👯👯👯👯👯 कन्याकुमारी नमो नमः ♠️♠️♠️♠️♠️

कन्या गुरुकुल के भीतर का दृश्य, चारों ओर बहुत हरियाली है और अथाह शांति भी। इस नीरवता को थोड़ी थोड़ी देर में उठ रही कोयलों की कुहुक भंग अवश्य करती है, किंतु अगले ही क्षण पुनः वैसी ही निस्तब्धता छा जाती है। यज्ञशाला से उठते धूम्र की सुगंध मोहक प्रभाव छोड़ रही है। कदाचित वेदाध्ययन का यह समय नहीं है इसलिए वैदिक श्लोक की सम्मिलित टेर किसी दिशा से सुनाई नहीं पड़ती। एक कक्ष में कुछ वरिष्ठ साध्वियाँ कुछ पांडुलिपियों के साथ अध्ययन, मनन तथा चिंतन में व्यस्त नजर आती हैं, वहीं एक ओर कुछ किशोर बालिकाएँ तलवार और ढाल थामे एक दूसरे की शक्ति की थाह लेते हुए छका रही हैं, तो कुछ निहत्थी ही कलारिपट्टू के दांवपेंचों के परीक्षण रही हैं। संज्ञा वहीं पास ही खड़ी उन्हें अभ्यास करवा रही है। कुछ बहुत छोटी छोटी बच्चियाँ खेल खेल में बीच में आकर अभ्यास में व्यवधान डाल रही। संज्ञा के डांटने पर उन्होंने खिलखिलाकर किलकारियां मारते हुए दौड़ लगा दी। संज्ञा उनके पीछे भागी, लड़कियाँ दौड़ कर आगे निकल गई पर संज्ञा कन्या छात्रावास के दरवाजे के पास ठिठक कर रुक गई। नियति जमीन पर बिछी तृणशैया पर दरवाजे की तरफ पीठ करके लेटी है। पास ही कोई पुस्तक रखी है जिसमें 'पीतवर्णी गुलाब' रखा है। चुपके चुपके उसी गुलाब को निहारा जा रहा है।

'ओहो तो आप यहाँ व्यस्त हैं राजकुमारी जी, अभ्यास में क्यों नहीं आईं? हम्म" संज्ञा ने नियति पर लगभग गिरते हुए कहा।

'वो वो वो मेरा मन कुछ स्वस्थ नहीं था, और तुम्हें तो विदित ही है कि ये लड़ना भिड़ना मेरी रुचि का विषय नहीं है। मुझे मेरी पुस्तकों में ही आनंद आता है।' नियति ने धीमे स्वर में कहा।

'जरा देखूँ तो' कहकर संज्ञा ने किताब छीन ली, 'ऐसी पुस्तकें पढ़ कर तो मन अस्वस्थ ही होगा न, कहाँ से लाई? पुस्तकालय की तो लगती ये। व्हेन लव हैपन्स? तुम अंग्रेजी कब से पढ़ने लगी ?' किताब उलटते पलटते संज्ञा ने कहा।

'इस शीर्षक ही में तुम्हारे प्रश्न का उत्तर भी छुपा है। 'व्हेन लव हैपन्स'।' नियति के नेत्र अभी भी भूमि की ओर थे।

'अच्छा तो ये बात है। तब ये किताब जरूर हमारे होने वाले जीजाश्री उजबक देव महाराज जी ने ही दी होगी, है न?' संज्ञा के चेहरे पर शरारती मुस्कान तैर रही थी।

'हाँ उन्होंने ही भिजवाई है, पर पहुंचाने के लिए हनुमान बन कर 'तुम्हारा अरुण' आया था।' नियति ने संज्ञा को छेड़ा।

'मेरा अरुण? माय फुट। मैंने उसके साथ पकौड़े खा लिए तो वो मेरा हो गया? तू भी न, कुछ भी बोलती है।' संज्ञा ने लगभग खीझते हुए कहा।

'अच्छा ठीक है, तो ये परफ्यूम मैं ही रख लेती हूँ। तुम उसे अपना नहीं मानती न सही पर मैं तो उसकी भाभीसा हूँ ही। आहा हा हा कितने प्यार से बोला था कि भाभीसा ये परफ्यूम और ये पत्र 'मेरी संज्ञा' को दे दीजिएगा। पर सकल पदार्थ है जग माहीं, कर्महीन नर पावत नाहीं। अब इस पत्र का क्या करूँ? चलो वापस ही कर दूंगी। ठीक है। लेकिन एक बार पढ़ कर तो देखूँ ..' कहकर नियति पत्र पढ़ने को हुई।

पर संज्ञा उसके हाथ से पत्र छीन कर बाहर उद्यान की ओर भाग गई। वाटिका में पुष्पों की बीच छुपी संज्ञा स्वयं भी एक गुलाब  ही प्रतीत होती थी। दौड़ने से तेज़ हुई साँसों के साथ उठते गिरते यौवनाभूषणों से किसी समुद्र का सा आभास होता था। जो स्वयं अपने ही ज्वार-भाटे में उलझा जा रहा था। ये बुरी सी लिखावट वही थी जिससे नियति को उजबक के नाम से पत्र आते थे। पर आज वही बुरी लिखावट बुरी मालूम न होती थी। हर शब्द पढ़ने के साथ संज्ञा के चेहरे की गुलाबी रंगत में मीठी सी मुस्कान घुलती चली गई।

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#जयश्रीकृष्ण
#उजबक_कथा
#गुरुकुल_के_किस्से
#पार्ट6

✍️ अरुण

Rajpurohit-arun.blogspot.com

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