट्ठे, आज छोंड़ेंगे नहीं, खीखीखीखी', लगभग आधी रात 10x10 का छोटा सा कमरा भीतर से बंद कर हम अपना सीक्रेट मिशन अंजाम तक पहुंचाने में जुटे थे।
घी के जलने से कमरा पूरा सफेद धुएँ से भर गया था, जो हमे बिना बताए कमरे के रोशनदान से बाहर निकलने लगा। उसी समय एम एससी फाइनल ईयर के स्टूडेंट कुलजिंद्र भाईजी का लघुशंका निवारण के लिए अपने कमरे से बाहर आना हुआ, कमरे के रोशनदान से बाहर आते धुएँ से उन्हें लगा की कहीं लौंडे अंदर सोते हुए जल तो नही गए। फटाफट भाग कर दरवाजा खटखटाया हमे आवाज़ लगाई, हम हड़बड़ा गए, ये क्या हुआ, अब क्या होगा, पर खुद को संयत कर वापस कहा सब ठीक है भाईजी। पर चूक हो चुकी थी, दरवाजा खोलने का हुक्म हुआ, पर हमने ना खोलने का निश्चय कर लिया था, बोले आप जाओ भाईजी कुछ नही हुआ है सोने दो आप। कुलजिंद्र भाईजी को संतोष न हुआ रोशनदान में गर्दन घुसा कर भीतर झाँका।
'ओये ए की है? प्रोण्ठे, बुआ खोल हुणे, नई ता म् होरा नू वी सद के ल्योना' (अरे ये क्या है? पराँठे, दरवाजा खोलो अभी, नहीं तो मैं अभी बाकी लोगों को भी बुला के लाता हूँ)
हालाँकि उनके इस डायलॉग का भरपूर असर हुआ था हम पर , पर अजय के दरवाजे खोलने से पहले ही कुलजिंद्र भाईजी की लात दरवाजे की चिटकनी ले उड़ी।
आराम से भीतर दाखिल होकर बिना किसी से पूछे पराँठे ठुसना शुरू कर दिया। अपनी मेहनत पर यूँ पानी फिरते देख बहुत सैड वाली फीलिंग आ रही थी, पर चुप थे। कुलजिंद्र भाईजी ने जी भर कर खाने के बाद प्रस्थान किया पर थोड़ी देर में एक के बाद एक बाकि होस्टल मेंबर आने लगे और जब सब चले गए तो पीछे लुटे पिटे से हम थे।
उसी वक़्त बाहर भड़ भड़ भड़ पटाखे फूटने का शोर होने लगा, पता लगा नया साल लग गया, हमने एक दूसरे की और देखा बोले 'हैप्पी न्यू ईयर', आटा और तैयार कर लो, पराँठा तो हमारे भाग में वैसे भी था नहीं। 😊☺😢
#जयश्रीकृष्ण
©अरुण
Rajpurohit-arun.blogspot.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें