🎪🎪🎪🎪 तिरुशनार्थी ♠️♠️♠️♠️


एक बार एग्जाम के लिए तिरुपति गया था। घरवाले बोले जा ही रहे हो तो लगे हाथ बालाजी से भी मिल आना। मुझे भी लगा कि विचार बुरा नहीं है। रास्ते में आंध्रा के कुछ लोग मिले जो कह रहे थे कि तिरुपति बालाजी के दर्शनों के लिए बड़ी लम्बी वेटिंग चलती है और अगर आप वीआईपी दर्शनार्थी न हों तो कई दिनों तक नम्बर नहीं आता, यूँ की हौंसला ही तोड़ दिया था कम्बख्तों ने, लेकिन फिर सोचा कि जो भी हो ट्राई तो करेंगे ही। कोशिश करें तो क्या नहीं हो सकता वैसे भी मारवाड़ी हैं हम, क्या पता कोई जुगाड़ लग जाए।

तिरुपति पहुंचे तो एक थंगबली ने बताया कि बालाजी के दर्शनों के लिए पहाड़ी के ऊपर तिरुमाला जाना पड़ेगा जो वहाँ से लगभग 20 किमी की दूरी पर है। थंगबली ने ये बताते बताते वही खड़ी बसों की ओर इशारा भी कर दिया। थंगबली काला था पर मुझे देवदूत लग रहा था, मन ही मन उसे प्रणाम किया और बस में बैठ गया । अब मैं बैठ तो गया था पर साथ ही मुझे भोत सारा दुःख भी हुआ, इसलिए नहीं कि 20 किमी की यात्रा और करनी पड़ी बल्कि इसलिए क्योंकि 20 रुपए का अतिरिक्त खर्चा हो गया था। गोल-गोल घुमावदार मोड़ों वाले 20 किमी पार कर तिरुमाला पहुंचा तो एक बार फिर से भयंकर दुःख हुआ, यूँ कि पहले वाले से भी भोत ज्यादा वाला, जब पता लगा कि देवस्थान विभाग की बस से मैं यहाँ फोकट में भी आ सकता था। ख़ैर, मुझे उस देवदूत थंगबली की याद आई, इस बार उसकी शक्ल अलिफ लैला के जिन्न से मिलती जुलती लगी, मैंने मन ही मन उसे गाली के पुष्पों से श्रद्धाजंलि अर्पित की और फिर भूल गया।

कहते हैं कि तिरुमाला में लाखों लोग रोजाना भगवान के दर्शन करने आते हैं पर वहाँ की चाक चौबंद सफाई व्यवस्था देख कर मा बदौलत को बहुत प्रसन्नता हुई। मन हुआ कि गले से हीरों का हार तोड़ कर इन सफाई कर्मियों को दे दूँ, कहूँ की ले कर ऐश। पर गले पर हाथ फेरा तो केवल थोड़ी सी मैल ही उतरी। गर्दन झटक कर सोचा छोड़ यार आगे देखते हैं।

बड़े बड़े हॉल बनरे थे, भीतर हजारों की भीड़ वाली सर्पिल लाइन्स बनी थीं। शानदार व्यवस्था थी, भीड़ के लिए टीवी लगे थे लोग चुपचाप आराम से अपनी लाइन में लगे धीमे धीमे आगे बढ़ते जा रहे थे। किसी से पूछा तो उसने बोला कि भैये यही तो लाइन चलरी भगवान वेंकटेश्वर के दर्शनों के लिए। आयं अब ये भगवान वेंकटेश्वर कौन हैं ? बालाजी यहाँ से कब शिफ्ट हुए ? और इस भीड़ में तो 3-4 साल नम्बर नहीं आएगा और मेरा तो कल ही एग्जाम भी है। दैट्स रियली नॉट फेयर ब्रो। मैं सोच ही रहा था कि उसने बताया कि इन्हीं को बालाजी भी कहते हैं और ये उत्तर भारत के ब्रह्मचारी बजरंग बली नहीं हैं। इनकी तो दो-दो भार्याएँ हैं।

मैंने फिर सोचा, ओहो नाइस नाइस। लेकिन अब इन भगवान जी का दर्शन कैसे हो ? लाइन में घालमेल कैसे किया जा सकता है ? लूपहोल ढूंढे जाएं। इस कशमकश के साथ यहाँ वहाँ भटकना शुरू कर दिया। एक जगह देखा तो 100-150 लोग एक लाइन में लगे थे। वो मारा पापड़ वाले को, बन गई बात, आ गई ताबे। इस लाइन में लग जाऊँ तो शाम तक दर्शन पक्का हो जाएंगे। कौन कहता है आसमान में छेद नहीं होता, पत्थर वत्थर ढूंढ के फेंक के मारो यारो।

आज न छोड़ेंगे बस हमजोली, जाकर फटाफट लाइन में लग गया मैं तो , थोड़ी देर में मेरे पीछे लाइन में 50-60 लोग और भी जुड़ गए। ये सब भी मेरी तरह जुगाड़ू होंगे। खीखीखी। शराफत की इंतेहा क्या होती है कोई मुझे देखकर सहजता से समझ सकता था। चुपचाप लाइन में अपनी डिग्निटी मेंटेन किए धीरे धीरे आगे बढ़ने लगा। मेरे जस्ट पीछे एक अधेड़ महिला खड़ी थी। उसकी शक्ल से ही लगा कि पक्का उसे हिंदी नहीं आती होगी। थोड़ी-थोड़ी देर में जब मैं पीछे मुड़ कर देखता तो वो मुस्कुरा देती, और बदले में मैं भी अपनी कातिल मुस्कान फेंक के मारता। इस मुस्कुराहटों के व्यापारिक सम्बन्ध को और प्रगाढ़ बनाते हम आगे बढ़ते रहे, पता ही न चला कि लाइन में खड़े कब 4 घण्टे बीत गए। अब बस 20-25 लोग ही मेरे आगे शेष थे, मन में भगवान जी के दर्शनों का उत्साह बल्लियों उछलने लगा, प्रेमातुर आँखे बस मुहोब्बत बरसाने के इशारे का इंतज़ार कर रहे थे कि तभी अचानक आसमान फट गया, तूफान आ गया, धरती कांपने लगी, दिशाएँ डोलने लगी। मुझे लगा कि मैं लड़खड़ा कर गिर जाऊंगा, या शायद धरती फटेगी और मैं उसी में समा जाऊंगा या हो सकता है कि कहीं उड़ वुड जाऊँ। एक्चुअली ये सब तब हुआ जब मैंने देखा कि इस लाइन में सभी बालों वाले जा रहे हैं पर रिटर्न केवल टकला पार्टीज का ही हो रहा। इवन महिलाएँ भी अपना सर हथेली जैसा करवा कर निकल रही थी। घनघोर आशंकित मन से डरते डरते थोड़ा आगे बढ़कर देखा तो पता लगा ये लाइन टकला करने की ही है। अंदर कुछ नाई दे दना दन लोगों के सर छील रहे थे।

मैंने भगवान को थैंक्यू बोला, थोड़ा देर से ही सही पर टकला होने से पहले ही आँखें खोल दी मेरी। लाइन से निकल कर वापस जाने लगा तो वो खूसट फिर मुस्काई बोली मन्नत पूरी नहीं करोगे ?

ओ तेरा सत्यानाश जाए, खूसट कहीं की पहले नहीं बोल सकती थी ? मन ही मन मैंने सोचा, फिर बिना कुछ कहे वहाँ से चला आया। शायद उसे लगा होगा कि इस बेचारे को हिंदी नहीं आती।

भूख से अंतड़िया बैठी जा रही थी। पता लगा कि उसके लिए भी लाइन है। उस लाइन में घुसने की 2 रुपए की टिकट लगती है, पर अपन ठहरे मारवाड़ी जो सर फोड़ दे नोट न फोड़े। बिना पैसे दिए लाइन में लग कर हॉल में घुसे, पेटभर कर गर्मागर्म चावल और सांभर भकोसा। चावलों की खुशबू और उनकी सफेदी के साथ सांभर के स्वाद की भी मन ही मन खूब तारीफ की, जोरदार डकार के साथ वापसी का विचार बना लिया। फिर कभी बुलाओगे तो जरूर आएंगे प्रभु, अभी एग्जाम के लिए जाना पड़ेगा। तिरुपति बप्पा मोरया।

#जयश्रीकृष्ण

✍️ अरुण

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💏💏🙇🙇💃💃🏃🏃 प्यार हमें किस मोड़ पे ले आया ♠️♠️♠️♠️♠️

'दीवाना' मूवी के सभी गाने बहुत पसंद हैं मुझे, ओये नयी वाली नहीं रे, पुरानी वो ऋषि कपूर और दिव्या भारती वाली। वैसे उस मूवी में भी शाहरुख खान था पर तब तक मैं घनघोर टाइप राष्ट्रवादी नहीं बना था। सिर्फ इसीलिए नए वाली दीवाना बिल्कुल नहीं पसंद हमको, इवन गाने भी सुनना हो तो चुपके-चुपके ही सुनता हूँ और खुद गाने की चुल्ल लगे तो मुँह कम्बल में छुपा लेता हूँ। किसी को कुछ पता नहीं लगना चाहिए। आज तो बाइक से जाना हो रहा, मन हुआ कि एक बार के लिए मेरा राष्ट्रवाद किसी ओर की तरफ फेस कर ले तो मैं बाइक पर शाहरुख की तरह उछल उछल कर 'कोई न कोई चाहिए प्यार करने वाला' ही गा लूं। मस्त लगेगा न ? पर फिर लगा ये थोड़ा ओवर हो जाएगा। लोग मुझे पागल समझने लगेंगे। इसलिए शाहरुख को कस के तमाचा दिया, उधर ऋषि कपूर ने तुरन्त तान छेड़ दी। पायलिया हो हो हो, तेरी पायलिया हो हो हो। (अहा ये हुई न बात, बहोत सही काके, और जोर से गा।) और सच में अच्छे बच्चे की तरह ऋषि कपूर भीतर तेज़ आवाज़ में गाने लगा।

तेरी पायलिया शोर मचाये, नींद चुराए
होश उडाये, मुझको पास बुलाये, ओ रब्बा हो...

पायलिया से याद आया उस थिएटर का नाम भी तो पायल सिनेमा ही है जिधर मैं अभी जा रहा हूँ। यूँ तो मेरे पास टाइम वेस्ट करने का सबसे अच्छा साधन मोबाईल भी है पर सिनेमा की बड़ी स्क्रीन पर मूवी देखते हुए टाइम खराब करने का अपना अलग मजा है। पर मैं रोज मूवी देखने यहाँ नहीं जाता, हाँ कभी-कभी जाना अच्छा लगता है। इस बार वाला ये 'कभी' पूरे 6 साल बाद आया है। इतने सालों से कोई मूवी नहीं देखी। यही सोचता रहा कि अभी पैसे कमाने और जमा करने का वक़्त है, खर्च करने का नहीं, बुढ़ापे में ऐश करूँगा। आज अकाउंट में दीमक लगी देखकर सोचा ऐश करूँगा कैसे ? पैसा तो जमा हुआ नहीं और समय भी गंवाता जा रहा हूँ। यूँ की निकल आया जुगाड़ करके। 

सड़क सबके बाप की है इसलिए यहाँ से निकलना दूभर लग रहा। एक हल्की सी चूक और कोई रेहड़ी वाला कानों में जोर से चिल्लाएगा, 'बीस रुपये किलो, बीस रुपये किलो...सस्ता कर दिया...ले जाओ ले जाओ...लूट लो...।' मेरा फोकस सामने और नजरें हमेशा की तरह लक्ष्य पर टिकी हैं। कोई मुझे इससे डिगा नहीं सकता। पर इस कमबख्त लेडीज परफ्यूम की बात ही कुछ और है हेलमेट की दीवारें पार कर नथुनों में घुस गया। ये किसी पल्सर के वश की बात नहीं, कोई एक्टिवा ही मुझे इतना एक्टिव बना सकती है। तुरंत उसके पीछे दौड़ लगा देना चाहता था पर आजकल की लड़कीज बहुत फास्ट होती पार्टनर, निकल गई। हाँ, उसकी खुशबू अब भी मेरे आसपास है। बहुत भीड़ है, थिएटर तक पहुंचने से पहले बहुत बार बाइक के ब्रेक जांचने पड़े। हर बार ब्रेक लगने पर एक उपेक्षित उड़ती सी नजर बींध डालती है। स्टोरी के हिसाब से ये हीरो का अपमान है पर क्या करें। आजकल सब गड़बड़झाला चल रहा। पर तब भी कहीं मन में आवाज़ उठी कि शायद हीरोइन की एंट्री से सब ठीक हो जाए। 

थिएटर में पहुंचकर बाइक स्टैंड पर लगाई, हेलमेट वहीं बाइक पर अटकाने के अलावा उसी पर सुतली से कस कर बांध दिया। क्यों? क्योंकि मारवाड़ी अब भी रिस्क नहीं लेते। रेड एंड येलो चेक बुशर्ट (शर्ट का मारवाड़ी संस्करण) और ब्लू जींस में, मुँह घुमा कर एक लंबे बालों वाली लड़की खड़ी है। मैंने भी अपने बाल हवा में लहराने के लिए खोपड़ी को यहाँ वहाँ झटक कर हिलाया। पर हेलमेट की वजह से बाल चिपक गए हैं। नारियल तेल इज नॉट गुड इन सर्दी। साला चंपू लग रहा हूंगा, मन ही मन मैंने सोचा पर दूसरे ही पल ये विचार हवा हो गए। एक लड़की Hiiiii को जोर से चबा- चबाकर बोलती हुई इधर ही आ रही थी। आईला मतलब मैं चंपू नहीं हैंडसम टाइप कुछ लग रहा हूँ ? वाह। पर लड़की उड़कर आई और उस चेक बुशर्ट वाली लड़की के गले लग गई। यहाँ तक तो चलो मैं फिर भी बर्दाश्त कर लेता पर उसने आते ही एक चुम्मा भी चिपका दिया। दिल ही में सही पर कहना ही पड़ा,  'छी छी छी क्या जमाना आ गया है। इन्हीं के कारण देश तरक्की नहीं कर रहा। लड़की होकर दूसरी लड़की पर ऐसा हमला?' मैं कुछ और कहता इतने में चेक बुशर्ट वाली ने भी चुम्में के बदले चुम्मा चिपका दिया। आई मीन कि ये हो क्या रहा है ?  आज तो जुम्मा भी नहीं है फिर ये चुम्मा दे, दे दे दे चुम्मा, क्यों खेला जा रहा ? अचानक बुशर्ट वाली ने सामने वाली लड़की के कमर में हाथ डाला और थिएटर की ओर चल 'दिया'। जाते हुए बुशर्ट वाली की दाढ़ी अब साफ दिख रही थी। कलयुग है भाई कुछ भी हो सकता है, कहकर मैंने अपना फोन निकाल लिया। 

बुक माय शो, पर फ्री में दो टिकट बुक करवाई हैं। क्रेडिट कार्ड जिंदाबाद। मेरे पास नहीं है, पर जिसके पास है उसके पास वक़्त नहीं था। सो आई थॉट के मेरे समय के साथ मिलाकर उसकी इस ओपोर्चुनिटी को भी कैश करवा लिया जाय। 'वो' अभी आई नहीं है। उसने कहा था कि टाइम पर आ जाएगी, पर नहीं आई हमेशा की तरह। हर बार लेट आती है, लगता है बड़ी होकर नेता (नेत्री) बनेगी। ये इंतज़ार करने का ठेका हर बार बस मुझ ही को मिलता है। एक बोर्ड लगा है जिस पर मूवी के हाइलाइट्स की पिक्चर्स लगी हैं। कोई नहीं देख रहा, तो मैं पहुंच गया देखने, हाई शाबासे मस्त लग रही यार। बीच-बीच में गर्दन घुमा कर मेन एंट्री गेट को भी देख लेता हूँ। कुछ कन्याओं ने एंट्री ली है, सबके हाईलाइटर लगे अननेचुरल बाल बड़े प्यारे लग रहे, जिन्हें बार-बार झटक कर और हर 3 मिनट में संवारने का उद्यम कर और प्यारा बनाया जा रहा है। कपड़ों की डिटेलिंग दूंगा तो मेरी तरह आप भी मुझे कहोगे कि मैं इनको इतना गौर से क्यों देख रहा हूँ आखिर ? पर और देखूँ भी तो किसे ? जो भी आ रहा सीधे थिएटर में चला जाता है। कन्याएं भी हाथों में मोबाईल थामे कमर मटकाती हुई भीतर चली गईं। सबके पास बड़े से पर्स थे फिर भी मोबाईल हाथ में क्यों रखती हैं ? शायद कोई इम्पोर्टेन्ट कॉल आने वाला हो। पर तीनों का ? दुनिया बहुत तेज़ी से तरक्की कर रही है। उनके मोबाईल की सोच रहा तो अपना मोबाईल याद आया। जेब से बाहर निकालने लगा तो ढक्कन बाहर आ गया। टेप उतर गई शायद। बड़े धैर्य और जतन से बाकी मोबाईल को भी मना कर बाहर निकाला। बेचारे का पिछवाड़ा दिख रहा था, शर्म तो आएगी ही। देखा तो फोन चुप था, और इस चुप्पी में 'उसकी' आवाज़ भी दब गई। 5 मिनट पहले की 7 मिसकॉल थी। साइलेंट फोन में रिंगटोन नहीं बजी। फटाफट उसे कॉल लगाई , 'हेल्लो बच्चे...' बच्चे सुना तो उधर से वो फट पड़ी।

 'कोई बच्चा वच्चा नहीं, जब कॉल रिसीव ही नहीं करते तो ये खटारा क्यों उठाए घूमते हो?' 

कुछ नहीं कहा मैंने, एक्चुअली देयर वाज ए पॉइंट, वो सुनाने लगी और मैं सुनने लगा। थोड़ी रफ्तार कम हुई तो खिसिया कर पूछ ही लिया, कहाँ हो यार ?

'1 घण्टे से यहाँ गेट पर इंतजार कर रही हूँ, आधे घण्टे से कॉल कर रही हूँ तो उठा नहीं रहे। जाने वाली थी वापस, अगर तुम्हारा कॉल नहीं आता तो अब तक निकल गई होती।'

'चल झूटी'

'अच्छा, मतलब मैं झूठी हूँ?, मीन्स आई एम ए लायर ? ओके फाइन, आई एम गोइंग।' कहकर वो रोने लगी। 

'अरे मजाक कर रहा था यार। यू नो ना आई लव यू'

'सब झूठ है। तुम झूठे हो, तुम्हारा प्यार भी झूठा है। मुझे परेशान करने के लिए ही बुलाया था न ? (पर मैंने कब बुलाया, ये सब तो तुम्हारी प्लानिंग थी न?) अब जा रही हूँ तो रोक भी नहीं रहे। तुम कितना बदल गए हो। मुझे बिल्कुल प्यार नहीं करते।' वो फोन पर फिर से सुबकने लगी।

'अरे यार मैं तो खुद कबसे तुम्हारा इंतज़ार कर रहा था, रुको मैं तुम्हें लेने आ रहा हूँ।' मैंने गेट तक पहुँच कर बाहर देखा तो वो ऑटो वाले को पैसे देकर दौड़ कर आ गई। मेरे चेहरे पर लगे क्वेश्चन मार्क को देखा तो बोली, 'देखा अभी चली जाती मैं।' फिर मुझे देखकर मुस्कुराई और चहककर बोली, 'चलो भी मूवी स्टार्ट हो जाएगी न।'

झूटी...मैंने मन ही मन कहा उसे और उसके पीछे पीछे थिएटर में प्रविष्ठ हो गया। 

मूवी शुरू हो चुकी थी और भीतर बहुत अंधेरा था। इसलिए वो मेरी छड़ी बनी हुई थी। एक कॉर्नर पर खुद बैठ कर मुझे भी पास बैठा लिया। थोड़ी देर अंधा रहने के बाद अब मेरी आँखें लौट आई हैं। सामने बड़े से स्क्रीन पर चल रही मूवी के अलावा भीतर भी सब देख पा रहा हूँ। आधी से ज्यादा सीटें खाली पड़ी हैं। मुझे अचानक देश की बिगड़ती हुई अर्थव्यवस्था और मंदी प्रत्यक्ष दिखाई देने लगी। किसी को देश की चिंता है ही नहीं, वरना क्या ये कुर्सियाँ इस तरह खाली रहती ?  

'पॉपकॉर्न तो ले आओ'

'हैं!!??' मुझे लगा किसी ने मेरी तन्द्रा में व्यवधान डाल दिया हो, देखा तो वो पॉपकॉर्न खाने पर अड़ी हुई थी। उठ कर जाने लगा तो उसने पॉपकॉर्न के साथ कोक और एक कैडबरी डेयरी मिल्क सिल्क भी ऐड कर डाली। पॉपकॉर्न और कोक तो सुने हैं पर कैडबरी का इससे क्या कनेक्शन ? मतलब कुछ भी ? अब इससे पहले कुछ और ऐड हो मैं तुरन्त वहाँ से निकल गया। 

250/- रुपए का पॉपकॉर्न पहली बार सुना और जब 190/- रुपए कोक के लिए सुने तो मेरी तो भूख प्यास दोनों मिट गई। लेकिन फिर सोचा कम से कम पानी तो ले ही लूं। उसने 500ml की बॉटल के 60 रुपए अलग से झटक लिए, सब लेकर लुटा पिटा सा उसके पास गया। वो बिना प्यार दिखाए या थैंक्यू बोले सीधे शुरू हो गई। ये भी नहीं कहा कि 'तुमने अपने लिए क्यों न लिया?' 
'बाहर 20 रुपए का मिल जाता, ये लोग लूट रहे हैं।' मैंने धीरे से कहा। तो उसने डपट दिया, 'अब ये सब मत शुरू करो ओके, मूवी देखो न, कितनी अच्छी है।'

मैंने आसपास देखा, सबको मूवी इतनी अच्छी लग रही थी कि सब उसी में खोए थे। वो 3 लड़कीज भी बैठी थी 6 बन के, साथ आई थी पर यहाँ अलग-अलग हो गई। शायद बाकी 3 उनके बॉयफ्रेंड होंगे। इधर उधर और नजर दौड़ाई तो सिर्फ कपल्स नजर आ रहे थे। उस चेक बुशर्ट और लंबे बालों वाले को खोजा पर कहीं नहीं दिखा। ख़ैर! वैसे वहाँ किसी को किसी के होने से 🔔 फर्क नहीं पड़ रहा था। मेरी वाली को देखा तो वो बेवकूफों की तरह बस मूवी देख रही थी। उसे हल्की सी कोहनी मार कर मैंने उन लड़कियों की तरफ देखने को कहा। सामने स्क्रीन पर नायक नायिका को चूम रहा था। उसी तर्ज़ पर यहाँ भी उसका रूपान्तरण प्रत्यक्ष हो उठा। उसने उन्हें देखा तो शरमा कर लाल हो गई। बोली कैसे बेशर्म लोग हैं ना ? 

मन में आया कि कहूँ , ' इसमें शर्म वाली क्या बात है ? प्यार में पुच्ची की मिठास न हो तो सब फीका नहीं हो जाएगा।' पर उसकी आँखों में देखते ही बोला, 'सही कहती हो।' 

वो बोली, 'हम्म, तुम इनको मत देखो, मूवी देखो चुपचाप।'

उधर कोई डांस नम्बर आ रहा था। नायक नायिका फ्लोर पर धूम मचा रहे। धूम-2-3-4-5...... थिएटर के भीतर अलग-अलग कोनों में चल रही। यहाँ मैं अकेला ऐसा एलियन हूँ जिसके पास पॉपकॉर्न है पर उसे खा नहीं सकता। सोचा व्रेपर ही छू लो तो, और धीरे से उसके बाएं हाथ पर अपना दायाँ हाथ रख दिया। उसे लगा मैं उसके पॉपकॉर्न छीनने वाला हूँ, कस के मुक्का मार दिया। कोक की डकार मार कर बोली ये सब शादी के बाद। इधर मैं, लाइक सीरियसली ? सोचने लगा, हाथ छूने के लिए भी शादी का इंतज़ार करना पड़ेगा ? तब तो पुच्ची के लिए 4-5 जन्म लेने को बोलेगी? और उसके लिए.... ? खैर जाने दो मैं भी न, यहाँ आया ही क्यूँ ? नेक्स्ट टाइम कभी जाना पड़ा तो भगवान वाली मूवी देखने जाऊंगा। यहाँ तो सब मुझे जलाने की तैयारी कर के आए हैं। 

अचानक लाइट्स जल उठी। इंटरवल हो गया था। उसने मेरा हाथ पकड़ा। (!!??) बोली, 'चलो न मुझे भूख लगी है।' मैंने ध्यान से उसका चेहरा देखा। सोचा, हे नारी तू वाकई धन्य है। वो मुस्कुरा दी। बाहर वेंडर के पास जाकर अपने लिए 'कुछ' खरीदा और 1869/- रुपए का बिल मुझे थमा दिया। वो फिर से अपनी सीट पर जाकर चपड़-चपड़ करते हुए मूवी देखने लगी। बाकी मूवीज भी आगे बढ़ रही थी। मन उचट रहा था तो फिर अपना मोबाईल निकाला। इस बार ढक्कन जेब में रह गया, बाहर जो फोन आया वो मेरे जैसा लग रहा था। ये भी बेशर्मी से अपने काम में लगा रहता है। जब तक मूवी चल रही थी, मैं सोशल मीडिया पर देश को बचाने में जुटा रहा। सच्ची अब सब बोर लग रहा था। देर से ही सही पर आखिर फ़िल्म खत्म हुई। उसने भी 'सब' खा-पीकर खत्म कर लिया था। सब को अचानक बुद्धत्व प्राप्त हो गया। ढेर सारे काम याद आने लगे, इसलिए जल्दी-जल्दी बाहर निकलने की होड़ मच गई। बाहर की ओर भागती भीड़ में वो लंबे बालों वाला भी था, जो बाहर निकलते हुए अपने अस्त-व्यस्त कपड़े ठीक कर रहा था। 

#जयश्रीकृष्ण

✍️ अरुण

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👧👧👧👧👧 ओ माँ, प्यारी माँ, ओ माँ, मम्मा ♠️♠️♠️♠️♠️

अपने घरवालों के जुल्मों का शिकार कमोबेश सभी बच्चे बनते हैं, मैं ज्यादा वाली कैटेगरी में आता हूँ। 5 भाई-बहनों में सबसे बीच में मेरा नम्बर आता था। मतलब की 2 बड़ी बहनें और एक छोटी बहन, और एक छोटा भाई। सोच कर एकबारगी भ्रम होता है कि 5 बच्चों में आखिर किसी के हिस्से कितनी कुटाई आती होगी ? पर यकीन जानिए मेरे हिस्से में इतनी आती थी कि शायद पूरी लिखने से पहले मुझे यादों के पहाड़ चढ़ कर आँसुओं के समंदर लांघने पड़ेंगे। बहनों को कन्या वर्ग से होने की वजह से प्रिविलेज प्राप्त था तो छोटा भाई छोटे होने का जन्मजात अमोघ कवच लेकर ही पैदा हुआ था , नतीजतन हर बार बस मैं बच जाता जिसे ऐसी कोई प्रोटेक्शन हासिल नहीं थी सो मुझे कूट कर हाथों के बट निकाले जाते। ऐसा कई बार हुआ जब भाई-बहनों के कुसुर पर भी मुझे शानदार तरीके से धोया गया, पर मैं उस बारे में अब कोई बात नहीं करके केवल अपने बारे में बात करूंगा। हमारे पड़ोस में एक मौसी रहती थी वो भी काफी खूंखार थी, उनके दो बेटे थे पप्पी और राजू, वे दोनों भी कूटे जाते। मौसी की संगति से मम्मी जो पहले से ही काफी खूंखार थी, और भी प्रचंड हो उठती, और उस जुल्म की ज्वाला से दुनिया को बचाने वाले मसीहा के रूप में मुझे सामने आना ही पड़ता। कभी-कभी लगता जैसे मैंने इसी के लिए अवतार लिया होगा।
बचपन में खेल से लेकर छोटी-छोटी बातों पर घनघोर पिटाई हुआ करती। घर के नाम पर बस एक कच्चा कमरा था, जिसमें माताश्री हर दोपहर को खर्राटेदार विश्राम किया करती। पता नहीं क्यूँ पर बिना 'शनिवार राति' का विचार किए, यहाँ तक कि बिना किसी से प्यार किए, हमें रोजाना नींद नहीं आती थी। जब कभी हमारी महफ़िल सजने का दुस्साहस करने को होती हम कूट दिए जाते। चुपचाप खेलने के लिए चोर, सिपाही, राजा, मंत्री जैसी पर्ची छाप ली जाती पर न जाने किसी की एक हंसी हमें अनेक आँसू दे जाती। लग रहा है जैसे स्टोरी में करुण रस अधिक घुल रहा है। चलिए कुछ और सुनिए। एक बार पड़ोस के बनियों के घर पर एक कन्या पधारी। आई थिंक कन्या का प्रसंग आते ही आप सब की बांछे खिल गई होंगी ? और कइयों की मुस्कान तो शिल्पा शेट्टी की तरह कानों तक भी जा पहुंची होगी?  हैं जी ? बिल्कुल उसी तरह पप्पी-राजू की भी खिल गई थी, मेरी भी खिली थी पर उन सब से कम। एक्चुअली जो मुझे वास्तव में जानते हैं वो ये भी जानते हैं कि भले ही यहाँ मेरी छवि एक मुँहफट, बहिर्मुखी, किसी से कुछ भी कह देने वाले इंसान की हो, जो कन्याओं से भी कुछ भी कहने में संकोच नहीं करता पर हकीकत में कन्याओं से बात करते हुए मेरी फटती है। अब भी फटती तो तब न फटने के सवाल ही नहीं था। आखिर 10-12 साल में कोई इतना भी तोप नहीं हो जाता।
राजू मेरा हमउम्र है तो पप्पी मुझसे 2 साल बड़ा। मैं बताना भूल गया कि उनके ताया जी का एक बेटा 'छोटू' भी आया हुआ था। कन्या के पधारने की सूचना पप्पी लाया था, वही सबसे अधिक उद्विग्न भी हो रहा था। बनियों की लड़की हमारे साथ रोज खेलती थी। उस दिन वो किसी ओर खेल की भी योजना बनाने लगे। मैं बहुत डर रहा था, 'पर न जाने क्यों जानबूझकर भी चुप था'। धीरे-धीरे शाम गहराने लगी। बनियों की लड़की आज अपनी 'उस' कजिन को साथ लेकर खेलने आई थी। सब बच्चे यहाँ वहाँ गली में खेल रहे थे,जब काफी अंधेरा हो गया तो पप्पी ने छुप्पम-छुपाई का प्रस्ताव रखा जिसे सबने खुशी-खुशी मान लिया। मैंने कहा कि मैं बारी दूँगा, आप सब छुपो। घर के पास एक रेहड़ी खड़ी थी एक कन्या, राजू और छोटू उसके पीछे छुप गए। पप्पी दूसरी कन्या के साथ पास के खंडहर घर के कमरे में छुप गया। मैं गिन रहा था 1, 2, 3, 4.......20,21, आवाज़ दे रहा था ...आ जाऊं...पर जा नहीं रहा था, अब याद नहीं आ रहा, शायद ये भी किसी 'योजना' का भाग ही हो,.....50, 51, 52,.....आ जाऊं ? मैं आ जाऊँ कहते कहते उन्हें ढूंढने के लिए आगे बढ़ा ही था कि लड़कियों ने हंगामा कर दिया। जोर-जोर से रोने लगी, मैं और भी डर गया। लड़कियों ने अपने घर की ओर दौड़ लगा दी और हमनें अपने घरों की ओर, पर दिल बुरी तरह अपराधबोध से भरा था। अनिष्ट की आशंका मन को घेरे हुए थी।
जो होना था, वही हुआ थोड़ी देर में पड़ोस की आंटी और वो दो रोती हुई कन्याएँ बाहर खड़ी थी। जोर शोर से चिल्लाने की आवाज़ें सुन कर गला बैठ गया। कन्याओं ने घर पर शिकायत कर दी थी कि खेल के बहाने उन्हें गलत तरीके से छुआ गया है। जैसे ही मम्मी को पता लगा कि 'उस' खेल का एक प्रतिभागी मैं भी था तो उन्होनें 'नरमे की एक गीली लकड़ी' से वहीं मुझे पीटना शुरू कर दिया। मैं रो रहा था, कह रहा था कि मैंने कुछ नहीं किया, पर पिटाई करना बंद नहीं हुआ। मौसी ने भी राजू-पप्पी को उसी लकड़ी से बहुत मारा, शायद 'छोटू' को भी 2-4 डंडे रसीद किए थे, हालांकि बाद में पप्पी ने बताया था कि असली मुजरिम ही वही था। मम्मी मुझे बेतहाशा पीट ही रही थी कि 'उस' लड़की ने कहा कि आंटी जी ये उनमें नहीं था। इसने कुछ नहीं किया। पर तब तक नरमे की गीली लकड़ी भी टूट चुकी थी। मम्मी दनदनाती हुई अंदर चली गई, मैं जब लड़खड़ाते हुए घर में गया तो देखा पता नहीं क्यूँ वो खुद रो रही थी। मैंने फिर से कहा कि मैंने सच में कुछ नहीं किया मम्मी, जवाब में उन्होंने मुझे गले से लगा लिया और रोती रही। पीठ पर दिल्ली वाले सरदार जी की तरह कई लकीरें उभर आई थी जिनसे खून रिस रहा था, उन पर हल्दी का लेप भी उन्होंने ही लगाया। थोड़ी देर में वो आंटी जी भी हमारे घर आईं तो कहने लगी इस तरह नहीं मारना चाहिए था बच्चे को, दो-चार थप्पड़ लगा देते बस, और ये तो बेचारा उनमें से था भी नहीं। मम्मी ने रोते-रोते ही कहा कि अगर ये उनमें से होता तो आज इसे मार ही डालती मैं।
आज मैं उस घटना को याद करता हूँ तो सोचता हूँ कि क्या मैं वाकई उनमें से नहीं था ? शायद था। कई बार खुद से प्रश्न करता हूँ कि अगर बारी देने की जगह उनके साथ छुपा होता तो मैंने क्या किया होता ? उत्तर में ब्लेंक हो जाता हूँ। मैं क्या करता क्या नहीं ईश्वर जाने पर मम्मी ने कुछ गलत नहीं किया। वो सज़ा शायद बहुत जरूरी थी। हमारे अध्यापक हों,  माता-पिता हो, या बड़े-बुजुर्ग हों, मुझे नहीं लगता कि किसी को अपने बच्चे को पीट कर आनन्द आता होगा। उनके प्यार की तरह उनकी मार भी बहुत जरूरी है। वो हमें गलत होने से, गलतियाँ करने से रोक लेना चाहते हैं। उनके अनुभवों का प्रसाद अगर तमाचे खाकर भी मिले तो खाते रहिए।

#जयश्रीकृष्ण

✍️ अरुण

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🤕🤒🍺🥂🥃👩 अनुपम व्यथा ♠️♠️♠️♠️♠️

अ..जी..त भै..या, ये ह..मारे सा..थ ई क्यों होता है? क्या ह..म  इत..ने बुरे हैं? अनूप लड़खड़ाती वाणी में बोल रहा था। अचानक उसने अपने हाथ से ताड़ी के आधे भरे कुल्हड़ को जमीन पर दे मारा और जोर से चिल्लाते हुए भावुक हो कर गाने लगा, 'क्या इत..ना  बु.. रा  हूँ मैं माँ? क्या इ..तना  बु...रआआ  मे..री  माँ !!!? पररर मैं क्क क्या कारूँ माँ? जब्ब जब्ब आ.वे य्याद जिया में, ई मनवा तड़पेला, केहू  स..जनी के देश, कस..हु  लेज्जा ई सन्देश, लौट के आवेला, जब्ब जब्ब आवे याद ....'

नशे में अनूप के कदम उसकी वाणी की ही तरह लड़खड़ा रहे थे और अजीत उसे संभालने की कोशिश कर रहा था। अनूप कभी कोई नशा नहीं करता पर आज इसने जीभर कर ताड़ी पी थी, अजीत के रोकने पर भी न रुका। अब अजीत को गुस्सा आ रहा था।

पर गुस्से को नियंत्रित करते हुए कहा, 'यार तुझे हुआ क्या है ? कब से पूछ रहे हैं । कुछ बताते भी नहीं हो। और ये सब क्या है, लोग देख रहे हैं यार ।' कहकर अजीत ने चारों ओर दृष्टि घुमा डाली।

गहरा नारंगी सूर्य दूर क्षितिज में दिन भर की गर्मी से त्रस्त होकर अब समंदर के पीछे कहीं छुपने का स्थान तलाशने लगा है। समंदर पर बिछी नारंगी किरणें किसी नायिका के आंचल का सा आभास दे रही है। कुछ अर्द्धनग्न लोग, जिनमें बहुत-सी कन्याएँ भी हैं, किनारे की गीली जमीन पर सीधी टांगे फैलाए हाथों को कमर से पीछे टिकाकर बैठे सूर्यास्त के इन दृश्यों में आनन्द खोज रहे हैं। तो कुछ इन दृश्यों को अपने महंगे कैमरे में सदा के लिए अमर कर देने की कवायद में जुटे हैं। कुछ मुग्धा नायिकाएँ एक अंगोछे जैसे वस्त्र को कमर पर तिरछा लपेटे समस्त जगत को भुला कर अन्य किसी की परवाह न करते हुए स्वयं अपने अपने प्रिय से लिपट चिपट कर यहाँ वहाँ घूम रही। वहीं पास में कुछ पावभाजी के ठेले लगे हैं। प्रत्येक ठेले पर बड़े-से तवे पर भाजी को बार-बार उलट-पलट कर लिटाया जा रहा था, उसकी सींसीं की कराहों से उठती खुशबू से बंधे कुछ लोग वही छोटे स्टूलों पर बैठ कर पावभाजी खाने का लुत्फ उठा रहे हैं। कुछ भिखमंगे बालक खाने वालों की प्लेट को कातर होकर ताक रहे हैं। सब बहुत व्यस्त नजर आते हैं।

 'लगता तो नहीं कि किसी को अनूप से विशेष फर्क पड़ेगा।' अजीत ने सोचा। पर तभी अनूप वही गिर कर बेहोश हो गया।  गुस्से में अजीत ने उसे कंधे पर बेताल की तरह लादा और समंदर के नमकीन ठंडे पानी मे ले जाकर गुस्से से पटक दिया। कुछ लोग दौड़ कर आए, पर अजीत ने हाथ के इशारे से उन्हें दूर रहने को कहा। पानी में गिरते ही अनूप को हड़बड़ाकर होश आ गया। अजीत ने फिर गर्दन से पकड़ कर पानी में घुसेड़ दिया। कुछेक सेकंड के बाद बाहर निकाला तो अनूप रोते हुए कहने लगा, 'हाँ भैया, म्मार ही डा..लिए हमको। हम मरना ही चाहते हैं।' मरने की बात सुनकर अजीत को और गुस्सा आ गया। उसने अनूप झिंझोड़ कर पानी से बाहर निकाला और कस्स के एक चांटा रसीद कर दिया। अनूप का नशा हवा हो गया। वहीं किनारे पर घुटनो के बल चुपचाप बैठ गया। आँखों से टपटप आँसू गिरने लगे। किंतु अजीत अब दया के मूड में बिल्कुल नहीं था, कॉलर पकड़ के उठाया और कहा, 'अब बोलते हो कि दूसरे कान पर भी धर दें ? देख मरदे ये लच्छन ठीक नहीं तुम्हारे। गुरुकुल के विद्यार्थी होकर ये सब शोभा देता है तुमको ?'

'तो और का क्या करें भैया? कोई हमसे प्रेम क्यों न करती भैया ? हमको तो जैसे नागफनी के कांटे लगे हैं। किसी भी लईकी से पूछिए उसे कैसा लड़का चाहिए, कहने को वो यही कहेगी की बस चरित्र..वान हो, गुण...वान हो, कहेंगी रंग रूप अस्थायी सुंदरता है, मन से सुंदर हो ऐसा वर चाहिए। हममें क्या कमी है ? क्या गुरुदेव ने हमारे रूप में किसी चरित्रहीन, गुणहीन और पापी का चयन किया है? मन की सुंदरता की बात करती हैं, पर कभी किसी ने हमारे भीतर झांक कर भी देखा ? नारी मन को तो कोमलता का पर्याय कहते हैं न भैया, पर ये बहुत कठोर होती हैं। भगवान कृष्ण कुब्जा में  सौंदर्य का दर्शन करते है, जानते हैं क्यों? क्योंकि वे पुरुष हैं। कभी देखा किसी रूपवती को किसी कुरूप से प्रेम करते देखा ? सुना भी न होगा। वो संज्ञा भी खुद को न जाने क्या समझती है। हमको अनूप भैया बोल दिहिस। बताइए। अरुण भैया को तो कभी भैया न बोली। क्या वो नहीं जानती कि हम उससे प्रेम.....' अनूप अपनी रौ में बस कहता जा रहा था कि अजीत ने उसके मुँह पर हाथ रख दिया।

'चुप बे मरदे, कुछ भी बोल रहे हो ? किसने कहा कि तुम चरित्रवान या गुणवान नहीं ? पर उसके लिए जिस कन्या को तुम चाहो वो अपना हृदय तुम्हारे चरणों मे रख कर तुम्हें प्रेमार्पण कर ही दे ये किस शास्त्र में लिखा है ? प्रेम तो नितांत व्यक्तिगत अनुभूति है इस पर किस का वश ? कल को बहुत सी कन्याएँ तुमसे ऐसी ही अपेक्षा करे तो क्या कहोगे उन सब से ? क्या सबकी अपेक्षा पूर्ण करने का पाप कर सकोगे ?  स्त्री सौंदर्य के प्रति आकर्षण पुरुष मन का नैसर्गिक गुण है। स्त्रियों को ढ़ेरों प्रेम प्रस्ताव झेलने पड़ते हैं। यदि तुम चाहते हो कि तुम्हारी इच्छा का सम्मान हो तो दूसरों की इच्छाओं का भी सम्मान करो न। तुम कृष्ण का उदाहरण दे रहे थे, वे तो युगपुरुष थे, साक्षात भगवान श्रीहरि विष्णु के अवतार। तुम कितने ऐसे पुरुषों को जानते हो जो स्वेच्छा से कुरूप कन्या का वरण करने को तैयार होंगे? अगर कोई ध्यान में न आ रहा तो किसी कन्या से ऐसी अपेक्षा क्यों करते हो ? तुम्हे पौराणिक बातें तो याद रहती हैं पर वर्तमान में ही नियति भाभीश्री का उदाहरण क्यों भूल जाते हो ?  क्या सौंदर्य की दृष्टि से उजबक उनकी किसी भी रूप में समता कर सकेंगे ? किंतु क्या तब भी वे उनसे असीम प्रेम नहीं करती ? और संज्ञा हो या कोई और, किसी से भी तुम अथाह प्रेम कर तो सकते हो किंतु बलात् किसी से प्रेम का कण भी पा नहीं सकते, समझे ?' अजीत ने थोड़ा रोष से कहा।

अनूप बस सुबक रहा था, नजरें नीची किए ही बोला 'हमें क्षमा कर दीजिए भैया, अपराधी जैसा अनुभव हो रहा है।'

'हूँ, पर तुम केवल एक ही अवस्था में क्षमादान पा सकते हो, बस चार प्लेट पावभाजी खिला दो। हाहाहा सच्ची बड़ी भूख लग रही यार।' अजीत ने चेहरे पर शरारती मुस्कान लाते हुए कहा।

अनूप अपनी आँखें पोंछ रहा था, अजीत की बात सुनकर उसके चेहरे पर भी मुस्कान तैर गई। अजीत ने अनूप को कंधे से पकड़ा और कहा, 'चल न यार। देख वो पावभाजी कब से पुकार रही। आओ खा लो हमको, आओ खा लो हमको। मुझसे उसकी करुण पुकार अब और नहीं सुनी जाती। हाहाहा।'

लगभग सभी स्टूल बुक थे, एक ओर कुछ स्टूल खाली दिखे। अजीत और अनूप वहाँ बैठ कर पावभाजी खाने लगे। उनके खाते-खाते अच्छी खासी भीड़ हो गई। कुछ लोग खड़े भी थे। दो यज्ञोपवीत और चंदन तिलकधारी विद्यार्थियों को इस तरह पावभाजी खाते देख कर कुछ कन्याएँ वहीं कुछ दूर खड़ी पावभाजी खाते हुए उन दोनों की ओर संकेत करते हुए आपस में ठिठोली कर रही थी। अजीत गुस्से में खड़ा हुआ उनके पास जाकर तुनक कर बोला, 'कहिए क्या समस्या है?' अनूप दौड़ कर उसके पीछे चला आया। बोला, 'छोड़िए न भैया, चलिए आप...'

'ल सानु की समस्या होनी आ महाराज, तुस्सी थोड़ा हिसाब नाळ खायो, तिखा बोत है एस्च कित्थे धोती ना खराब कर लवो' एक कन्या अजीत की आवाज सुनकर पलटी और हंसते हंसते बोली।

'देखिए हमको पंजाबी बोलना नहीं आता पर समझ मे सब आता है। हम तो बिना डकार लिए लकड़ी का बुरादा भी पचा जाएं, आप अपने काम से मतलब रखिए। ' अजीत ने क्रोधित स्वर में कहा।

'ल महाराज, तुस्सी तां बुरा मन्नगे। एदां थोड़ी ना हुँदा आ। खैर एक गल्ल पूछणी सी। पर की पूछिए तुस्सी तां बोत गुस्से च हों ' कन्या ने हंसते-हंसते कहा फिर अनूप की ओर मुखातिब होकर बोली, 'चलो तुस्सी ही दस दओ, केड़े सीरियल चों भज्ज के आए हों महाराज ?' फिर जोर से अपनी सखी के हाथों पर ताली देकर हंसने लगी।

अनूप ने देखा तो लगा साक्षात अप्सरा जमीन पर उतर आई है। पाँव में जड़ाऊ मोजड़ी, हल्के हरे रंग की सलवार और गहरे पीले रंग के कुर्ते में, जिसमें बड़ी-बड़ी आसमानी लहरें उसके यौवन को लपेटे हुए थी, वो कमाल लग रही थी। तिस पर उसका बार बार महाराज कहना अनूप को अवाक कर रहा था। अजीत अभी भी क्रोधित था। क्योंकि उसे समझ आ रहा था कि ये उनका मजाक बना रही। वो उन्हें डांटने के लिए कुछ कहने ही वाला था कि अनूप बोला, 'जाए देइ भैया ! अब अपन होखे वाली पतोह पर कइसन खीस ? अजीत सुनते ही क्रोध भुला कर हंसने लगा। पंजाबी कन्या खिसिया गई। अनूप पुनः बोला, 'तोहरा के केहू बतवलस ना का? तू त बड़ी कमाल के बाड़ू 😉'

कन्या बोली , 'ये बाड़ू बाड़ू क्या होता है? हिंदी नहीं आती क्या महाराज ?'

'अच्छा आप अभी जो पंजाबी अत्याचार कर रही थी, उसका क्या महारानी ? वैसे हम आपकी तरह किसी का मजाक न बना रहे थे। समझे।' कह कर अनूप और अजीत वापस पलटे पर उनके स्टूलों पर अब दो पहलवाननुमा आदमियों का कब्ज़ा हो चुका था।

#जयश्रीकृष्ण

#उजबक_कथा
#गुरुकुल_के_किस्से
#पार्ट9

✍️ अरुण
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🙄🙄🙄🙄🙄 ठरक शिरोमणि ♠️♠️♠️♠️♠️

प्रातःकालीन ब्रह्ममुहूर्त ; पक्षियों की चहचहाहट के बीच कुछ बंदर पेड़ों के ऊपर एक डाल से दूसरी डाल पर कूद-फांद कर रहे हैं। झींगुरों की आवाज अब उषा के आगमन की सूचना पाकर शनै: शनै: कम होने लगी है। एक मादा बंदर अपने शिशु को सीने से चिपटाए पूँछ से डाल पर उल्टी लटक कर गुरुकुल के जलाशय से सीधे होंठ लगाए जल ग्रहण कर रही है। कुछ मेढ़क जलाशय के किनारे अपनी ही रौ में उदासीनता के साथ खुद उछलते और शाख से टूट कर गिरे पत्तों को उछालते अज्ञात की ओर बढ़ते नजर आते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि निशा भी अब अँगड़ाई लेकर जागने ही वाली है। यज्ञशाला में विराजित गुरुदेव के मुखारविंद से निःसृत श्लोकों की स्वरलहरियाँ शीतल मंद सुगंधित पवन के साथ यदा-कदा कानों में पड़ कर रोमांचित कर देती हैं। गुरुकुल के कुछ शिष्य अपने तरह के व्यायाम और साधना के बाद जलाशय के चारों ओर नीम की दातुन करते हुए चर्चा में रत हैं।

उजबक अभी तक इतने शीतल वातावरण में भी श्रम स्वेद से नहाए दोनों हाथों में पेड़ के तने को काट कर बनाए गए बड़े से मुग्दर थामे को तेजी से एक विशेष लय में घुमा रहे हैं। उनकी गति और चेहरे के भाव देखकर लगता है मानों वे आज ही अपनी काया की अतिरिक्त वसा को जला कर उससे मुक्ति पा लेंगे। सहसा कौशल ने कन्या की आवाज में जोर से पुकारा , 'स्वामी ....स्वामी....कहाँ हो प्रिय?' उजबक जैसे किसी तंद्रा से जगे हों। उनके हाथ से एक मुग्दर फिसल कर सीधे जलाशय में जा गिरा। अनूप वहीं खोया खोया सा खामोशी से पानी को निहार रहा था, जैसे चहुँओर व्याप्त इस शांति को आँखों ही से पी जाना चाहता हो। यकायक जलाशय में मुग्दर गिरने पर पानी उछलने और कुछ छींटे अपने ऊपर गिरने से अनूप चौंक गया। अनूप कल से ही गुमसुम सा है। इन्द्रविहार चित्रपट में भी वो चुपचाप ही था। और तो और वो संज्ञा से एक सीट छोड़ कर अगली सीट पर बैठा था। अब यहाँ भी ध्यानस्थ मुद्रा में बैठा था।

उजबक ने कौशल की ओर देखा तो वे आँखों मे शरारत दबाए जोर-जोर से हंस रहे थे, कौशल कई तरह की आवाजें निकालने में सिद्धहस्त हैं। आज परिहास करते हुए उजबक को छेड़ने के लिए वो ये स्वांग कर रहे थे। उजबक को देख कर पुनः उसी तरह बोले, 'स्वामी, मैं ये क्या सुन रही हूँ। आप पर केवल मेरा अधिकार है। कहिए न , कहिए कि ये सब जो कह रहे हैं वो असत्य है, मिथ्या है। आप की नियति मैं हूँ। मैं ही हूँ न स्वामी?' कहते कहते कौशल ने उजबक को पीछे से पकड़ लिया और अपने हाथ उजबक के पेट पर गोल-गोल घुमाने लगे।

'कैसी बातें करते हैं बाबा? (कौशल को सब बाबा ही कहते हैं) आपको परिहास करने को मैं ही मिलता हूँ? आप प्रेम नहीं समझते। कभी किसी से प्रेम किया होता तो कदाचित भान भी होता।' उजबक ने कहा।

'हे ईश्वर ! ये मैं क्या सुन रही हूँ? हे प्राणनाथ आप मुझे उपेक्षित कीजिए, चाहे जो कष्ट दीजिए, मैं आपसे उसका अभीष्ट भी न पूछूँगी। किंतु, विधाता के लिए कृपया ये न कहें कि मैं प्रेम ही न जानती। मैं आपसे असीम प्रेम करती हूँ स्वामी।' कौशल अभी भी हंसते हुए कहे जा रहे थे।

'मैं आपसे अच्छे से परिचित हूँ असीमानन्द जी। आप परिहास में व्यस्त रहिए किंतु जानते हैं ? प्रेम समस्त चराचर जगत को देखने का दृष्टिकोण ही परिवर्तित कर देता है। देखिए न हम पूर्व में भी यहाँ इसी प्रकार अभ्यास किया करते थे किंतु कोई लक्ष्य न था। पूर्व में हमें कभी अपनी काया को लेकर कभी कोई संताप न हुआ किंतु अब देवी नियति के लिए स्वयं को उनके अनुरूप ढालने का मन होता है।' उजबक बोले।

'तो आपको क्या लगता है मेरा प्रेम इस रूप में आपसे कमतर है ? स्वामी, प्रजापिता ब्रह्मा रचित इस सृष्टि का कण-कण साक्षी है कि मुझसे अधिक आपसे न कभी किसी ने प्रेम किया है और न करेगा। न भूतो न भविष्यति। यदि मैं आपकी शपथ लेकर कहूँ तो अभी माँ वसुंधरा मुझे भी माता वैदेही के समान अपने अंक में भर लेंगी। कहूँ तो ये वृक्ष , उनके निर्जीव होकर गिरे ये सूखे पत्ते, ये मयूर, वो दादुर सब समवेत स्वर में अभी पुकार-पुकार कर कहेंगे कि आप पर केवल मेरा ही अधिकार है स्वामी। कहिए कि आप मेरे हैं, मेरे ही हो न प्रिय ? कह कर कौशल ने उजबक के पेट को और जोर से पकड़ लिया। सभी शिष्य इन दोनों को देख कर हंस हंस कर दुहरे हुए जा रहे थे।

'आप आज ये कैसा प्रलाप कर रहे हैं? हुआ क्या है? मद्यपान तो न किया कहीं ? क्या खाया सत्य कहिए?' उजबक ने चकित स्वर में कहा।

'प्रलाप नहीं प्रेम कहिए प्रिय प्रेम। निर्मल, निश्चल, अथाह प्रेम और ये समस्त प्रेम आपके लिए है। और जो प्रेम में हो उसे किसी अन्य मद की आवश्यकता ही कहाँ रहती है? कुछ न खाया किंतु आज्ञा दें तो खा लूँ आपको ही? हाउ..।' कौशल ने थोड़ा हल्के से उजबक के कंधे पर काट लिया।

'भक्क, बाबा आपको किसी ने बताया है या नहीं पर हम बता रहे हैं। मित्र आप बहुत अश्लील आदमी हैं।' उजबक थोड़ा क्रोध से बोले।

'अश्लीलता क्या होती है स्वामी? मैं आज रात्रिकालीन चर्चा आपके साथ इसी विषय पर विशद चर्चा करना चाहूंगी? आप मुझे समझाएंगे तो मैं सब समझ जाऊंगी।' कह कर कौशल ने जीभ अपने होंठो पर फिरा दी।

'भक्क...भक्क....भक्क' बोलते हुए उजबक ने कौशल को दूर छिटक दिया।

कौशल पुनः कुछ कहने ही वाले थे कि गौरव ने गुरुमाता का संदेश की उद्घोषणा की। प्रातःकलेवा का समय हो रहा था। सभी छात्र हंसते मुस्कुराते पाक कुटीर की ओर प्रस्थान करने लगे। अनूप अभी भी जलाशय के तट पर ही बैठा था। उजबक ने उसे आवाज दी तो वो भी धीमे कदमों से हमारे पीछे पीछे चलने लगा।

***

पाक-कुटीर में मिट्टी के चूल्हे पर बन रही खिचड़ी की भीनी सुगंध नथुनों में जाते ही भूख दूनी हो गई। हम सब पंक्तिबद्ध बैठे थे । गौरव गुरुमाता को विशेष प्रिय है, अतः वे उसे अपने पास बैठा कर ही भोजन कराती हैं। भूमि पर साफ आसन के के समक्ष स्वच्छ केले के पत्तों पर दही-खिचड़ी का भोजन परोसे जाते ही भोजन मंत्र की सम्मिलित टेर गुंजायमान होने लगी।

 'ॐ सह नाववतु।
सह नौ भुनक्तु।
सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु।
मा विद्‌विषावहै॥
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

भोजन के समय संवाद करना गुरुकुल में वर्जित है, किंतु ये नियम हम केवल गुरुदेव के सामने मानते हैं। गुरुमाता तो मैया हैं अतः उनसे रूठना, मनाना और पिटना हमारी दिनचर्या का ही भाग हो चला है। मैंने सबसे पहले भोजन कर लिया तो शेष छात्रों को भोजन करवाने में मैया की सहायता करने लगा। उजबक को मैया चार बार खिचड़ी परोस चुकी थी। अध्ययन के समान भोजन में भी उनकी गति देखते ही बनती है। जब उन्होंने पांचवी बार मांग की तो मैं परोसने का पात्र लेकर उनके समीप आया। कहा, 'कितना परोसना है कृपया बता दीजिएगा।' और उन्हें खिचड़ी परोसने लगा। कौशल धीमे स्वर में कन्या की आवाज में बोले, 'पूछना क्या है, देखते नहीं मेरे स्वामी को? कांटा हुए जाते हैं। तुम बस परोस दो मैं अपने स्वामी को अपने हाथों से कौर खिलाऊंगी।'

उनके कहने के साथ ही सभी शिष्य मुँह नीचे किए भोजन करते करते ही हंसने लगे। मैया बोली, 'कम से कम भोजन के समय तो शांत रहा करो, जब देखो तब ठिठोली। किसी दिन मेरा धैर्य छूटा तो तुम्हारे गुरुदेव से सब कह दूंगी।' सब ने मुँह पकड़ कर अपनी हंसी दबा दी। उजबक ने कौशल पर क्रोधित नेत्रों से दृष्टिपात किया। फिर उन्हें ध्यान आया कि क्रोध करने के लिए बाद में भी समय मिल सकता है, अतः अपनी सम्पूर्ण एकाग्रता भोजन को समर्पित कर दी तथा पूर्ण तन्मयता से भोजन देव का सत्कार करने लगे। भोजन कर चुकने के बाद जब उठने में परेशानी हुई तो कौशल ने उन्हें सहारा दिया। उठाते उठाते ही कान में धीमे से बोले, 'आइए स्वामी, आइए।' सभी शिष्य मुँह पकड़े दौड़ कर बाहर आ गए।

***

छात्रावास में भूतल पर सबकी शैयाएं क्रम से बिछी थी। सरदार, उजबक, कौशल, अजीत, मैं, अनूप और गौरव। गौरव शैया पर बैठे-बैठे अपने तरकश के तीरों को और पैना कर रहा था। अजीत पंजाबी भाषा की कोई पुस्तक पढ़ रहा था। अनूप मुझसे संवाद कर रहा था। तभी उजबक और उनके पीछे कौशल, दोनों बाहर से आए। आते ही उजबक ने घोषणा की, 'देखिए मित्रों, मैं आज से कौशल के पास नहीं सोऊंगा और मैं तो कहता हूं आप भी मत सोइए, ये व्यक्ति खतरनाक है।'

गुरुदेव भोजनोपरांत अपने लेखन कार्य को गति देने लगे थे, छात्रावास के ठहाकों की आवाजों की गूंज चतुर्दिक व्याप्त आम्र कुंजों से टकरा दूर गगन तक जा रही थी। गुरुदेव ने भी जब ये गूंज सुनी तो वे बस थोड़ा मुस्कुराए और पुनः अपने कर्म में रत हो गए।

#जयश्रीकृष्ण

#उजबक_कथा
#गुरुकुल_के_किस्से
#पार्ट8

✍️ अरुण

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🌌🌌🌌🌌🌌 जलते दिए ♠️♠️♠️♠️♠️

समय पूर्वाह्न 11 बजे, उजबक लोटे में अंगारे डाल कर अपनी धोती की सिलवटें दूर कर रहे हैं। उनका सफेद कुर्ता भी पास ही रखा है। धोती एक ही है, इसलिए स्वयं कच्छे में ही खड़े हैं। बनियान फटी हुई है जिसमें से उनकी तोंद पर लहराते यज्ञोपवीत के सफेद तंतु मुस्कुरा रहे हैं। उजबक स्वयं भी सदा की तरह बहुत प्रसन्नचित्त नजर आते हैं। कोई भी उन्हें देख कर जान सकता है कि इस अवस्था में खड़े रहने से उन्हें 🔔 कोई फर्क नहीं पड़ रहा। लोटा घुमाते घुमाते कुछ गुनगुनाते हुए कभी कभी अपनी कमर को हल्का सा झटका भी देते हैं। 'छलकत हमरी जवनिया ए राजा' ओ हो हो। ला ला ला।

अचानक अनूप बाहर से दौड़ते हुए आया बोला, 'गुरु...गुरु...'

उजबक एकदम पीछे की ओर पलटे तो उनके साथ उनका लोटा भी अंगारों समेत वहीं पलट गया। धोती की सिलवट तो दूर हुई ही न थी पर जहाँ जहाँ जलते हुए अंगारे गिरे वहाँ खूबसूरत से छेद बन गए।

'क्या यार अनूप, आपके चक्कर में हमारी धोती जल गई' उजबक थोड़ा मायूसी से बोले।

'और आप? आप तो आज फंसाए दिए थे। ई रखिए अपना क्रेडिट कार्ड। कुछो ना धरा इसमें। साला हम भी गधे हैं, ये लेके एटीएम से पैसे निकलवाने गए थे? इसमें कुछ होता तो प्रदीपवा इसे फेंक काहे देता? ब्लॉक्ड है साला कार्ड ही। हम चार बार ट्राई भी किए रहे, पर हर बार कार्ड ब्लॉक्ड का मैसेज मिला पैसों की जगह। उ साला गार्ड हमको तोड़ देता, बोला कि तुम चोर हो इतनी देर से मशीन में क्या खुचर-पुचर कर रहे हो। ई देखिए हमारे कुर्ते का भी कॉलर गया। फट गया उससे झपट में। वैसे हम उसे पेट में मुक्का मार के हिसाब बराबर किए हैं, पर आपने ठीक न किया गुरु। ब्लॉक्ड कार्ड देकर काहे भेजे थे?' अनूप अपनी शिकायतों के साथ एक सांस में बोल गया।

उजबक थोड़ा और मायूस हो गए, बोले, 'यार हमको कहाँ पता था कि कार्ड ब्लॉक है। चलचित्रों में नायक से झूठ ही कहलवाया गया कि अगर आप किसी से हृदय से प्रेम करें तो समस्त सृष्टि आपकी सहायता करने को तत्पर हो जाती है। हमारे साथ तो इससे विपरीत हो रहा है मित्र। अब हम नियति से कैसे मिलने जा सकेंगे ? पैसों तो न हों तब भी चलेगा किंतु बिना धोती के.... हे प्रभु अब आप ही सुझाइए हम क्या करें ? अरुण भाई भी लकड़ी काटने गए हैं न जाने कब लौटेंगे।' कहकर उजबक वहीं धप्प से बैठ गए।

'अरे फिक्र काहे करते हैं। हम हैं न। आपकी धोती में बस छेद हुए हैं वो भी एक साइड में ही हैं, पूरी जली थोड़े न है। आप खड़े होइए हम आपको पहनाते हैं।' कहकर अनूप ने धोती उठा ली और उजबक को पहनाने लगा। धोती को तेलगु स्टाइल के नाम पर गोल-गोल कमर के चारों ओर लपेट कर अंतिम सिरा भी कमर में खोंस दिया। यद्यपि उजबक को इस स्टाइल की धोती पहनना बिल्कुल अच्छा न लगता था पर मजबूरी क्या न करा दे। परिस्थिति की मांग के अनुसार उन्होंने इसे ही विधि समझ कर स्वीकार लिया। वैसे अनूप ने धोती को इस करीने से लपेटा था कि सारे छेद नाभि के ठीक नीचे दबाए सिलवटों में ही गुम होकर रह गए। सहज देखने पर ज्ञात न होता था कि ये धोती 'हवादार' है।

कुछ पैसे भी अनूप के पास थे, वो सब भी उजबक को सुपुर्द कर दिए। पर दोस्ती यारी अपनी जगह है अनूप भी गुरुकुल वालों की सबसे प्रिय कंडीशन अप्लाई करना नहीं भूला। बोला ,' गुरु हमहु तोहरा साथे चलब।'

उजबक के लिए ये नई दुविधा थी, मासूमियत से बोले 'आप वहाँ क्या करेंगे मित्र? देवी नियति भी आपसे अपरिचित हैं। आपकी उपस्थिति हमारे उनके साथ चलचित्र का सहज आनन्द लेने में बाधक बनेगी न?'

'अच्छा ? और अरुण भैया जाते हैं तब ? उनके साथ तो सब सहज रहते हैं फिर हमारे साथ क्यों नहीं? भाभी परिचित साथ ले जाने से होंगी न कि न ले जाने से। देखिए हम कोई बहाना न सुनेंगे, अगर आप हमको न ले जाएंगे तो हम गुरुजी को सब बताने जा रहे हैं।' कहते कहते अनूप इमोशनल होने लगा।

उजबक पर अनूप के इमोशन्स का तो कोई प्रभाव भले ही न पड़ा था पर गुरुजी को सब बताने की धमकी ने तुरंत अपना प्रभाव दिखाया और वे उसे साथ ले चलने के लिए मन मार कर राजी हो गए।

***

इन्द्रविहार चित्रपट के बाहर नियति और संज्ञा दोनों उजबक के आने की प्रतीक्षा कर रही थी। नियति पारंपरिक शुभ्र श्वेत वस्त्र धारण किए थे वहीं संज्ञा ने आज गुरुकुल के परिवेश के विपरीत ब्लैक जीन्स और मेहरून चेक वाली शर्ट पहनी थी। गुरुकुल में ये सब देखने का अवसर नहीं मिल पाता किंतु गुरूमाता की कुटिया में भोजन की तैयारियों में उनका हाथ बंटाते हुए रेडियो पर कई बार इस चलचित्र के गीत सुनकर इसे देखने की इच्छा होती थी इसीलिए उजबक से उसने 'प्रेम रतन धन पायो' दिखा लाने का आग्रह किया था। वही देखने आज दोनों सखियाँ एक बार फिर गुरूकुल की देहरी लांघ आई थी। उजबक को आने में देर हो रही थी, भीड़ बढ़ती देख नियति के कहने पर संज्ञा 4 टिकेट्स लेने चली गई। शायद उन्हें विश्वास था कि आज भी मैं उजबक के साथ जरूर आऊंगा।

उजबक आज भी हमेशा की तरह अपने तेल चुपड़े बालों और ढेर काजल से कजरारी की आँखों में खूबसूरत लग रहे थे। उन्हें आते देखा तो नियति का प्रतीक्षा से मुरझाया चेहरा खिल उठा। उजबक ने पास आते ही प्रणाम कहा।

 'भक्क, भौजी को प्रणाम तो हम कहेंगे, आप काहे कह रहे हैं? आपके कहने के लिए बहुत कुछ होता है सभी भाषाओं में, कुछ याद न आ रहा हो तो भोजपुरी में कहिए 'हम तोहरा से प्रेम करिना', 'हमके ना मिलबु त जिनगी जहर हो जाई', 'करेजा मुरुक जाइ ए सुग्गा', 'ए खरखुन करेजा के दवाई तुहि बाड़ू', 'आपना अखियन के लोर से हमरा घाव पर मलहम लगा द'.... आप को तो कुछो नहीं आता भैया। और पाँय लागू भौजी, प्रणाम कर रहे हैं दिल से। भैया तो हमको साथे न ला रहे थे हम जबरी आए हैं।' कहकर अनूप ने नियति के चरण स्पर्श किए और खड़े होकर दांत चियार दिए।

नियति के लिए ये भोजपुरी हमला बिल्कुल नई चीज थी उसे कुछ समझ न आया। सिवाय इसके कि वो उसे भौजी यानि भाभी कह रहा है। उसने प्रश्नवाचक मुद्रा में उजबक की ओर देखा तो उजबक ने कहा कि 'ये भी हमारे सहपाठी, हमारे मित्र, हमारे अनुज और हमारे अतिप्रिय हैं। आज अरुण भाई तो गुरु आज्ञा से ईंधन की व्यवस्था करने जंगल गए थे इसलिए हम अनूप को साथ ले आए। आप आज अकेली ही आई हैं ?'

अकेली शब्द सुनते ही नियति को संज्ञा का ख्याल आया जो इस वक़्त  टिकट खिड़की के बाहर कुछ लफंगों से उलझ रही थी। जो लाइन में खड़ी संज्ञा से छेड़छाड़ करने की कोशिश कर रहे थे। उजबक और नियति की बातों और हावभाव से अनूप तुरन्त सब समझ गया। हीरो की एंट्री का टाइम हो गया था। उजबक से बोला ' भैया हम देखते हैं '। पर अनूप के कदम उधर बढाने की ही देर थी कि एक लड़का लगभग उड़ता हुआ धप्प से औंधे मुँह उसके कदमों में आ गिरा। अनूप ने आश्चर्य से प्रश्नवाचक मुद्रा से नजरें उठाई तो देखा संज्ञा रजनीकांत की तरह सब लफंगों को हवा में उड़ाते हुए टिकेट्स लेकर प्रसन्न मुद्रा में उनकी ओर ही आ रही थी। 'बाप रे' सहसा अनूप के मुँह से निकला।

उजबक के साथ मेरी यानि अरुण की जगह अनूप को आया देख संज्ञा को कुछ खास खुशी न हुई। लेकिन अनूप ने उसका हाथ पकड़ कर जबरदस्ती मिला लिया, बोला 'तू त बहुत सुग्घर बाड़ू हो,का मारेलु कसम से।'
 
'मतलब' संज्ञा ने कहा।

'मतलब आप बहुत खूबसूरत हैं और क्या गज्जब फाइट करते हो।' अनूप ने उसका हाथ पकड़े हुए ही कहा।

संज्ञा को ये व्यवहार थोड़ा असहज और अज़ीब करने वाला लगा। पर उजबक के मित्र के लिहाज से वो चुप रही। हाथ छुड़ाकर बोली, 'मुझे हर लफंगे से निपटना अच्छे से आता है।' फिर सबसे एक साथ कहा चलें, फ़िल्म का टाइम कब का हो चुका है।

अंदर फ़िल्म वाकई शुरू हो चुकी थी। पर बहुत भीड़ नहीं थी। मल्टीप्लेक्स सिनेमा में भीड़ किस थिएटर में घुसेगी जल्दी से पता नहीं लगता। उजबक को तेलगु धोती में चलना थोड़ा कठिन लग रहा था इसलिए नियति के साथ कॉर्नर सीट्स पर बैठे गए। जहाँ नियति फ़िल्म और उजबक बस नियति को देख रहे थे। उनसे कुछ सीट्स की दूरी पर संज्ञा और उससे एक सीट छोड़कर अनूप बैठे थे। आशा और अपेक्षा के विपरीत अनूप के चेहरे पर भयानक खामोशी पसरी हुई थी। थोड़ी देर बाद उजबक ने नियति से कहा, 'आप भूने हुए मक्कई के दाने खाएंगी ?'
'जी?' नियति ने उजबक की ओर आश्चर्य से देखा।
'मेरा मतलब पॉपकॉर्न' कहकर कुछ देर तक खुद उजबक और उनका पेट हंसते रहे। नियति भी मुस्कुरा दी।
उजबक उठ कर चलने को हुए अंधेरे में तेलगु धोती सम्भाल न सके लड़खड़ा गए, उन्हें गिरते देख नियति ने पकड़ने की कोशिश तो की पर वो खुद भी उनके साथ लिपटी लुढ़कती हुई नीचे कालीन पर आ गिरी।
नियति उजबक की बाहों में आलिंगनबद्ध थी, उधर सिनेमा में 'सुनते हैं जब प्यार हो तो दिए जल उठते हैं।' गीत की थाप डॉल्बी डिजिटल सराउंडसाउंड सिनेमा में चारों और गूंज रही थी।
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✍️ अरुण

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👯👯👯👯👯 कन्याकुमारी नमो नमः ♠️♠️♠️♠️♠️

कन्या गुरुकुल के भीतर का दृश्य, चारों ओर बहुत हरियाली है और अथाह शांति भी। इस नीरवता को थोड़ी थोड़ी देर में उठ रही कोयलों की कुहुक भंग अवश्य करती है, किंतु अगले ही क्षण पुनः वैसी ही निस्तब्धता छा जाती है। यज्ञशाला से उठते धूम्र की सुगंध मोहक प्रभाव छोड़ रही है। कदाचित वेदाध्ययन का यह समय नहीं है इसलिए वैदिक श्लोक की सम्मिलित टेर किसी दिशा से सुनाई नहीं पड़ती। एक कक्ष में कुछ वरिष्ठ साध्वियाँ कुछ पांडुलिपियों के साथ अध्ययन, मनन तथा चिंतन में व्यस्त नजर आती हैं, वहीं एक ओर कुछ किशोर बालिकाएँ तलवार और ढाल थामे एक दूसरे की शक्ति की थाह लेते हुए छका रही हैं, तो कुछ निहत्थी ही कलारिपट्टू के दांवपेंचों के परीक्षण रही हैं। संज्ञा वहीं पास ही खड़ी उन्हें अभ्यास करवा रही है। कुछ बहुत छोटी छोटी बच्चियाँ खेल खेल में बीच में आकर अभ्यास में व्यवधान डाल रही। संज्ञा के डांटने पर उन्होंने खिलखिलाकर किलकारियां मारते हुए दौड़ लगा दी। संज्ञा उनके पीछे भागी, लड़कियाँ दौड़ कर आगे निकल गई पर संज्ञा कन्या छात्रावास के दरवाजे के पास ठिठक कर रुक गई। नियति जमीन पर बिछी तृणशैया पर दरवाजे की तरफ पीठ करके लेटी है। पास ही कोई पुस्तक रखी है जिसमें 'पीतवर्णी गुलाब' रखा है। चुपके चुपके उसी गुलाब को निहारा जा रहा है।

'ओहो तो आप यहाँ व्यस्त हैं राजकुमारी जी, अभ्यास में क्यों नहीं आईं? हम्म" संज्ञा ने नियति पर लगभग गिरते हुए कहा।

'वो वो वो मेरा मन कुछ स्वस्थ नहीं था, और तुम्हें तो विदित ही है कि ये लड़ना भिड़ना मेरी रुचि का विषय नहीं है। मुझे मेरी पुस्तकों में ही आनंद आता है।' नियति ने धीमे स्वर में कहा।

'जरा देखूँ तो' कहकर संज्ञा ने किताब छीन ली, 'ऐसी पुस्तकें पढ़ कर तो मन अस्वस्थ ही होगा न, कहाँ से लाई? पुस्तकालय की तो लगती ये। व्हेन लव हैपन्स? तुम अंग्रेजी कब से पढ़ने लगी ?' किताब उलटते पलटते संज्ञा ने कहा।

'इस शीर्षक ही में तुम्हारे प्रश्न का उत्तर भी छुपा है। 'व्हेन लव हैपन्स'।' नियति के नेत्र अभी भी भूमि की ओर थे।

'अच्छा तो ये बात है। तब ये किताब जरूर हमारे होने वाले जीजाश्री उजबक देव महाराज जी ने ही दी होगी, है न?' संज्ञा के चेहरे पर शरारती मुस्कान तैर रही थी।

'हाँ उन्होंने ही भिजवाई है, पर पहुंचाने के लिए हनुमान बन कर 'तुम्हारा अरुण' आया था।' नियति ने संज्ञा को छेड़ा।

'मेरा अरुण? माय फुट। मैंने उसके साथ पकौड़े खा लिए तो वो मेरा हो गया? तू भी न, कुछ भी बोलती है।' संज्ञा ने लगभग खीझते हुए कहा।

'अच्छा ठीक है, तो ये परफ्यूम मैं ही रख लेती हूँ। तुम उसे अपना नहीं मानती न सही पर मैं तो उसकी भाभीसा हूँ ही। आहा हा हा कितने प्यार से बोला था कि भाभीसा ये परफ्यूम और ये पत्र 'मेरी संज्ञा' को दे दीजिएगा। पर सकल पदार्थ है जग माहीं, कर्महीन नर पावत नाहीं। अब इस पत्र का क्या करूँ? चलो वापस ही कर दूंगी। ठीक है। लेकिन एक बार पढ़ कर तो देखूँ ..' कहकर नियति पत्र पढ़ने को हुई।

पर संज्ञा उसके हाथ से पत्र छीन कर बाहर उद्यान की ओर भाग गई। वाटिका में पुष्पों की बीच छुपी संज्ञा स्वयं भी एक गुलाब  ही प्रतीत होती थी। दौड़ने से तेज़ हुई साँसों के साथ उठते गिरते यौवनाभूषणों से किसी समुद्र का सा आभास होता था। जो स्वयं अपने ही ज्वार-भाटे में उलझा जा रहा था। ये बुरी सी लिखावट वही थी जिससे नियति को उजबक के नाम से पत्र आते थे। पर आज वही बुरी लिखावट बुरी मालूम न होती थी। हर शब्द पढ़ने के साथ संज्ञा के चेहरे की गुलाबी रंगत में मीठी सी मुस्कान घुलती चली गई।

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✍️ अरुण

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