📰📰📰📰📰 अखबार के टुकड़े ♠♠♠♠♠ .


कहानी के लिहाज़ से इससे बेकार और नीरस शीर्षक भला और क्या मिलेगा, रोज पढ़ते हैं भई, पहले अख़बारों में कहानी पढ़ लेते थे पर अब कहानी के नाम पर अखबार के टुकड़े? छी छी छी, 'रद्दी' सा नाम है, क्यों यही कहना चाहते हैं न आप? अजी रुकिए तो जनाब, यूँ इतनी जल्दी राय न बनाइए, हो सकता है अंत तक आते आते यही आपको भी जम जाए, और अगर न भी जमे तो क्या, कभी कभी खड़ूस बन कर सबकी प्रतिक्रिया को दरकिनार कर देने का भी एक्सपीरियंस लेने में भी हर्ज़ नहीं। ले ही लेने दीजिए हमको भी 😊

बहरहाल हमारी इस कहानी की नायिका है, जाह्नवी, जी हाँ जी हाँ कभी कभी वुमन ओरिएंटेड भी लिखना चाहिए, इससे आपके भीतर के पुरुष को कितनी तुष्टि मिली इस पर ध्यान न भी दें तब भी कम से कम इस बहाने नारीवादियों को तो इनडायरेक्टली पुचकारा ही जा सकता है। हँस लीजिए, सिर्फ हँसने के लिए ही लिखा है। हँसना छोड़ कहानी पर लौटिए, वरना जाह्नवी बुरा मान जाएगी। जाह्नवी , २७  वर्षीय, दिल्ली की लड़की । अब कुछ लोगों को इसमें भी बुरा लगा होगा, मानता हूँ नाम से जो कमसिन छवि आपकी कल्पना में उपजी थी, ये उससे मेल नहीं खा रही। लेकिन आज मैं कुछ भी परम्परागत कहने, सुनाने या लिखने के मूड में बिल्कुल नहीं हूँ, इसलिए लड़की की उम्र इतनी ही रहेगी, कम नहीं होगी मतलब नहीं ही होगी। बेचारी जाह्नवी परेशान है और आपको अपनी एक्सपेक्टेशन की पड़ी है? क्या कहा, क्यूँ परेशान है? अमा कुछ कहने का मौका तो दीजिए हुजूर। कहानी सुनिए । तो हमारी जाह्नवी परेशान है, वाकई। माना बड़े शहर में रहती है, पर बड़े शहर में क्या मक्खियाँ नहीं होती? चली आई थी घर से खुद को प्रूव करने , वो घर जो हम जैसे बहुतेरे निम्नमध्यमवर्गीय परिवारों की तरह ही है। छोटे शहर में है। थोड़ी आमदनी वाला है। आगे बढ़ना था। इसलिए उन सारे बन्धनों को तोड़ ताड़ के निकल आई, ढेर सारे सपनों के गठ्ठर उठाए। मैंने थोड़ी देर पहले आपसे कहा था न कि जाह्नवी परेशान है, यूँ समझ लीजिए कि ये गठ्ठर ही उसे परेशान कर रहा है। सोच कर आई थी कि बड़े शहर में जाते ही बड़ी सी नौकरी होगी, लम्बा चौड़ा पैकेज, लेटेस्ट मोबाइल और तो और रहने को डुप्लेक्स और चलने को गाड़ी भी कम्पनी देगी। पर हकीकत में रोज जब डीटीसी की बस पकड़ के छोटे से अखबार के छोटे से ऑफिस में जाती है, और जब वहाँ बैठकर कम्प्यूटर टाइपराइटर की कीज तड़तड़ाती है तो लगता है काले अक्षर उसके सपनों पर क्रमशः कालिख पोतते जा रहे। अबकी बार का इंक्रीमेंट मिला कर 15k  महीने के मिलेंगे, एक बार के लिए खुद को लगा कि जैसे अब ये तनख्वाह से बढ़ रही समस्याएं खत्म हो जाएंगी। पर आजकल समस्याएं तनख्वाह से जल्दी बड़ी होती हैं।

वैसे तो आज के दौर में लड़की होना ही अपने आप मे खुद एक समस्या है। सबकी कॉमन समस्याएं भी लड़की के पास आते ही अधिक विकराल हो उठती हैं और लड़की अगर अकेली हो तो क्या कहने। 3 साल से द्वारका में है, पुरानी दिल्ली के दड़बों से निकल यहाँ आई थी तो लगा था शायद अब कोई उसे वैसे नहीं घूरेगा, कोई उसे ओपोर्चुनिटी नहीं समझ लेगा, साले जाहिल लोग किसी से हँस कर बोल भी लो तो क्या क्या बातें बनाने लगते हैं। जाने क्यों उन्हें हर लड़की में रात के जुगाड़ की जुगत दिखाई पड़ती है। और उस रात तो, उस अशरफ़ ने उसका हाथ ही पकड़ लिया था, जब वो अपने दड़बेनुमा कमरे कमरानुमा दड़बे में जाने के लिए सीढियां चढ़ रही थी। हर लड़की की तरह एक सपना ये भी तो था कि कोई उसे बहुत प्यार करने वाला हो, जिसके छूने से दिल की कलियाँ खिलखिलाने लगे। पर जिस तरह से उसका हाथ जबरदस्ती और वाहियात ढंग से पकड़ा गया था, लगा जैसे कलियाँ खिल नहीं रही मसल दी गई हैं, कुचल दी गई हैं, एक गहरी वितृष्णा भरी चीत्कार भी बस मुँह से फूटने की कोशिश ही कर पाई, झटके से अपना हाथ छुड़ा कर दड़बे का गेट भीतर से बंद कर लिया।

यहाँ वहाँ जैसा माहौल नहीं,  घूरने क्या किसी के पास किसी को देखने की भी फुर्सत नहीं है। वहाँ से अलग यहाँ ये एक समस्या है। दूसरी समस्या ये भी है कि १००० की जगह ३००० देने पड़ेंगे कमरे के किराए के लिए। अपने कमरे में घुस कर चारों और नजर घुमाई। कुछ अखबार के फ़टे टुकड़े जिस पर उसी ने खाना रख कर खाया होगा, अब उठा लेने वाले हाथों की बाट जोह रहे हैं। डस्टबीन में समेटने को हाथ उठे, पर कोई विज्ञापन देख कर ठिठक गई। "वधु चाहिए, २५ वर्षीय खूबसूरत, अपना बिजनेस, आय ५ अंकों में, अग्रवाल लड़के के लिए, कोई जाति बंधन नहीं, सम्पर्क **********" एक दर्द सा फिर उठने लगा, सोच रही है कि मैं ये विज्ञापन क्यों देख रही हूँ? फिर सोचा कि क्यों न देखूँ? आखिर शादी की उम्र तो हो ही रही उसकी भी। और हो नहीं रही निकल रही है। पिता की मौत के बाद से हर महीने घर पर भी कुछ पैसे भिजवाने होते हैं, कभी कभी लगता है जैसे घरवालों ने शायद उसे उतने भर के लिए ही समझ लिया है। पर और करें भी तो क्या? और फिर शादी ब्याह के लिए क्या नहीं चाहिए। ख़ैर जो जब होना हो हो जाएगा।

सारी परेशानी झटक कर सो जाना चाहती है, पर मन के किसी कोने में , कोई है जो, २५ वर्षीय खूबसूरत, अपना बिजनेस, आय ५ अंकों में, दोहरा रहा है। उसे लगता है जैसे ये उसी लड़के के बारे में है, कौनसा लड़का ? अरे कहानी नायक प्रधान हो या नायिका प्रधान, लड़का लड़की तो एक दूसरे के पूरक ही हैं न। लड़का वही है, जिसका घर उसके ऑफिस के रास्ते मे पड़ता है, 'घर से निकलते ही कुछ दूर चलते ही' टाइप, वही जिस के घर के अहाते में कई गाड़ियाँ खड़ी हैं। वही जो कभी कभी अपने कुत्ते को घुमाने निकलता है, जाने कितने रंगों की टी शर्ट और कितने सारे लोअर हैं उसके पास, हर बार बदल जाते हैं। वो भी उतना ही होगा, मेरा मतलब लगभग २५ वर्षीय, खूबसूरत है, आय का पता नहीं पर उतने अंकों में तो होगी, वरना इतना तामझाम मेंटेन कैसे करेगा कोई। आते जाते चलते चलते चुपके कनखियों से देख लिया करती है वो, क्या वो भी उसे देखता होगा ? नोटिस किया होगा उसे ? क्यों नहीं देखेगा, आखिर क्या कमी है उसमें ? पता नहीं क्यों उसी पल उठ कर खुद को आईने में निहारने लगी, अच्छी भली तो हूँ। पर क्या वाकई ? आँखें बिना काजल के फीकी सी लग रही। अभी लगा लूँ, विचार किया पर इतनी रात को देखेगा भी कौन? चेहरे पर झुर्रियों ने जगह तलाशनी शुरू कर दी है, बाल भी कुछ पके पके लग रहे। खाक देखता होगा वो मुझे। नींद उड़ गई। जिंदगी की सारी परेशानियाँ अपने ही चेहरे पर केंद्रित हो गई, लगने लगा कि इसके सुधार में ही सब समस्याओं का भी समाधान छुपा है।

4 बजे ही तक जब नींद न आई तो उठकर बाल रंग डाले, नाखून खुरचे, ब्यूटी पार्लर गए भी तो मुद्दत हो चुकी। अब जो भी करना था खुद ही करना था हमेशा की तरह, जो भी मिला उसी से खूबसूरत बनने/ दिखने की कवायद की। क्या वो अब मुझे देखेगा? दर्पण में देखा, क्या वो आकर्षक है ? क्यों नहीं है, है न, तभी तो उस अशरफ़ ने उसका हाथ पकड़ा था। सहसा उस घटना पर, जिससे हमेशा उसे घिन्न आया करती थी, उसी पर उसे अजीब सी गर्वानुभूति होने लगी। वो सुंदर है, हाँ बहुत सुंदर। वो उसकी और वो उसकी तरफ जरूर देखेगा। कैसे नहीं देखेगा? देखना ही पड़ेगा। कैसी अजीब सी बातें कर रही हो, खुद से कहा। फिर पूछा क्या तुम उससे प्यार करने लगी हो? पता नहीं। वो क्यों तुमसे प्यार करेगा, तुमसे उम्र में भी कुछ छोटा ही होगा। तो, तो क्या हुआ? एक आध साल का ही फर्क होगा ज्यादा से ज्यादा, इतना कौन देखता होगा। और हो सकता है वो भी मुझसे प्यार....। न जाने क्यों एक लाज की लाली क्रीम पोते चेहरे की दमक में घुल गई।

ऑफिस 9 बजे से है और अभी तो सिर्फ 6:30 हुए हैं, डीटीसी बस से आधा घण्टा लगेगा, इस लिहाज से अभी पूरे 2 घण्टे एक्स्ट्रा बिताने शेष हैं। इंतज़ार हमेशा सबसे मुश्किल काम होता है। समय रबड़ की तरह लंबा होता सा प्रतीत होता है। समय बिताने के लिए जाह्नवी ने फोन निकाला। जी आप सही सोच रहे हैं, बहुत साधारण सा फोन। हैंग हो जाता है बार बार, इसलिए एहतियात के तौर पर उसने किसी से चैटियाने की आदत ही नहीं डाली। देखा है लड़कियों को कान से फोन चिपकाए इधर उधर आते जाते, ऑफिस में काम करते, किसी से बतियाते हुए। पता नहीं क्यों उसे इन सबके लिए वक़्त नहीं मिला, या शायद उसके किसी डर ने ही उसे इन सब से दूर रखा हो। जब उसका 'प्यार' शुरू होगा तो वो भी ऐसे ही बात करेगी ? हाँ पर क्या, उसके पास क्या है ऐसा जिसे बता कर उसे और सुन कर सुनने वाले को खुशी होगी ? जो ये लड़के लड़कियाँ बतियाते हैं सबके पास कितनी बातें हैं। अपने बारे में, घर के बारे में, हॉबीज वगैरह का कोटा तो पहली बार में खत्म हो जाता होगा। बाद में तो यहाँ वहाँ की होती होगी। हाँ कर लेगी वो भी इधर उधर की कुछ भी।

घड़ी कह रही है कि कुछ ही देर में 8 बज जाएंगे, आज समय रोज से ज्यादा धीमा है। बैठे रहना मुश्किल हो गया तो बाहर आ गई, सड़क पर, अब वो भी आएगा सामने से, उसे देखेगा, देखता रहेगा, शायद कुछ कह दे, कह क्या दे पूछ ले ,'कि क्या आप भी मुझसे प्यार करती हैं?' धत्त ऐसे कौन कहेगा पहली बार बात करने पर किसी से। शायद बात नाम पूछने से शुरू होगी और.....। वो जो सामने आ रहा है वही तो नहीं? हाँ वही लग रहा है, पर उसका कुत्ता कहाँ गया? लेकिन मैं कुत्ते के बारे में सोचूँ भी क्यों? उसकी मर्जी, नहीं लाया न सही, क्या आज वो मुझे नोटिस करेगा ? करेगा जरूर करेगा आज तो कुत्ता भी नहीं है ध्यान बंटाने को। पर अगर नहीं किया तो, तो मैं ही बात कर लूँ? पर मैं क्या बात करूँगी? वही , नाम ही पूछ लूंगी, पर अगर उसने बोल दिया कि क्यों पूछ रही हो या आपसे मतलब , तो क्या कहूंगी? नहीं ये तो बैड मैनर्स हैं इतना बदतमीज तो कोई भी नहीं होता किसी लड़की से बात करते , फिर ये तो किसी भी एंगल से ऐसा वैसा नहीं लगता। वो नजदीक आ रहा था, नज़र न जाने कैसे खुद बा खुद झुक गई, मन मे यही उधेड़बुन चल रही थी कि कैसे बात करूँ, धड़कने तेज हो गई फिर एक जोर से धक्क हुई और सब नॉर्मल हो गया। ये वो था ही नहीं। पर वो मुझे उसके जैसा क्यों लगा? वो ही क्यों जो भी आ रहा था लग रहा था जैसे वही ही तो आ रहा है। क्या मैं पागल हो रही हूँ या सचमुच उससे प्यार...। चलते चलते उसका घर करीब आ रहा, आज गाड़ियाँ बाहर भी खड़ी हैं, कभी कभार वो जब बाहर नजर नहीं आता तो घर में नजर आ जाता है, शायद आज भी नजर आ जाए। घर पर विशेष सजावट है। एक फूलों से सजी गाड़ी अंदर से निकल करीब से गुजर गई, वो भीतर था, किसी दूल्हे जैसा दिख रहा था।  एक अनजान आँसू गाल से ढुलक कर नीचे जा गिरा।

ऑफिस से लौट आई, जाह्नवी वाकई परेशान है, बहुत परेशान। पर खाना पीना तो नहीं छोड़ सकती न, साथ लाई है हमेशा की तरह, अखबार बिछाया, न चाहते हुए भी एक जगह नजर चली गई, "२७ वर्षीय, राजकीय कर्मी, संस्कारी परिवार, गोरी वधू चाहिए, सम्पर्क करें **********" , "हाँ गोरी ही तो हूँ मैं भी................।"

#जयश्रीकृष्ण

©अरुण

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🏡🏡🏡🏡🏡 ओ शोना ओ शोना ♠♠♠♠♠

"अच्छा सुनो, गोरखपुर स्टेशन से उतरते ही सीधे टेम्पू कर लेना, बोलना चावला पकौड़े वाले के पास जाना है। अरे बोले तो फेमस है रे इदर ये चावला।  टेम्पू वाला तुमको एक तिराहे पे छोड़ेगा। ओहो तुम कन्फ्यूज मत हो रे शोना। मैं हूँ ना। सामने देखो सफेद घर दिखा न तुमको? वोई चावला का घर है। देखो अब शक्लें ना बनाओ, भूल गए चावला पकौड़े वाला ? अरे इसी का नाम ले के तो यहाँ आए हो, यही घर है , यकीन न हो तो कन्फर्म कर लो। बाहर पकौड़े जैसी नाक वाले जो अंकल बैठे हैं वही तो हैं चावला जी, खैर! तुम भी ना, खामखाँ कहाँ के कहाँ घुसे जा रहे। तुम सीधी गली पकड़ लो, हाँ हाँ फ़टाफ़ट, आगे तीन रोड़ क्रॉस करके बाजार दिखेगा। हाँ तो क्या खाली हाथ आओगे हमसे मिलने ? शर्म कल्लो बेटा जी, लड़की से मिलने जा रहे। देखो जेब ढीली करो और अच्छा सा गिफ्ट खरीद लेना हमाए लाने। हम तो कहते हैं कोई टेड्डी ही खरीद लो। अरे जब तक हमारे पास पहुंचोगे तब तक टाइम पास करने को तुम्हारे पास हमारा टेड्डी होगा न बतिया लेना हमारा नाम ले के।

देखो अभी से शुरू मत हो जाओ टेड्डी उठाओ और चलो महाशय जी। किधर ? अरे हाँ तो बता रहे न हम, सीधे ही चलना है, जब तक पार्क न आए, नाम पढो इसका, आँखें बड़ी मत करो नाम पढो हमारे साथ। 'केशव उद्यान' । वाह ! सही जा रहे बिल्कुल, बगल में देखो, दाहिने नहीं बायीं तरफ , हाँ घूम जाओ उसी ओर, 4था घर छोड़ के 5 वें घर के दरवाजे पर जाओ, भीतर नहीं जाने का रे, और हाँ अपना ये हाथ जेब में रखो खाना खाने के काम आएगा घँटी काहे बजाने की सोच रहे, टॉमी है घर में, और तुम तो हो ही टेस्टी हम नहीं चाहते कि कोई और तुम्हारा नाश्ता कर ले हमारे सिवा। 😍😍😍 हाय दैया हमको हमारी ही बात पर लाज आने लगी। ये शर्म भी कमाल की चीज़ है ना शोना? वैसे एक बात बताएं हम शर्माते हुए बहुत सुन्नर लगते हैं, मम्मी ने बोला था, जब हम शर्माए थे पिछली गर्मियों में , काहे शर्माए थे ? अरे तुम भी न ढक्कनों वाले सवाल पूछते हो बिल्कुल, कोई लड़की काहे शर्माएगी, कुछ लाज आने की बात हुई होगी न, अच्छा बता देते हैं बाबूलाल, वो क्या है न कि माँ बोली थी दीदी के साथ चीनू को भी निपटा देते हैं, हमको तो इतनी लाज आई कि हम तो वहीं गड़ने को हो गए। क्या? समझ नहीं आया ? अरे पागल निपटा देना माने सादी की बात हो रही थी पगलेट, अपनी सादी का सुनकर तो शर्माना बनता ही है, है कि नहीं?

अरे देखो तो जनाब को 😠😠, तुम अभी यहीं खड़े हो ?  टॉमी का वेट कर रहे ? किस्सी चाहिए उससे? पोपलादास ही रहोगे तुम। टेड्डी सम्भालो और दरवाजे के पास जो लड़का खेल रहा उसे प्यार से देखो,😍😍😍😍 इतना भी नहीं, ओवर लगोगे, गे टाइप्स, एंड आई डोंट लाइक गेज , यू नो ये लड़का बहुत  इस्मार्ट है लपक लेगा तुम्हारे इरादे,और वैसे भी इतने प्यार से बस हमको देखोगे तुम, हमको नहीं पसन्द किसी और को ऐसे देखोगे तो, बोल दिया बस।  हाँ बस थोड़ा सा प्यार से देखो, सिंपल वाला, और बोलो गुल्लू बेटा, अरे हाँ रे गुल्लू नाम है लड़के का, यार ये तुमको प्रॉब्लम क्या है? कोई कुछ भी नाम रखें उनके घर का मामला है न, देख रहें हैं नाक बहुत लंबी हो रही तुम्हारी हर जगह घुसी जा रही, अरे अपने काम से मतलब रखोगे फायदे में रहोगे, बता रहे। समझा तो रहे न कि सीधे प्यार से पूछ लो,गुल्लू बेटा हरिलाल के घर जाना है, गुल्लू खुद तुम्हे हरिलाल के घर छोड़कर आएगा तुम देखना, कितना अच्छा बच्चा है न गुल्लू। जब हमारा बेटा होगा सब उसके लिए भी यही बोलेंगे, कितना अच्छा बेटा है न किट्टू, हाँ तो क्या हुआ अगर ये मेरा भी नाम था बचपन में? तुम ऐसे निकालोगे मैंने सोचा भी न था, पुरुषवादी सोच हुँह, मन तो करता है तुम्हें यही से लौटा दूँ, बट शोना आई रियली लव, टेड्डीज, हीहीहीही अरे मजाक भी न करें अब तुमसे, तुमसे नहीं तो किससे करें बताओ? नहीं नहीं बता दो, देखो वो फेसबुकिया मठ्ठा #विवेक भी हमारा नाम छाती के बालों में छुपाए घूम रहा, ऑप्शन बहुत हैं बाबूलाल पर ये दिल हाँ ये दिल क्या करे इस दिल का, तुम पर आ गया हम क्या करें, आ गया तो आ गया, दिल आया गधे पर तो परा क्या चीज है?
एक बात बताएं, यार यू आर वेरी स्लो, नहीं समझे ? अमा , धीमे बहुत हो यार। कायदे से अब तक हरिलाल के घर पहुंच जाना चाहिए था तुमको, गुल्लू को देखो कैसे  छलाँगे मारता चलता है, तुम नहीं मार सकते ? कम ऑन टेड्डी का बहाना तो सुनाना ही मत, इत्ता भी कोई भारी नहीं होता ओके, बड़े आए, एक बात और जो कहना हो मुझे कह लो , कोई मेरे टेड्डीज को कुछ बोले ये मुझे बिल्कुल नहीं पसन्द , हुँह रहेगा उसके लिए, हरिलाल के घर पहुंच गए न ? न न ये मेरा घर नहीं है बुद्धू 😊, सामने स्कूल दिखा न तुमको? अरे आँखे अपनी ही हैं या उल्लू से उधार मांग के लाए हो भरी दुपहरिया में इत्ता बड़ा स्कूल ना दिखाई दे रहा तुमको 😠 ,अच्छा ध्यान से सुनो अब, वहाँ एक मास्टर जी पढ़ाते हैं #प्रदीप जी नाम है उनका, बहुत अच्छे हैं, मने की बहुत ही अच्छे हैं, अरे रे यूँ कि हम पढ़ चुके हैं उनसे इसलिए जानते हैं अच्छे से और इसलिए कह सकते हैं, यार सच्ची में बहुत अच्छे हैं, एक बार और कह लें ? बहुत ही अच्छे हैं मने हद से जियादा वाले अच्छे हैं, हीहीहीही अरे गुस्सा न करो चिढ़ा रहे तुमको पगलु, चिढोगे तभी तो क्यूट लगोगे, हमको मास्टर में कोई इंटरस्ट थोड़े न है। हमको नहीं है पर तुमको थोड़ा इंटरेस्ट लेना पड़ेगा प्रदीप में, अरे अब शक की नजर से ना देखो यार हमको। बोल दिए न कि कोई इंटरेस्ट नहीं है तो समझिए कि नहीं ही है। जाकर बोलो उनसे पूछो तिबारी जी को जानते हो, स्पेलिंग सही लिखे हैं हम , तिबारी ही है, तिवारी कह भी मत देना, प्रदीपवा मारेगा ज्यादा गिनेगा कम। अरे कुछ खास वजह नहीं है, तिवारी जी की बेटी के साइंस में 4 नम्मर काटे थे, अब तिवारी जी ठहरे विद्वान आदमी, पूछे कि क्यों काटे? किस बात के काटे?आएं बाएं करने लगे तो मार खा लिए मास्टर जी कायदे से तिवारी जी से। पता है तिवारी जी कूटते बहुत तसल्लीबख्श हैं, तो फिर जे तिबारी कौन है? अरे तुम्हरे काम का बन्दा है ही ओही, मास्टर जी बता देंगे कि किधर मिलेगा तिबारी, तुम लपक के पहुंचो झट से, थक तो नहीं गए न शोना?

ये जो टॉवर हैं न जियो का है , तिबारी इसके जेनरेटर में तेल डालने आता है, पता है हम आज ही रिचार्ज कराए हैं अपना जियो का नम्मर 499/- रूपीज से सन्दीपवा को उल्लू बना के, तुम डरो मत, उसका नम्मर ब्लॉक ही कर दिहिस, अच्छा तुम थोड़ा इंतज़ार करो, जब तिबारी आए तो उसको पटा के टॉवर पर चढ़ो, अरे हम पट गए तो तिबारी क्या चीज है, काहे? अरे बाबू, हम भी छत पर आते हैं, हाथ हिला देंगे तुम्हारी ओर। और बस तुम अब हमारे रांझणा की तरह दौड़ते चले आना, इंतज़ार नहीं होता हमसे, अच्छा सुनो तो वैसे सॉरी रहेगा हैं, एक बात कहना भूल गए हम, जियो रिचार्ज करवा लिया पर वीडियो कॉल नहीं करेंगे हम, शर्म लगती है हमको, बुआ बोली थी कि वो फूफाजी को सादी के बाद ही देखी रही, हम भी क़सम खा लिए हैं कि सादी के बाद ही तुमको देखेंगे फेस टू फेस, सुनो
उतर जाओ नीचे टावर से, इरादा बदल लिया हमनें, हम नहीं बता रहे अभी कि किधर रहते हैं, थोड़ा इंतजार का मज़ा लीजिए, अच्छा चलते हैं मम्मी बुला रही, तुम मिस करना हमको, ओके, लभ जु तो बोलो, अच्छा मत बोलो, नौटंकी कहीं के, हम बोल रहे, आई लभ जु, पूरा 45 किलो, अरे इत्ते ही ही हैं रे, समझो कि पूरा का पूरा तुम्हारे लभ से ही भरे हैं, बाय, अब पुच्ची वुच्ची नहीं देंगे यार, शलम लगती हैं न समझा करो, वो सब सादी के बाद 😜😍😍😍😜😉"

(किसी से एड्रेस मांगा था, ऐसे कौन एड्रेस देता है यार)
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#जयश्रीकृष्ण

©अरुण

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🎑🎑🎑🎑🎑 दीप ज्योति परम ज्योति ♠♠♠♠♠ .


आसमान में बादल हैं, दो छोटे छोटे बच्चे धीमे धीमे बरस रही हल्की बूंदों और बाहरी दुनिया से बेखबर अपनी ही धुन में न जाने किस लोक में खोए व्यस्त से नजर आते हैं। बारिश का पानी इकट्ठा होने से बने पानी के छोटे से गड्डे को तालाब की मौन अघोषित आकस्मिक उपाधि प्रदान कर दी गई है। उन बच्चों में से एक कागज की नाव बना कर उसी में बहाने में लगा है बारिश की आहट पाकर भाग रहे किसी मकौड़े को जबरदस्ती पकड़ 'सिन्धबाज़ जहाजी' का ख़िताब देकर अज्ञात की खोज में भेज दिया है। वहीं दूसरा तालाब के किनारे की गीली जमीन पर ऊँगली से कुछ उकेर रहा है, शायद कोई रंगोली बनाई जा रही है।

पहले ने दूसरे को अपने जहाज को निहारने का न्यौता देते हुए आवाज़ लगाई पर दूसरा दत्तचित्त और पूर्ण एकाग्र मन से रंगोली की गोलाइयों को साधने, संवारने  और उस पर नक्काशी में व्यस्त है। पहले को अपनी ये उपेक्षा अच्छी नहीं लगी शायद , हुँह ! भला उसके जहाज से बेहतर क्या होगा इस दुनिया में ? विचार आया कि जब 'उसका सिन्धबाज़' दूसरी दुनिया से ढेरों खजाने ले आएगा तो वो किसी को एक धेला भी न देगा, हुँह कह कर एक बारगी मुँह उधर किया भी पर दूसरा अब भी उसकी उपेक्षा और अपेक्षा दोनों से निरपेक्ष अपनी ही तन्द्रा में लीन था। उसने पुकारा भी नहीं पर शायद वो पुकार दूसरे की एकाग्रता को भेद नहीं पाई, सहज जिज्ञासा पहले को दूसरे की ओर खींच लाई। आकर देखने लगा कि आखिर वहाँ ऐसा है क्या जिसके लिए उसकी उपेक्षा की जा रही थी?

आड़ी तिरछी रेखाएं अधिक देर तक उसके कुतुहल का कारक बनने में सफल न हो सकी, जाने उसे क्या सूझी कि गीली गीली रंगोली पर दनादन लातें जमा कर सब तहस नहस कर दिया, जो रेखाएं बच भी गई उन पर भी कुछ छलांगे लगा कर रही सही कसर पूरी कर दी गई। चित्रकार अपनी कृति की दुर्दशा देख क्रोध में आपा खो बैठा, उठते ही जहाज के मालिक को जोर से धक्का दिया।  जिससे वो सीधा उसी गड्डे में जा गिरा। कीचड़ सने मित्र को देख चित्रकार के क्रोध का स्थान सहज हास्य ने ले लिया, पर हँसते हँसते हाथ आगे बढ़ा कर पहले को गड्डे से बाहर खींचने की भी चेष्टा की पर खुद भी फिसल कर उसी में जा गिरा। दोनों एक दूसरे पर पानी गिराते हुए कहकहे लगा रहे हैं। अचानक देखा कि उनसे कुछ कदम की दूरी पर एक पेड़ के नीचे से एक जोड़ी आँखें उन्हीं को निहार रही है, हास्य संकोच और संकोच झेंप में कब बदला और कब इस झेंप ने पलायन का रूप लिया , ये थोड़ी ही देर में तब स्पष्ट हो गया जब ये दोनों एक दूसरे के पीछे हाथों से स्कूटर बना कर हुर्रररर की आवाजें निकालते हुए दौड़ लगा गए।

मैं देख रही हूँ उन्हें दौड़ते, खिलखिलाते, मुस्कुराते हुए, हल्की सी अज्ञात मुस्कान मेरे चेहरे पर आते आते वापस अज्ञात ही में विलीन हो गई, जाने क्यूँ पर बरसों हुए 'सच में' मुस्कुराए हुए। मैं भी तो ऐसी ही थी शैतान, मासूम और निश्छल, वो सब बचपना बचपन खत्म होने से पहले ही खत्म हो गया। पर क्या कहूँ? किसे कहूँ? किस मुँह से कहूँ ? सब मुझे ही दोषी कहेंगे। उस दोष की दोषी जो मैंने नहीं किसी और ने किया। बारिश फिर टपकने लगी है। भगवान कभी कभी तो सहायता करते ही हैं। बारिश की बूँदों में बरसती आँख के आँसू अब नजर नहीं आ रहे। पर आप तब कहाँ थे भगवान जी, जब रोज आपसे प्रार्थना करती थी कि प्लीज मुझे अपने मम्मी पापा के पास भिजवा दो? दीदी ने बताया था कि 'मेरी मम्मी' मम्मी नहीं है,'हमारी बुआ जी' हैं, बस तब से मैं अपनी माँ अपने पापा तलाश ही तो करती आई हूँ। किसकी बेटी हूँ जन्म देने वालों की या पालने वालों की, उनकी जो मुझे जन्म से पहले ही मार डालना चाहते थे या उनकी जो इस बात का रोज अहसास दिला कर तंज कसते हैं कि मेरी जान बचाने वाले वे ही हैं, समझ नहीं आता कि मुझे 'जिंदा' होने के लिए आखिर किस किस का अहसानमंद होना चाहिए। पता नहीं क्यूँ मेरे इन माता-पिता को लगता है कि मेरी निष्ठा इनके प्रति नहीं 'अपने मम्मी पापा' के प्रति ही है।

बारिश बढ़ गई थोड़ी, मैं यहीं पेड़ के नीचे थोड़ा और सिकुड़ गई हूँ। वो बच्चे हुर्ररर करते लौट आए हैं। कीचड़ में लोट पोट हो रहे, खुशी से। उछल रहे। मुझे देखा फिर से, मुस्कुरा दिए, फिर ध्यान अपने खेल में लगा दिया। कीचड़ के गोले बना कर थपाक से एक दूसरे पर निशाना लगाया जा रहा। मुझे लग रहा जैसे मैं भी कीचड़ से सन गई हूँ, हाँ सच में सन गई हूँ बाहर से ही नहीं भीतर से भी, शायद मेरे आँसू उसी कीचड़ से मुक्त होने की मेरी कोशिशों के हिस्सा है। बच्चे कीचड़ में खेल कर भी खुश हैं, मैं खुश क्यों नहीं रह पाती? इस प्रश्न का उत्तर पूछूँ भी तो किससे? खुद से प्रश्न किया तो मन से खामोश चीत्कार सी निकलती है। बच्चे खुश हैं, मैं भी होती थी पहले पहल जब अपने मम्मी पापा के यहाँ जाती थी। भरा-पूरा परिवार, 2 बहने 1 भाई, सबसे छोटी मैं। सब बहुत प्यार करते। मम्मी लाड़ लडाती, पापा मेरे लिए खिलौने लाते, दोनों बहनें मेरा कितना ध्यान रखती, पर भैया तुम....😢 माँ कहती ये भी बहन है तुम्हारी, आशीष खिलखिला कर हँसने लगा था, कितनी अजीब थी वो हँसी। मैं 5 साल की थी और वो 9 साल का , उस हँसी की गूँज अब भी जब रह रह कर गूँज उठती है तो सिहर जाती हूँ। नहीं .....क्यों याद कर रही हूँ मैं वो सब, एक बच्चा फिसल कर गिर गया है। अरे रे, कितनी चोट लग गई खेल खेल में, पूरा घुटना छिल गया, खून बह रहा है, अब आँसू बह रहे बच्चे के भी, दूसरा स्तब्ध होकर टुकुर टुकुर ताक रहा। अपने रुमाल को उसके घुटने पर बांध दूँ शायद खून बहना रुक जाए। थेंक्यू दीदी, बच्चे ने बोला, उसके सर पर प्यार से हाथ फेरा, जाने क्यों बेवजह आँखे बही जा रही, दूसरा पहले को साथ ले कर जा रहा है। कितने अच्छे हैं दोनों, एकदम सच्चे, बच्चे सच्चे ही तो होते हैं, पर तुम्हे क्या हुआ था आशीष, बच्चे ही तो थे तुम भी, मैं भी, कमीने भाई थे तुम मेरे, मेरे अपने सगे भाई, सहोदर, पर कभी बहन मान भी पाए? तुम्हारा यूँ अजीब तरह से छुना अजीब लगता था, मन करता है जीभर कर गालियाँ दूँ तुमको, पर क्या उससे वो सब लौट आएगा जो तुमने छीन लिया मुझसे राक्षस? उस रात के बाद से तो इतना डर गई हूँ कि रह रह कर चौंक जाती हूँ। किसी पर भी पागलों की तरह चिल्लाती हूँ। सहम गई थी माँ से कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं थी। 5 साल की बच्ची कैसे कह दे। दीदी को कहा तो वो भी कुछ नहीं बोली। बस उसके बाद से अपने पास रखती , सबसे बचाकर, मेरा सब कुछ खा गए तुम। सच भाई नाम से नफरत हो गई है मुझे।

अरे ये बाइक पर कौन चले आ रहे? ओह पापा हैं, मेरे पालक पिता, वही जो सुबह बिना वजह मुझे डांट रहे थे, वही डांट सुन कर ही तो चली आई हूँ घर से यहाँ चुपचाप, आगे कहाँ जाऊं कुछ समझ नहीं आया, पापा आते ही शुरू हो गए।

'अरे बेटा, तू यहाँ क्यों आई अकेले? मैं कब से ढूंढ रहा था तुम्हें, तुम्हारी माँ ने रो रो कर आसमान सर पर उठा रखा है। चलो, ऐसा नहीं करते कभी, पता भी है सुबह से कुछ नहीं खाया किसी ने। सब तुझे ढूंढने में लगे थे।'

चुपचाप पापा के साथ घर आ गई, माँ ने गले से लगा लिया, बोली 'अब से ऐसा कभी न करना बेटा, जान सूख गई थी मेरी तो।' सोच रही हूँ ,क्या ये मेरी वही माँ रोज वाली? नहीं ये वो है जो सचमुच मेरी माँ है, सुबह से किश्तों में रोए जा रही, आखिर रुलाई फूट ही पड़ी। माँ, आई एम सॉरी माँ, अब मैं हर बात मानूंगी आपकी, आई एम सॉरी मेरी वजह से आपको भूखा रहना पड़ा, देखना एक दिन कुछ बन कर दिखाउंगी तुम्हे अपनी बेटी पर, आई प्रॉमिस आपको अपनी ज्योति पर गर्व होगा। और माँ अब कभी मुझे 'मम्मी' के पास मत ले जाना।

#जयश्रीकृष्ण

©अरुण

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😇🍪🍩🍋👳 जिसके सिर ऊपर, तुम स्वामी ♠♠♠♠♠

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नागपुर, संतरों की नगर। धीरे धीरे ओर नजदीक आ रहा रहा था। और आते जा रहे थे संतरे बेचने वाले। हर स्टेशन पर। ढेरों संतरे के टोकरे के साथ अनेकों लोग घुस आते ट्रेन के डिब्बे में। 10 के 10 - 10 के 10। सुन लिया था मैंन भी, सोचा अरे वाह! इतने सस्ते। फिर सोचा कम से कम तस्दीक तो करूँ, एक से पूछा कैसे दिए भाई? उसने झट से 10 संतरे कागज की पन्नी में अटका कर पकड़ा दिए। अरे ये क्या बात हुई, बस रेट ही तो पूछा था। पर सोचा 10 रुपए में सौदा बुरा भी नहीं , जेब में हाथ डाला कुल 160 रुपए में से 10 का नोट निकाल धीरे से पकड़ा दिया। संतरे वाला आगे बढ़ गया। मैं संतरों को निहार रहा हूँ, क्या करूँ? अभी खा लूँ ? नहीं नहीं रात में खाऊंगा जब दोबारा भूख लगेगी जोर से। कमबख्त ये भूख भी ना , कुछ भी हो जाए अपने टाइम पर लगती ही है, आरआरबी मुम्बई का एग्जाम है मेरा, शायद इस बार बात बन जाए इस आशा से चला आया हूँ मुँह उठाए। पास का जुगाड़ हमेशा की तरह फर्जीवाड़ा करके कर लिया, फ्री आना जाना तो हो जाएगा एससी वाले पास से, पर भूख ? उसका क्या करूँ माँ ने पूड़ी और चटनी बना कर दी थी, रस्ते के लिए। पर 8 पूड़ी कितने टाइम चलेगी? 2 दिन हो गए हैं । नागपुर की ओर बढ़ा जा रहा हूँ, दिन में एक टाइम भूखे रह कर 8 पूड़ी से 2 दिन तक काम चलाया, अब आज शाम का खाना ये संतरे बनेंगे। वाह गरीबी में भी गुलछर्रे हाँ, अपने मन की बात से मुस्कुरा लेने का मन हुआ पर चुपचाप बैग में संतरे रख कर बाहर के दृश्य निहारने लगा हूँ। बदलते प्राकृतिक दृश्यों के साथ इंसान भी बदले बदले से नजर आने लगे हैं। गांधी टोपी लगाकर खेतों में हल चलाते पुरुष, और विशुद्ध महाराष्ट्रीयन परिवेश में महिलाएँ, सोच रहा हूँ बाकी सब तो ठीक है पर ये नेता वाली टोपी ये लोग क्यों लगाते होंगे ? क्या पता इधर इसे पगड़ी की तरह सम्मान का सूचक मान लिया गया हो, या शायद गांधी जी ने ही ये टोपी राजनीति के लिए इन लोगों से उधार ली हो, पर गांधी जी तो टकले थे और वो तो कभी टोपी लगाते भी नहीं थे, कहाँ लगाते कुछ अटकाने का जुगाड़ भी तो होना चाहिए, हे हे हे, वैसे कायदे से इसे अगर नेहरू टोपी कहा जाना चाहिए, और मेरे ख्याल से उस पर किसी को ऑब्जेक्शन भी नहीं होगा। ह्म्म्म, पर मैं भी क्या क्या सोच रहा हूँ फिजूल में, ट्रेन बढ़ी जा रही, खपरैल वाले घर बहुत प्यार लग रहे हैं। जब मैं जॉब पर लग जाऊँगा छोटा ही सही एक अपना सुंदर सा घर जरूर बनाऊंगा। पर रेल एम्प्लॉयी को तो सरकारी क्वार्टर मिलता है, कोई ना, कुछ भी हो अपना घर आखिर अपना होता है। भूख लग रही , संतरे खा लूँ ? नहीं थोड़ा पानी ही पी लेता हूँ। दो घूँट पानी पीया, पानी थोड़ा सा ही है इसमें, अगले स्टेशन पर बोतल भर के रख लूँगा। मुझे लगा था कि अगला स्टेशन नागपुर ही है, पर ये तो कुछ और ही आ गया। खैर जो भी हो थोड़ा सुस्ता लूँ, रात भर भीड़ में सो भी नहीं पाया।

'मे आई हैव योर अटेशन प्लीज गाड़ी संख्या 12622 तमिलनाडु एक्सप्रेस , नई दिल्ली से चल कर ग्वालियर, झांसी, भोपाल के रास्ते चेन्नई जाने वाली सुपरफास्ट सवारी गाड़ी प्लेटफॉर्म नम्बर 4 पर खड़ी है, नागपुर रेलवे...' नागपुर नाम सुनते ही हड़बड़ा कर उठ बैठा हूँ, बाहर देखा, नागपुर रेलवे स्टेशन का बोर्ड धूप से चमक रहा। दिन के लगभग 2 बजने को हैं, अपने छोटे पिठ्ठू बैग सहित स्टेशन पर पधार गए हम, पानी की खाली बोतल फिर से लबालब होकर बेग में अपना स्थान ग्रहण कर चुकी है। कम्प्यूटर वाली लड़की अब अंग्रेजी में अटेंशन करके हिंदी की वही उद्घोषणा अब अंग्रेजी में भी दोहरा रही। मुझे अब वो सुनने में कोई इंटरेस्ट नहीं, जिनको है वो कान लाउड स्पीकर पर टांगे अपनी अपनी गाड़ियों की और दौड़ लगा रहे। मैं चुपचाप टहल रहा हूँ, एग्जाम तो कल है, सुबह 9 बजे और अभी तो सिर्फ 2 बजे हैं पूरे 19 घण्टे बिताने हैं इस बीच। सोचा यहाँ क्या करूँगा कुछ देर रेलवे वेटिंग हॉल में ही गुजार लूँ , आँखें उनींदी है नींद ही मिल जाए तो क्या कहने।
 'हाँ भैया, एंट्री करवाइए पहले, अरे आपको तो नागपुर ही आना था, पहुंच गए न, अब किसका इंतज़ार कीजिएगा? कल का रिटर्न टिकट है न, कल आइए, अभी जाइए'
'सर थोड़ी देर ...'
'समझ में नहीं न आता है तुमको, क्या बोले हम? कल आना, टिकट है त क्या पूरा रेल्बे खरीद लिए हो? नियम कानून कुछ जनबे की ना?'
वो गुस्सा हो गया, मन ही मन उसे 'साला बिहारी' बोल कर अपनी खुन्नस निकाली और धीमे कदमों से स्टेशन से बाहर आ गया। कहाँ जाऊं? क्या करूँ? अगर वो वहाँ रुक जाने देता तो क्या बिगड़ जाता? इतने लोगों में एक और सही, क्या फर्क पड़ता? पर नहीं, पक्का लालू का चमचा होगा ये, नौकरी लग गया तो इंसान को इंसान समझना ही भूल गया है। कोई सिफारिश, कोई पैसा नहीं है मेरे पास किसी को देने को, पर देखना मैं भी लग जाऊँगा, पर मैं कभी इसकी तरह नहीं करूंगा। स्टेशन से बाहर जाने किस ओर बढ़ा जा रहा हूँ, बाहर कुछ रेहड़ियाँ टाइप दुकानें या दुकान टाइप रेहड़ियाँ लगी हुई हैं पाव भाजी, टिक्की, समोसा, दही भल्ले की खुशबू जबरन नथुनों में घुस रही। लोग देखो कैसे भुक्खड़ों की तरह खा रहे, कितना गन्दा लगता है न इस तरह से खाना, जानवर साले, जब देखो खाना खाना खाना, हाँ मुझे भी खाना है, पर उसके लिए पैसे नहीं है मेरे पास, 150 रुपए? उसका खाना नहीं खा सकता, बचा कर माँ को दूंगा तो कितनी खुश होंगी, आश्चर्य करेंगी इतने से पैसे में इतनी दूर जा आया? वैसे गुस्सा भी करेंगी शायद, कहेंगी भूखा क्यों रहा? पर पैसे काम आएंगे घर पर, मैं एक दो टाइम न खाऊं तो मर थोड़े न जाऊँगा😊। अरे हाँ, याद आया,अब क्यों मरूँगा, संतरे हैं न वो कब काम आएंगे?😊 नहीं नहीं अभी नहीं शाम को खाऊंगा। अरे लेकिन 10 संतरे हैं एक दो अब खा लूँ तो क्या हर्ज है बाकी शाम को खा लूंगा। वैसे देखा जाए तो आईडिया ये भी बुरा नहीं। सड़क के किनारे बैठ गया हूँ, बैग से संतरे बाहर निकाले। बदबू आ रही थी उनसे 😢, ये कैसे संतरे दिए यार, इतनी जल्दी खराब भी हो गए, एक एक को टटोला, पिलपिले से लगे, सूंघा तो उबकाई आने लगी। पास के कचरा पात्र में सब विसर्जित कर दिए। दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम, मेरा नाम इन पर नहीं लिखा होगा शायद😢।

बैग उठाकर कर अनजान गन्तव्य की ओर बढ़ा जा रहा हूँ, किसलिए ? शायद बस समय गुजारने के लिए, ये शहर की खूबसूरती, ऊंची ऊंची इमारतें, अज्ञात खोजने को दौड़ लगाती अनन्त गाडियाँ, बड़ा सा सर्किल आ गया रस्ते में, भीतर हरी हरी दूब लगी है। मैं बकरी की तरह लालसा से दूब निहारता हूँ, खाने के लिए नहीं पर पाँव दुखने लगे हैं सोचा काश यहाँ थोड़ा सा आराम ही करने को मिल जाए तो कितना अच्छा हो। लेकिन चारों ओर तेज गति से से भागते वाहनों ने जैसे इसकी सुरक्षा का जिम्मा ले रखा है। आखिर कोई जाए भी तो कैसे? फिर से चल पड़ा हूँ, रास्ते में कोई रेल म्युज़ियम था, बाहर से ही तांक झांक करके सन्तुष्ट हो गया, अंदर जाने के 30 रूप कौन दे, उससे अच्छा कुछ खा न ले। हाँ खा लूँगा, मर नहीं जाऊँगा एक दो टाइम न खाने से, ऐसा करूँगा कि कल एग्जाम के बाद खा लूँगा। फिर टेंशन फ्री। चलते चलते एक पार्क आ गया, वाह भगवान शुक्र है , कुछ तो अच्छा मिला इस कंक्रीट के जंगल में। समय शाम के 6 बजे हैं, 2-3 लम्बी लम्बी कुर्सियां लगी हैं। कुछ बच्चे खेल रहे हैं, थोड़ा अंधेरा हो रहा है, कुछ मोटी आंटीनुमा औरतें पजामे और टी शर्ट जैसे दिखने वाले कपड़ों में जबरदस्ती घुस कर फ़टाफ़ट लगभग हाँफती हुई पार्क की पगडंडी नाप रही हैं। अंधेरे से मुकाबला करने को बिजली के जुगनू टिमटिमाने लगे हैं। मैं ऐसे ही एक जुगनू के करीब की कुर्सी पर उसके पंख निहारने को बैठ गया हूँ, एक युगल पहले से वहाँ बैठा था, मादा ने मुँह दूसरी ओर घुमा लिया तो नर ने घृणा से मेरी ओर देखा। मानो कह रहा हो, हमारे प्रणय में व्यवधान डालने वाले धूर्त चल भाग यहाँ से। चुपचाप मैं दूसरी ओर देखने लगा हूँ, फिर मुड़ कर देखा पाया कुर्सी पर मैं अकेला ही हूँ। समय रात के 8 बज चुके हैं। पाँव फैला कर थोड़ा आरामजनक मुद्रा में आ गया, ऊँघने लगा। अचानक देखा 7-8 लोग मुझे घेर कर खड़े हैं।

उनमें से एक बोला,'कौन हो तुम?'

'जी जी मैं स्टूडेंट हूँ, एग्जाम देने आया हूँ'

'क्या सुबूत है तुम्हारे पास?'

'मेरा कॉल लेटर और आईडी देख लीजिए'

गहन निरीक्षण हुआ, फिर एक बोला, 'यहाँ क्या कर रहे हो, यहाँ कौनसा एग्जाम हो रहा? जाओ किसी होटल में जाओ'

'पर मेरे पास उतने पैसे नहीं हैं सर'

'वो हम नहीं जानते, तुम्हारी हेडक है वो, इदर नहीं रुकने का मल्लब नहीं रुकने का, फूटो इदर से, सोसायटी का पार्क है ये'

'लेकिन सर, मैं किसी को क्या नुकसान पहुंचाऊंगा, बस सुबह होते ही चला जाऊंगा'

'नहीं, अम्मा का घर समझे क्या, बहुत चोरी होती इदर, पुलिस में दे दें तुमको? चल फूट'

कुछ और प्रतिवाद करने की हिम्मत न हुई, फिर से बैग उठाया, सच बहुत भारी भारी लग रहा है अब ये, ओर उससे भी भारी कदम। पांव इतना दर्द कर रहे मानो 10-10 किलो वजन पाँव में बांध दिया है। रोने जैसी हालत है, पैसे होते तो मैं भी अब तक किसी अच्छे से कमरे में आराम कर रहा होता। समय रात के 10 बजने को हैं, इतनी रात में कहाँ जाऊं , बस धीरे धीरे चला जा रहा हूँ, सामने एक कुत्तों का झुंड है, अगर ये मेरे पीछे पड़ जाएं तो मुझे यही फाड़ कर पार्टी कर लेंगे। पर कुत्ते शांत रहे, मैं चुपचाप आगे बढ़ गया। इंसानों ने कुत्तों की तरह व्यवहार किया, पर कोई बात नहीं अब कम से कम कुत्तों की ये इंसानियत भली लग रही। कुछ कहने को नहीं है मन अजीब सा हो रहा है। दूर लाइट्स जगमगाते देख सोचता हूँ ये सब आखिर किसलिए, सिर्फ दिखावे के लिए न, कोई इंसान भूख से, प्यास से, पीड़ा से मर भी जाए तो किसी को कुछ फर्क पड़ेगा ? बिल्कुल नहीं।

चलते चलते उस जगमगाती इमारत तक भी आ गया हूँ, अरे ये तो गुरुद्वारा है कोई, जाने कैसे कदम उस तरफ मुड़ चले, अंदर गुरु का लंगर वितरित हो रहा, देखा एक ओर मेरे जैसे बहुत से छात्र सो रहे, धीमे स्वरों में गुरुवाणी के मीठे बोलों की स्वरलहरियाँ गूंज रही , "जिसके सिर ऊपर तुम स्वामी, सो दुःख कैसा पावे।"

#जयश्रीकृष्ण

©अरुण

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🎪🎪🎪🎪 तिरुशनार्थी ♠️♠️♠️♠️

एक बार एग्जाम के लिए तिरुपति गया था। घरवाले बोले जा ही रहे हो तो लगे हाथ बालाजी से भी मिल आना। मुझे भी लगा कि विचार बुरा नहीं है। रास्ते म...