प्रातःकालीन ब्रह्ममुहूर्त ; पक्षियों की चहचहाहट के बीच कुछ बंदर पेड़ों के ऊपर एक डाल से दूसरी डाल पर कूद-फांद कर रहे हैं। झींगुरों की आवाज अब उषा के आगमन की सूचना पाकर शनै: शनै: कम होने लगी है। एक मादा बंदर अपने शिशु को सीने से चिपटाए पूँछ से डाल पर उल्टी लटक कर गुरुकुल के जलाशय से सीधे होंठ लगाए जल ग्रहण कर रही है। कुछ मेढ़क जलाशय के किनारे अपनी ही रौ में उदासीनता के साथ खुद उछलते और शाख से टूट कर गिरे पत्तों को उछालते अज्ञात की ओर बढ़ते नजर आते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि निशा भी अब अँगड़ाई लेकर जागने ही वाली है। यज्ञशाला में विराजित गुरुदेव के मुखारविंद से निःसृत श्लोकों की स्वरलहरियाँ शीतल मंद सुगंधित पवन के साथ यदा-कदा कानों में पड़ कर रोमांचित कर देती हैं। गुरुकुल के कुछ शिष्य अपने तरह के व्यायाम और साधना के बाद जलाशय के चारों ओर नीम की दातुन करते हुए चर्चा में रत हैं।
उजबक अभी तक इतने शीतल वातावरण में भी श्रम स्वेद से नहाए दोनों हाथों में पेड़ के तने को काट कर बनाए गए बड़े से मुग्दर थामे को तेजी से एक विशेष लय में घुमा रहे हैं। उनकी गति और चेहरे के भाव देखकर लगता है मानों वे आज ही अपनी काया की अतिरिक्त वसा को जला कर उससे मुक्ति पा लेंगे। सहसा कौशल ने कन्या की आवाज में जोर से पुकारा , 'स्वामी ....स्वामी....कहाँ हो प्रिय?' उजबक जैसे किसी तंद्रा से जगे हों। उनके हाथ से एक मुग्दर फिसल कर सीधे जलाशय में जा गिरा। अनूप वहीं खोया खोया सा खामोशी से पानी को निहार रहा था, जैसे चहुँओर व्याप्त इस शांति को आँखों ही से पी जाना चाहता हो। यकायक जलाशय में मुग्दर गिरने पर पानी उछलने और कुछ छींटे अपने ऊपर गिरने से अनूप चौंक गया। अनूप कल से ही गुमसुम सा है। इन्द्रविहार चित्रपट में भी वो चुपचाप ही था। और तो और वो संज्ञा से एक सीट छोड़ कर अगली सीट पर बैठा था। अब यहाँ भी ध्यानस्थ मुद्रा में बैठा था।
उजबक ने कौशल की ओर देखा तो वे आँखों मे शरारत दबाए जोर-जोर से हंस रहे थे, कौशल कई तरह की आवाजें निकालने में सिद्धहस्त हैं। आज परिहास करते हुए उजबक को छेड़ने के लिए वो ये स्वांग कर रहे थे। उजबक को देख कर पुनः उसी तरह बोले, 'स्वामी, मैं ये क्या सुन रही हूँ। आप पर केवल मेरा अधिकार है। कहिए न , कहिए कि ये सब जो कह रहे हैं वो असत्य है, मिथ्या है। आप की नियति मैं हूँ। मैं ही हूँ न स्वामी?' कहते कहते कौशल ने उजबक को पीछे से पकड़ लिया और अपने हाथ उजबक के पेट पर गोल-गोल घुमाने लगे।
'कैसी बातें करते हैं बाबा? (कौशल को सब बाबा ही कहते हैं) आपको परिहास करने को मैं ही मिलता हूँ? आप प्रेम नहीं समझते। कभी किसी से प्रेम किया होता तो कदाचित भान भी होता।' उजबक ने कहा।
'हे ईश्वर ! ये मैं क्या सुन रही हूँ? हे प्राणनाथ आप मुझे उपेक्षित कीजिए, चाहे जो कष्ट दीजिए, मैं आपसे उसका अभीष्ट भी न पूछूँगी। किंतु, विधाता के लिए कृपया ये न कहें कि मैं प्रेम ही न जानती। मैं आपसे असीम प्रेम करती हूँ स्वामी।' कौशल अभी भी हंसते हुए कहे जा रहे थे।
'मैं आपसे अच्छे से परिचित हूँ असीमानन्द जी। आप परिहास में व्यस्त रहिए किंतु जानते हैं ? प्रेम समस्त चराचर जगत को देखने का दृष्टिकोण ही परिवर्तित कर देता है। देखिए न हम पूर्व में भी यहाँ इसी प्रकार अभ्यास किया करते थे किंतु कोई लक्ष्य न था। पूर्व में हमें कभी अपनी काया को लेकर कभी कोई संताप न हुआ किंतु अब देवी नियति के लिए स्वयं को उनके अनुरूप ढालने का मन होता है।' उजबक बोले।
'तो आपको क्या लगता है मेरा प्रेम इस रूप में आपसे कमतर है ? स्वामी, प्रजापिता ब्रह्मा रचित इस सृष्टि का कण-कण साक्षी है कि मुझसे अधिक आपसे न कभी किसी ने प्रेम किया है और न करेगा। न भूतो न भविष्यति। यदि मैं आपकी शपथ लेकर कहूँ तो अभी माँ वसुंधरा मुझे भी माता वैदेही के समान अपने अंक में भर लेंगी। कहूँ तो ये वृक्ष , उनके निर्जीव होकर गिरे ये सूखे पत्ते, ये मयूर, वो दादुर सब समवेत स्वर में अभी पुकार-पुकार कर कहेंगे कि आप पर केवल मेरा ही अधिकार है स्वामी। कहिए कि आप मेरे हैं, मेरे ही हो न प्रिय ? कह कर कौशल ने उजबक के पेट को और जोर से पकड़ लिया। सभी शिष्य इन दोनों को देख कर हंस हंस कर दुहरे हुए जा रहे थे।
'आप आज ये कैसा प्रलाप कर रहे हैं? हुआ क्या है? मद्यपान तो न किया कहीं ? क्या खाया सत्य कहिए?' उजबक ने चकित स्वर में कहा।
'प्रलाप नहीं प्रेम कहिए प्रिय प्रेम। निर्मल, निश्चल, अथाह प्रेम और ये समस्त प्रेम आपके लिए है। और जो प्रेम में हो उसे किसी अन्य मद की आवश्यकता ही कहाँ रहती है? कुछ न खाया किंतु आज्ञा दें तो खा लूँ आपको ही? हाउ..।' कौशल ने थोड़ा हल्के से उजबक के कंधे पर काट लिया।
'भक्क, बाबा आपको किसी ने बताया है या नहीं पर हम बता रहे हैं। मित्र आप बहुत अश्लील आदमी हैं।' उजबक थोड़ा क्रोध से बोले।
'अश्लीलता क्या होती है स्वामी? मैं आज रात्रिकालीन चर्चा आपके साथ इसी विषय पर विशद चर्चा करना चाहूंगी? आप मुझे समझाएंगे तो मैं सब समझ जाऊंगी।' कह कर कौशल ने जीभ अपने होंठो पर फिरा दी।
'भक्क...भक्क....भक्क' बोलते हुए उजबक ने कौशल को दूर छिटक दिया।
कौशल पुनः कुछ कहने ही वाले थे कि गौरव ने गुरुमाता का संदेश की उद्घोषणा की। प्रातःकलेवा का समय हो रहा था। सभी छात्र हंसते मुस्कुराते पाक कुटीर की ओर प्रस्थान करने लगे। अनूप अभी भी जलाशय के तट पर ही बैठा था। उजबक ने उसे आवाज दी तो वो भी धीमे कदमों से हमारे पीछे पीछे चलने लगा।
***
पाक-कुटीर में मिट्टी के चूल्हे पर बन रही खिचड़ी की भीनी सुगंध नथुनों में जाते ही भूख दूनी हो गई। हम सब पंक्तिबद्ध बैठे थे । गौरव गुरुमाता को विशेष प्रिय है, अतः वे उसे अपने पास बैठा कर ही भोजन कराती हैं। भूमि पर साफ आसन के के समक्ष स्वच्छ केले के पत्तों पर दही-खिचड़ी का भोजन परोसे जाते ही भोजन मंत्र की सम्मिलित टेर गुंजायमान होने लगी।
'ॐ सह नाववतु।
सह नौ भुनक्तु।
सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु।
मा विद्विषावहै॥
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
भोजन के समय संवाद करना गुरुकुल में वर्जित है, किंतु ये नियम हम केवल गुरुदेव के सामने मानते हैं। गुरुमाता तो मैया हैं अतः उनसे रूठना, मनाना और पिटना हमारी दिनचर्या का ही भाग हो चला है। मैंने सबसे पहले भोजन कर लिया तो शेष छात्रों को भोजन करवाने में मैया की सहायता करने लगा। उजबक को मैया चार बार खिचड़ी परोस चुकी थी। अध्ययन के समान भोजन में भी उनकी गति देखते ही बनती है। जब उन्होंने पांचवी बार मांग की तो मैं परोसने का पात्र लेकर उनके समीप आया। कहा, 'कितना परोसना है कृपया बता दीजिएगा।' और उन्हें खिचड़ी परोसने लगा। कौशल धीमे स्वर में कन्या की आवाज में बोले, 'पूछना क्या है, देखते नहीं मेरे स्वामी को? कांटा हुए जाते हैं। तुम बस परोस दो मैं अपने स्वामी को अपने हाथों से कौर खिलाऊंगी।'
उनके कहने के साथ ही सभी शिष्य मुँह नीचे किए भोजन करते करते ही हंसने लगे। मैया बोली, 'कम से कम भोजन के समय तो शांत रहा करो, जब देखो तब ठिठोली। किसी दिन मेरा धैर्य छूटा तो तुम्हारे गुरुदेव से सब कह दूंगी।' सब ने मुँह पकड़ कर अपनी हंसी दबा दी। उजबक ने कौशल पर क्रोधित नेत्रों से दृष्टिपात किया। फिर उन्हें ध्यान आया कि क्रोध करने के लिए बाद में भी समय मिल सकता है, अतः अपनी सम्पूर्ण एकाग्रता भोजन को समर्पित कर दी तथा पूर्ण तन्मयता से भोजन देव का सत्कार करने लगे। भोजन कर चुकने के बाद जब उठने में परेशानी हुई तो कौशल ने उन्हें सहारा दिया। उठाते उठाते ही कान में धीमे से बोले, 'आइए स्वामी, आइए।' सभी शिष्य मुँह पकड़े दौड़ कर बाहर आ गए।
***
छात्रावास में भूतल पर सबकी शैयाएं क्रम से बिछी थी। सरदार, उजबक, कौशल, अजीत, मैं, अनूप और गौरव। गौरव शैया पर बैठे-बैठे अपने तरकश के तीरों को और पैना कर रहा था। अजीत पंजाबी भाषा की कोई पुस्तक पढ़ रहा था। अनूप मुझसे संवाद कर रहा था। तभी उजबक और उनके पीछे कौशल, दोनों बाहर से आए। आते ही उजबक ने घोषणा की, 'देखिए मित्रों, मैं आज से कौशल के पास नहीं सोऊंगा और मैं तो कहता हूं आप भी मत सोइए, ये व्यक्ति खतरनाक है।'
गुरुदेव भोजनोपरांत अपने लेखन कार्य को गति देने लगे थे, छात्रावास के ठहाकों की आवाजों की गूंज चतुर्दिक व्याप्त आम्र कुंजों से टकरा दूर गगन तक जा रही थी। गुरुदेव ने भी जब ये गूंज सुनी तो वे बस थोड़ा मुस्कुराए और पुनः अपने कर्म में रत हो गए।
#जयश्रीकृष्ण
#उजबक_कथा
#गुरुकुल_के_किस्से
#पार्ट8
✍️ अरुण
Rajpurohit-arun.blogspot.com
उजबक अभी तक इतने शीतल वातावरण में भी श्रम स्वेद से नहाए दोनों हाथों में पेड़ के तने को काट कर बनाए गए बड़े से मुग्दर थामे को तेजी से एक विशेष लय में घुमा रहे हैं। उनकी गति और चेहरे के भाव देखकर लगता है मानों वे आज ही अपनी काया की अतिरिक्त वसा को जला कर उससे मुक्ति पा लेंगे। सहसा कौशल ने कन्या की आवाज में जोर से पुकारा , 'स्वामी ....स्वामी....कहाँ हो प्रिय?' उजबक जैसे किसी तंद्रा से जगे हों। उनके हाथ से एक मुग्दर फिसल कर सीधे जलाशय में जा गिरा। अनूप वहीं खोया खोया सा खामोशी से पानी को निहार रहा था, जैसे चहुँओर व्याप्त इस शांति को आँखों ही से पी जाना चाहता हो। यकायक जलाशय में मुग्दर गिरने पर पानी उछलने और कुछ छींटे अपने ऊपर गिरने से अनूप चौंक गया। अनूप कल से ही गुमसुम सा है। इन्द्रविहार चित्रपट में भी वो चुपचाप ही था। और तो और वो संज्ञा से एक सीट छोड़ कर अगली सीट पर बैठा था। अब यहाँ भी ध्यानस्थ मुद्रा में बैठा था।
उजबक ने कौशल की ओर देखा तो वे आँखों मे शरारत दबाए जोर-जोर से हंस रहे थे, कौशल कई तरह की आवाजें निकालने में सिद्धहस्त हैं। आज परिहास करते हुए उजबक को छेड़ने के लिए वो ये स्वांग कर रहे थे। उजबक को देख कर पुनः उसी तरह बोले, 'स्वामी, मैं ये क्या सुन रही हूँ। आप पर केवल मेरा अधिकार है। कहिए न , कहिए कि ये सब जो कह रहे हैं वो असत्य है, मिथ्या है। आप की नियति मैं हूँ। मैं ही हूँ न स्वामी?' कहते कहते कौशल ने उजबक को पीछे से पकड़ लिया और अपने हाथ उजबक के पेट पर गोल-गोल घुमाने लगे।
'कैसी बातें करते हैं बाबा? (कौशल को सब बाबा ही कहते हैं) आपको परिहास करने को मैं ही मिलता हूँ? आप प्रेम नहीं समझते। कभी किसी से प्रेम किया होता तो कदाचित भान भी होता।' उजबक ने कहा।
'हे ईश्वर ! ये मैं क्या सुन रही हूँ? हे प्राणनाथ आप मुझे उपेक्षित कीजिए, चाहे जो कष्ट दीजिए, मैं आपसे उसका अभीष्ट भी न पूछूँगी। किंतु, विधाता के लिए कृपया ये न कहें कि मैं प्रेम ही न जानती। मैं आपसे असीम प्रेम करती हूँ स्वामी।' कौशल अभी भी हंसते हुए कहे जा रहे थे।
'मैं आपसे अच्छे से परिचित हूँ असीमानन्द जी। आप परिहास में व्यस्त रहिए किंतु जानते हैं ? प्रेम समस्त चराचर जगत को देखने का दृष्टिकोण ही परिवर्तित कर देता है। देखिए न हम पूर्व में भी यहाँ इसी प्रकार अभ्यास किया करते थे किंतु कोई लक्ष्य न था। पूर्व में हमें कभी अपनी काया को लेकर कभी कोई संताप न हुआ किंतु अब देवी नियति के लिए स्वयं को उनके अनुरूप ढालने का मन होता है।' उजबक बोले।
'तो आपको क्या लगता है मेरा प्रेम इस रूप में आपसे कमतर है ? स्वामी, प्रजापिता ब्रह्मा रचित इस सृष्टि का कण-कण साक्षी है कि मुझसे अधिक आपसे न कभी किसी ने प्रेम किया है और न करेगा। न भूतो न भविष्यति। यदि मैं आपकी शपथ लेकर कहूँ तो अभी माँ वसुंधरा मुझे भी माता वैदेही के समान अपने अंक में भर लेंगी। कहूँ तो ये वृक्ष , उनके निर्जीव होकर गिरे ये सूखे पत्ते, ये मयूर, वो दादुर सब समवेत स्वर में अभी पुकार-पुकार कर कहेंगे कि आप पर केवल मेरा ही अधिकार है स्वामी। कहिए कि आप मेरे हैं, मेरे ही हो न प्रिय ? कह कर कौशल ने उजबक के पेट को और जोर से पकड़ लिया। सभी शिष्य इन दोनों को देख कर हंस हंस कर दुहरे हुए जा रहे थे।
'आप आज ये कैसा प्रलाप कर रहे हैं? हुआ क्या है? मद्यपान तो न किया कहीं ? क्या खाया सत्य कहिए?' उजबक ने चकित स्वर में कहा।
'प्रलाप नहीं प्रेम कहिए प्रिय प्रेम। निर्मल, निश्चल, अथाह प्रेम और ये समस्त प्रेम आपके लिए है। और जो प्रेम में हो उसे किसी अन्य मद की आवश्यकता ही कहाँ रहती है? कुछ न खाया किंतु आज्ञा दें तो खा लूँ आपको ही? हाउ..।' कौशल ने थोड़ा हल्के से उजबक के कंधे पर काट लिया।
'भक्क, बाबा आपको किसी ने बताया है या नहीं पर हम बता रहे हैं। मित्र आप बहुत अश्लील आदमी हैं।' उजबक थोड़ा क्रोध से बोले।
'अश्लीलता क्या होती है स्वामी? मैं आज रात्रिकालीन चर्चा आपके साथ इसी विषय पर विशद चर्चा करना चाहूंगी? आप मुझे समझाएंगे तो मैं सब समझ जाऊंगी।' कह कर कौशल ने जीभ अपने होंठो पर फिरा दी।
'भक्क...भक्क....भक्क' बोलते हुए उजबक ने कौशल को दूर छिटक दिया।
कौशल पुनः कुछ कहने ही वाले थे कि गौरव ने गुरुमाता का संदेश की उद्घोषणा की। प्रातःकलेवा का समय हो रहा था। सभी छात्र हंसते मुस्कुराते पाक कुटीर की ओर प्रस्थान करने लगे। अनूप अभी भी जलाशय के तट पर ही बैठा था। उजबक ने उसे आवाज दी तो वो भी धीमे कदमों से हमारे पीछे पीछे चलने लगा।
***
पाक-कुटीर में मिट्टी के चूल्हे पर बन रही खिचड़ी की भीनी सुगंध नथुनों में जाते ही भूख दूनी हो गई। हम सब पंक्तिबद्ध बैठे थे । गौरव गुरुमाता को विशेष प्रिय है, अतः वे उसे अपने पास बैठा कर ही भोजन कराती हैं। भूमि पर साफ आसन के के समक्ष स्वच्छ केले के पत्तों पर दही-खिचड़ी का भोजन परोसे जाते ही भोजन मंत्र की सम्मिलित टेर गुंजायमान होने लगी।
'ॐ सह नाववतु।
सह नौ भुनक्तु।
सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु।
मा विद्विषावहै॥
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
भोजन के समय संवाद करना गुरुकुल में वर्जित है, किंतु ये नियम हम केवल गुरुदेव के सामने मानते हैं। गुरुमाता तो मैया हैं अतः उनसे रूठना, मनाना और पिटना हमारी दिनचर्या का ही भाग हो चला है। मैंने सबसे पहले भोजन कर लिया तो शेष छात्रों को भोजन करवाने में मैया की सहायता करने लगा। उजबक को मैया चार बार खिचड़ी परोस चुकी थी। अध्ययन के समान भोजन में भी उनकी गति देखते ही बनती है। जब उन्होंने पांचवी बार मांग की तो मैं परोसने का पात्र लेकर उनके समीप आया। कहा, 'कितना परोसना है कृपया बता दीजिएगा।' और उन्हें खिचड़ी परोसने लगा। कौशल धीमे स्वर में कन्या की आवाज में बोले, 'पूछना क्या है, देखते नहीं मेरे स्वामी को? कांटा हुए जाते हैं। तुम बस परोस दो मैं अपने स्वामी को अपने हाथों से कौर खिलाऊंगी।'
उनके कहने के साथ ही सभी शिष्य मुँह नीचे किए भोजन करते करते ही हंसने लगे। मैया बोली, 'कम से कम भोजन के समय तो शांत रहा करो, जब देखो तब ठिठोली। किसी दिन मेरा धैर्य छूटा तो तुम्हारे गुरुदेव से सब कह दूंगी।' सब ने मुँह पकड़ कर अपनी हंसी दबा दी। उजबक ने कौशल पर क्रोधित नेत्रों से दृष्टिपात किया। फिर उन्हें ध्यान आया कि क्रोध करने के लिए बाद में भी समय मिल सकता है, अतः अपनी सम्पूर्ण एकाग्रता भोजन को समर्पित कर दी तथा पूर्ण तन्मयता से भोजन देव का सत्कार करने लगे। भोजन कर चुकने के बाद जब उठने में परेशानी हुई तो कौशल ने उन्हें सहारा दिया। उठाते उठाते ही कान में धीमे से बोले, 'आइए स्वामी, आइए।' सभी शिष्य मुँह पकड़े दौड़ कर बाहर आ गए।
***
छात्रावास में भूतल पर सबकी शैयाएं क्रम से बिछी थी। सरदार, उजबक, कौशल, अजीत, मैं, अनूप और गौरव। गौरव शैया पर बैठे-बैठे अपने तरकश के तीरों को और पैना कर रहा था। अजीत पंजाबी भाषा की कोई पुस्तक पढ़ रहा था। अनूप मुझसे संवाद कर रहा था। तभी उजबक और उनके पीछे कौशल, दोनों बाहर से आए। आते ही उजबक ने घोषणा की, 'देखिए मित्रों, मैं आज से कौशल के पास नहीं सोऊंगा और मैं तो कहता हूं आप भी मत सोइए, ये व्यक्ति खतरनाक है।'
गुरुदेव भोजनोपरांत अपने लेखन कार्य को गति देने लगे थे, छात्रावास के ठहाकों की आवाजों की गूंज चतुर्दिक व्याप्त आम्र कुंजों से टकरा दूर गगन तक जा रही थी। गुरुदेव ने भी जब ये गूंज सुनी तो वे बस थोड़ा मुस्कुराए और पुनः अपने कर्म में रत हो गए।
#जयश्रीकृष्ण
#उजबक_कथा
#गुरुकुल_के_किस्से
#पार्ट8
✍️ अरुण
Rajpurohit-arun.blogspot.com
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