🤕🤒🍺🥂🥃👩 अनुपम व्यथा ♠️♠️♠️♠️♠️

अ..जी..त भै..या, ये ह..मारे सा..थ ई क्यों होता है? क्या ह..म  इत..ने बुरे हैं? अनूप लड़खड़ाती वाणी में बोल रहा था। अचानक उसने अपने हाथ से ताड़ी के आधे भरे कुल्हड़ को जमीन पर दे मारा और जोर से चिल्लाते हुए भावुक हो कर गाने लगा, 'क्या इत..ना  बु.. रा  हूँ मैं माँ? क्या इ..तना  बु...रआआ  मे..री  माँ !!!? पररर मैं क्क क्या कारूँ माँ? जब्ब जब्ब आ.वे य्याद जिया में, ई मनवा तड़पेला, केहू  स..जनी के देश, कस..हु  लेज्जा ई सन्देश, लौट के आवेला, जब्ब जब्ब आवे याद ....'

नशे में अनूप के कदम उसकी वाणी की ही तरह लड़खड़ा रहे थे और अजीत उसे संभालने की कोशिश कर रहा था। अनूप कभी कोई नशा नहीं करता पर आज इसने जीभर कर ताड़ी पी थी, अजीत के रोकने पर भी न रुका। अब अजीत को गुस्सा आ रहा था।

पर गुस्से को नियंत्रित करते हुए कहा, 'यार तुझे हुआ क्या है ? कब से पूछ रहे हैं । कुछ बताते भी नहीं हो। और ये सब क्या है, लोग देख रहे हैं यार ।' कहकर अजीत ने चारों ओर दृष्टि घुमा डाली।

गहरा नारंगी सूर्य दूर क्षितिज में दिन भर की गर्मी से त्रस्त होकर अब समंदर के पीछे कहीं छुपने का स्थान तलाशने लगा है। समंदर पर बिछी नारंगी किरणें किसी नायिका के आंचल का सा आभास दे रही है। कुछ अर्द्धनग्न लोग, जिनमें बहुत-सी कन्याएँ भी हैं, किनारे की गीली जमीन पर सीधी टांगे फैलाए हाथों को कमर से पीछे टिकाकर बैठे सूर्यास्त के इन दृश्यों में आनन्द खोज रहे हैं। तो कुछ इन दृश्यों को अपने महंगे कैमरे में सदा के लिए अमर कर देने की कवायद में जुटे हैं। कुछ मुग्धा नायिकाएँ एक अंगोछे जैसे वस्त्र को कमर पर तिरछा लपेटे समस्त जगत को भुला कर अन्य किसी की परवाह न करते हुए स्वयं अपने अपने प्रिय से लिपट चिपट कर यहाँ वहाँ घूम रही। वहीं पास में कुछ पावभाजी के ठेले लगे हैं। प्रत्येक ठेले पर बड़े-से तवे पर भाजी को बार-बार उलट-पलट कर लिटाया जा रहा था, उसकी सींसीं की कराहों से उठती खुशबू से बंधे कुछ लोग वही छोटे स्टूलों पर बैठ कर पावभाजी खाने का लुत्फ उठा रहे हैं। कुछ भिखमंगे बालक खाने वालों की प्लेट को कातर होकर ताक रहे हैं। सब बहुत व्यस्त नजर आते हैं।

 'लगता तो नहीं कि किसी को अनूप से विशेष फर्क पड़ेगा।' अजीत ने सोचा। पर तभी अनूप वही गिर कर बेहोश हो गया।  गुस्से में अजीत ने उसे कंधे पर बेताल की तरह लादा और समंदर के नमकीन ठंडे पानी मे ले जाकर गुस्से से पटक दिया। कुछ लोग दौड़ कर आए, पर अजीत ने हाथ के इशारे से उन्हें दूर रहने को कहा। पानी में गिरते ही अनूप को हड़बड़ाकर होश आ गया। अजीत ने फिर गर्दन से पकड़ कर पानी में घुसेड़ दिया। कुछेक सेकंड के बाद बाहर निकाला तो अनूप रोते हुए कहने लगा, 'हाँ भैया, म्मार ही डा..लिए हमको। हम मरना ही चाहते हैं।' मरने की बात सुनकर अजीत को और गुस्सा आ गया। उसने अनूप झिंझोड़ कर पानी से बाहर निकाला और कस्स के एक चांटा रसीद कर दिया। अनूप का नशा हवा हो गया। वहीं किनारे पर घुटनो के बल चुपचाप बैठ गया। आँखों से टपटप आँसू गिरने लगे। किंतु अजीत अब दया के मूड में बिल्कुल नहीं था, कॉलर पकड़ के उठाया और कहा, 'अब बोलते हो कि दूसरे कान पर भी धर दें ? देख मरदे ये लच्छन ठीक नहीं तुम्हारे। गुरुकुल के विद्यार्थी होकर ये सब शोभा देता है तुमको ?'

'तो और का क्या करें भैया? कोई हमसे प्रेम क्यों न करती भैया ? हमको तो जैसे नागफनी के कांटे लगे हैं। किसी भी लईकी से पूछिए उसे कैसा लड़का चाहिए, कहने को वो यही कहेगी की बस चरित्र..वान हो, गुण...वान हो, कहेंगी रंग रूप अस्थायी सुंदरता है, मन से सुंदर हो ऐसा वर चाहिए। हममें क्या कमी है ? क्या गुरुदेव ने हमारे रूप में किसी चरित्रहीन, गुणहीन और पापी का चयन किया है? मन की सुंदरता की बात करती हैं, पर कभी किसी ने हमारे भीतर झांक कर भी देखा ? नारी मन को तो कोमलता का पर्याय कहते हैं न भैया, पर ये बहुत कठोर होती हैं। भगवान कृष्ण कुब्जा में  सौंदर्य का दर्शन करते है, जानते हैं क्यों? क्योंकि वे पुरुष हैं। कभी देखा किसी रूपवती को किसी कुरूप से प्रेम करते देखा ? सुना भी न होगा। वो संज्ञा भी खुद को न जाने क्या समझती है। हमको अनूप भैया बोल दिहिस। बताइए। अरुण भैया को तो कभी भैया न बोली। क्या वो नहीं जानती कि हम उससे प्रेम.....' अनूप अपनी रौ में बस कहता जा रहा था कि अजीत ने उसके मुँह पर हाथ रख दिया।

'चुप बे मरदे, कुछ भी बोल रहे हो ? किसने कहा कि तुम चरित्रवान या गुणवान नहीं ? पर उसके लिए जिस कन्या को तुम चाहो वो अपना हृदय तुम्हारे चरणों मे रख कर तुम्हें प्रेमार्पण कर ही दे ये किस शास्त्र में लिखा है ? प्रेम तो नितांत व्यक्तिगत अनुभूति है इस पर किस का वश ? कल को बहुत सी कन्याएँ तुमसे ऐसी ही अपेक्षा करे तो क्या कहोगे उन सब से ? क्या सबकी अपेक्षा पूर्ण करने का पाप कर सकोगे ?  स्त्री सौंदर्य के प्रति आकर्षण पुरुष मन का नैसर्गिक गुण है। स्त्रियों को ढ़ेरों प्रेम प्रस्ताव झेलने पड़ते हैं। यदि तुम चाहते हो कि तुम्हारी इच्छा का सम्मान हो तो दूसरों की इच्छाओं का भी सम्मान करो न। तुम कृष्ण का उदाहरण दे रहे थे, वे तो युगपुरुष थे, साक्षात भगवान श्रीहरि विष्णु के अवतार। तुम कितने ऐसे पुरुषों को जानते हो जो स्वेच्छा से कुरूप कन्या का वरण करने को तैयार होंगे? अगर कोई ध्यान में न आ रहा तो किसी कन्या से ऐसी अपेक्षा क्यों करते हो ? तुम्हे पौराणिक बातें तो याद रहती हैं पर वर्तमान में ही नियति भाभीश्री का उदाहरण क्यों भूल जाते हो ?  क्या सौंदर्य की दृष्टि से उजबक उनकी किसी भी रूप में समता कर सकेंगे ? किंतु क्या तब भी वे उनसे असीम प्रेम नहीं करती ? और संज्ञा हो या कोई और, किसी से भी तुम अथाह प्रेम कर तो सकते हो किंतु बलात् किसी से प्रेम का कण भी पा नहीं सकते, समझे ?' अजीत ने थोड़ा रोष से कहा।

अनूप बस सुबक रहा था, नजरें नीची किए ही बोला 'हमें क्षमा कर दीजिए भैया, अपराधी जैसा अनुभव हो रहा है।'

'हूँ, पर तुम केवल एक ही अवस्था में क्षमादान पा सकते हो, बस चार प्लेट पावभाजी खिला दो। हाहाहा सच्ची बड़ी भूख लग रही यार।' अजीत ने चेहरे पर शरारती मुस्कान लाते हुए कहा।

अनूप अपनी आँखें पोंछ रहा था, अजीत की बात सुनकर उसके चेहरे पर भी मुस्कान तैर गई। अजीत ने अनूप को कंधे से पकड़ा और कहा, 'चल न यार। देख वो पावभाजी कब से पुकार रही। आओ खा लो हमको, आओ खा लो हमको। मुझसे उसकी करुण पुकार अब और नहीं सुनी जाती। हाहाहा।'

लगभग सभी स्टूल बुक थे, एक ओर कुछ स्टूल खाली दिखे। अजीत और अनूप वहाँ बैठ कर पावभाजी खाने लगे। उनके खाते-खाते अच्छी खासी भीड़ हो गई। कुछ लोग खड़े भी थे। दो यज्ञोपवीत और चंदन तिलकधारी विद्यार्थियों को इस तरह पावभाजी खाते देख कर कुछ कन्याएँ वहीं कुछ दूर खड़ी पावभाजी खाते हुए उन दोनों की ओर संकेत करते हुए आपस में ठिठोली कर रही थी। अजीत गुस्से में खड़ा हुआ उनके पास जाकर तुनक कर बोला, 'कहिए क्या समस्या है?' अनूप दौड़ कर उसके पीछे चला आया। बोला, 'छोड़िए न भैया, चलिए आप...'

'ल सानु की समस्या होनी आ महाराज, तुस्सी थोड़ा हिसाब नाळ खायो, तिखा बोत है एस्च कित्थे धोती ना खराब कर लवो' एक कन्या अजीत की आवाज सुनकर पलटी और हंसते हंसते बोली।

'देखिए हमको पंजाबी बोलना नहीं आता पर समझ मे सब आता है। हम तो बिना डकार लिए लकड़ी का बुरादा भी पचा जाएं, आप अपने काम से मतलब रखिए। ' अजीत ने क्रोधित स्वर में कहा।

'ल महाराज, तुस्सी तां बुरा मन्नगे। एदां थोड़ी ना हुँदा आ। खैर एक गल्ल पूछणी सी। पर की पूछिए तुस्सी तां बोत गुस्से च हों ' कन्या ने हंसते-हंसते कहा फिर अनूप की ओर मुखातिब होकर बोली, 'चलो तुस्सी ही दस दओ, केड़े सीरियल चों भज्ज के आए हों महाराज ?' फिर जोर से अपनी सखी के हाथों पर ताली देकर हंसने लगी।

अनूप ने देखा तो लगा साक्षात अप्सरा जमीन पर उतर आई है। पाँव में जड़ाऊ मोजड़ी, हल्के हरे रंग की सलवार और गहरे पीले रंग के कुर्ते में, जिसमें बड़ी-बड़ी आसमानी लहरें उसके यौवन को लपेटे हुए थी, वो कमाल लग रही थी। तिस पर उसका बार बार महाराज कहना अनूप को अवाक कर रहा था। अजीत अभी भी क्रोधित था। क्योंकि उसे समझ आ रहा था कि ये उनका मजाक बना रही। वो उन्हें डांटने के लिए कुछ कहने ही वाला था कि अनूप बोला, 'जाए देइ भैया ! अब अपन होखे वाली पतोह पर कइसन खीस ? अजीत सुनते ही क्रोध भुला कर हंसने लगा। पंजाबी कन्या खिसिया गई। अनूप पुनः बोला, 'तोहरा के केहू बतवलस ना का? तू त बड़ी कमाल के बाड़ू 😉'

कन्या बोली , 'ये बाड़ू बाड़ू क्या होता है? हिंदी नहीं आती क्या महाराज ?'

'अच्छा आप अभी जो पंजाबी अत्याचार कर रही थी, उसका क्या महारानी ? वैसे हम आपकी तरह किसी का मजाक न बना रहे थे। समझे।' कह कर अनूप और अजीत वापस पलटे पर उनके स्टूलों पर अब दो पहलवाननुमा आदमियों का कब्ज़ा हो चुका था।

#जयश्रीकृष्ण

#उजबक_कथा
#गुरुकुल_के_किस्से
#पार्ट9

✍️ अरुण
Rajpurohit-arun.blogspot.com

🙄🙄🙄🙄🙄 ठरक शिरोमणि ♠️♠️♠️♠️♠️

प्रातःकालीन ब्रह्ममुहूर्त ; पक्षियों की चहचहाहट के बीच कुछ बंदर पेड़ों के ऊपर एक डाल से दूसरी डाल पर कूद-फांद कर रहे हैं। झींगुरों की आवाज अब उषा के आगमन की सूचना पाकर शनै: शनै: कम होने लगी है। एक मादा बंदर अपने शिशु को सीने से चिपटाए पूँछ से डाल पर उल्टी लटक कर गुरुकुल के जलाशय से सीधे होंठ लगाए जल ग्रहण कर रही है। कुछ मेढ़क जलाशय के किनारे अपनी ही रौ में उदासीनता के साथ खुद उछलते और शाख से टूट कर गिरे पत्तों को उछालते अज्ञात की ओर बढ़ते नजर आते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि निशा भी अब अँगड़ाई लेकर जागने ही वाली है। यज्ञशाला में विराजित गुरुदेव के मुखारविंद से निःसृत श्लोकों की स्वरलहरियाँ शीतल मंद सुगंधित पवन के साथ यदा-कदा कानों में पड़ कर रोमांचित कर देती हैं। गुरुकुल के कुछ शिष्य अपने तरह के व्यायाम और साधना के बाद जलाशय के चारों ओर नीम की दातुन करते हुए चर्चा में रत हैं।

उजबक अभी तक इतने शीतल वातावरण में भी श्रम स्वेद से नहाए दोनों हाथों में पेड़ के तने को काट कर बनाए गए बड़े से मुग्दर थामे को तेजी से एक विशेष लय में घुमा रहे हैं। उनकी गति और चेहरे के भाव देखकर लगता है मानों वे आज ही अपनी काया की अतिरिक्त वसा को जला कर उससे मुक्ति पा लेंगे। सहसा कौशल ने कन्या की आवाज में जोर से पुकारा , 'स्वामी ....स्वामी....कहाँ हो प्रिय?' उजबक जैसे किसी तंद्रा से जगे हों। उनके हाथ से एक मुग्दर फिसल कर सीधे जलाशय में जा गिरा। अनूप वहीं खोया खोया सा खामोशी से पानी को निहार रहा था, जैसे चहुँओर व्याप्त इस शांति को आँखों ही से पी जाना चाहता हो। यकायक जलाशय में मुग्दर गिरने पर पानी उछलने और कुछ छींटे अपने ऊपर गिरने से अनूप चौंक गया। अनूप कल से ही गुमसुम सा है। इन्द्रविहार चित्रपट में भी वो चुपचाप ही था। और तो और वो संज्ञा से एक सीट छोड़ कर अगली सीट पर बैठा था। अब यहाँ भी ध्यानस्थ मुद्रा में बैठा था।

उजबक ने कौशल की ओर देखा तो वे आँखों मे शरारत दबाए जोर-जोर से हंस रहे थे, कौशल कई तरह की आवाजें निकालने में सिद्धहस्त हैं। आज परिहास करते हुए उजबक को छेड़ने के लिए वो ये स्वांग कर रहे थे। उजबक को देख कर पुनः उसी तरह बोले, 'स्वामी, मैं ये क्या सुन रही हूँ। आप पर केवल मेरा अधिकार है। कहिए न , कहिए कि ये सब जो कह रहे हैं वो असत्य है, मिथ्या है। आप की नियति मैं हूँ। मैं ही हूँ न स्वामी?' कहते कहते कौशल ने उजबक को पीछे से पकड़ लिया और अपने हाथ उजबक के पेट पर गोल-गोल घुमाने लगे।

'कैसी बातें करते हैं बाबा? (कौशल को सब बाबा ही कहते हैं) आपको परिहास करने को मैं ही मिलता हूँ? आप प्रेम नहीं समझते। कभी किसी से प्रेम किया होता तो कदाचित भान भी होता।' उजबक ने कहा।

'हे ईश्वर ! ये मैं क्या सुन रही हूँ? हे प्राणनाथ आप मुझे उपेक्षित कीजिए, चाहे जो कष्ट दीजिए, मैं आपसे उसका अभीष्ट भी न पूछूँगी। किंतु, विधाता के लिए कृपया ये न कहें कि मैं प्रेम ही न जानती। मैं आपसे असीम प्रेम करती हूँ स्वामी।' कौशल अभी भी हंसते हुए कहे जा रहे थे।

'मैं आपसे अच्छे से परिचित हूँ असीमानन्द जी। आप परिहास में व्यस्त रहिए किंतु जानते हैं ? प्रेम समस्त चराचर जगत को देखने का दृष्टिकोण ही परिवर्तित कर देता है। देखिए न हम पूर्व में भी यहाँ इसी प्रकार अभ्यास किया करते थे किंतु कोई लक्ष्य न था। पूर्व में हमें कभी अपनी काया को लेकर कभी कोई संताप न हुआ किंतु अब देवी नियति के लिए स्वयं को उनके अनुरूप ढालने का मन होता है।' उजबक बोले।

'तो आपको क्या लगता है मेरा प्रेम इस रूप में आपसे कमतर है ? स्वामी, प्रजापिता ब्रह्मा रचित इस सृष्टि का कण-कण साक्षी है कि मुझसे अधिक आपसे न कभी किसी ने प्रेम किया है और न करेगा। न भूतो न भविष्यति। यदि मैं आपकी शपथ लेकर कहूँ तो अभी माँ वसुंधरा मुझे भी माता वैदेही के समान अपने अंक में भर लेंगी। कहूँ तो ये वृक्ष , उनके निर्जीव होकर गिरे ये सूखे पत्ते, ये मयूर, वो दादुर सब समवेत स्वर में अभी पुकार-पुकार कर कहेंगे कि आप पर केवल मेरा ही अधिकार है स्वामी। कहिए कि आप मेरे हैं, मेरे ही हो न प्रिय ? कह कर कौशल ने उजबक के पेट को और जोर से पकड़ लिया। सभी शिष्य इन दोनों को देख कर हंस हंस कर दुहरे हुए जा रहे थे।

'आप आज ये कैसा प्रलाप कर रहे हैं? हुआ क्या है? मद्यपान तो न किया कहीं ? क्या खाया सत्य कहिए?' उजबक ने चकित स्वर में कहा।

'प्रलाप नहीं प्रेम कहिए प्रिय प्रेम। निर्मल, निश्चल, अथाह प्रेम और ये समस्त प्रेम आपके लिए है। और जो प्रेम में हो उसे किसी अन्य मद की आवश्यकता ही कहाँ रहती है? कुछ न खाया किंतु आज्ञा दें तो खा लूँ आपको ही? हाउ..।' कौशल ने थोड़ा हल्के से उजबक के कंधे पर काट लिया।

'भक्क, बाबा आपको किसी ने बताया है या नहीं पर हम बता रहे हैं। मित्र आप बहुत अश्लील आदमी हैं।' उजबक थोड़ा क्रोध से बोले।

'अश्लीलता क्या होती है स्वामी? मैं आज रात्रिकालीन चर्चा आपके साथ इसी विषय पर विशद चर्चा करना चाहूंगी? आप मुझे समझाएंगे तो मैं सब समझ जाऊंगी।' कह कर कौशल ने जीभ अपने होंठो पर फिरा दी।

'भक्क...भक्क....भक्क' बोलते हुए उजबक ने कौशल को दूर छिटक दिया।

कौशल पुनः कुछ कहने ही वाले थे कि गौरव ने गुरुमाता का संदेश की उद्घोषणा की। प्रातःकलेवा का समय हो रहा था। सभी छात्र हंसते मुस्कुराते पाक कुटीर की ओर प्रस्थान करने लगे। अनूप अभी भी जलाशय के तट पर ही बैठा था। उजबक ने उसे आवाज दी तो वो भी धीमे कदमों से हमारे पीछे पीछे चलने लगा।

***

पाक-कुटीर में मिट्टी के चूल्हे पर बन रही खिचड़ी की भीनी सुगंध नथुनों में जाते ही भूख दूनी हो गई। हम सब पंक्तिबद्ध बैठे थे । गौरव गुरुमाता को विशेष प्रिय है, अतः वे उसे अपने पास बैठा कर ही भोजन कराती हैं। भूमि पर साफ आसन के के समक्ष स्वच्छ केले के पत्तों पर दही-खिचड़ी का भोजन परोसे जाते ही भोजन मंत्र की सम्मिलित टेर गुंजायमान होने लगी।

 'ॐ सह नाववतु।
सह नौ भुनक्तु।
सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु।
मा विद्‌विषावहै॥
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

भोजन के समय संवाद करना गुरुकुल में वर्जित है, किंतु ये नियम हम केवल गुरुदेव के सामने मानते हैं। गुरुमाता तो मैया हैं अतः उनसे रूठना, मनाना और पिटना हमारी दिनचर्या का ही भाग हो चला है। मैंने सबसे पहले भोजन कर लिया तो शेष छात्रों को भोजन करवाने में मैया की सहायता करने लगा। उजबक को मैया चार बार खिचड़ी परोस चुकी थी। अध्ययन के समान भोजन में भी उनकी गति देखते ही बनती है। जब उन्होंने पांचवी बार मांग की तो मैं परोसने का पात्र लेकर उनके समीप आया। कहा, 'कितना परोसना है कृपया बता दीजिएगा।' और उन्हें खिचड़ी परोसने लगा। कौशल धीमे स्वर में कन्या की आवाज में बोले, 'पूछना क्या है, देखते नहीं मेरे स्वामी को? कांटा हुए जाते हैं। तुम बस परोस दो मैं अपने स्वामी को अपने हाथों से कौर खिलाऊंगी।'

उनके कहने के साथ ही सभी शिष्य मुँह नीचे किए भोजन करते करते ही हंसने लगे। मैया बोली, 'कम से कम भोजन के समय तो शांत रहा करो, जब देखो तब ठिठोली। किसी दिन मेरा धैर्य छूटा तो तुम्हारे गुरुदेव से सब कह दूंगी।' सब ने मुँह पकड़ कर अपनी हंसी दबा दी। उजबक ने कौशल पर क्रोधित नेत्रों से दृष्टिपात किया। फिर उन्हें ध्यान आया कि क्रोध करने के लिए बाद में भी समय मिल सकता है, अतः अपनी सम्पूर्ण एकाग्रता भोजन को समर्पित कर दी तथा पूर्ण तन्मयता से भोजन देव का सत्कार करने लगे। भोजन कर चुकने के बाद जब उठने में परेशानी हुई तो कौशल ने उन्हें सहारा दिया। उठाते उठाते ही कान में धीमे से बोले, 'आइए स्वामी, आइए।' सभी शिष्य मुँह पकड़े दौड़ कर बाहर आ गए।

***

छात्रावास में भूतल पर सबकी शैयाएं क्रम से बिछी थी। सरदार, उजबक, कौशल, अजीत, मैं, अनूप और गौरव। गौरव शैया पर बैठे-बैठे अपने तरकश के तीरों को और पैना कर रहा था। अजीत पंजाबी भाषा की कोई पुस्तक पढ़ रहा था। अनूप मुझसे संवाद कर रहा था। तभी उजबक और उनके पीछे कौशल, दोनों बाहर से आए। आते ही उजबक ने घोषणा की, 'देखिए मित्रों, मैं आज से कौशल के पास नहीं सोऊंगा और मैं तो कहता हूं आप भी मत सोइए, ये व्यक्ति खतरनाक है।'

गुरुदेव भोजनोपरांत अपने लेखन कार्य को गति देने लगे थे, छात्रावास के ठहाकों की आवाजों की गूंज चतुर्दिक व्याप्त आम्र कुंजों से टकरा दूर गगन तक जा रही थी। गुरुदेव ने भी जब ये गूंज सुनी तो वे बस थोड़ा मुस्कुराए और पुनः अपने कर्म में रत हो गए।

#जयश्रीकृष्ण

#उजबक_कथा
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#पार्ट8

✍️ अरुण

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🌌🌌🌌🌌🌌 जलते दिए ♠️♠️♠️♠️♠️

समय पूर्वाह्न 11 बजे, उजबक लोटे में अंगारे डाल कर अपनी धोती की सिलवटें दूर कर रहे हैं। उनका सफेद कुर्ता भी पास ही रखा है। धोती एक ही है, इसलिए स्वयं कच्छे में ही खड़े हैं। बनियान फटी हुई है जिसमें से उनकी तोंद पर लहराते यज्ञोपवीत के सफेद तंतु मुस्कुरा रहे हैं। उजबक स्वयं भी सदा की तरह बहुत प्रसन्नचित्त नजर आते हैं। कोई भी उन्हें देख कर जान सकता है कि इस अवस्था में खड़े रहने से उन्हें 🔔 कोई फर्क नहीं पड़ रहा। लोटा घुमाते घुमाते कुछ गुनगुनाते हुए कभी कभी अपनी कमर को हल्का सा झटका भी देते हैं। 'छलकत हमरी जवनिया ए राजा' ओ हो हो। ला ला ला।

अचानक अनूप बाहर से दौड़ते हुए आया बोला, 'गुरु...गुरु...'

उजबक एकदम पीछे की ओर पलटे तो उनके साथ उनका लोटा भी अंगारों समेत वहीं पलट गया। धोती की सिलवट तो दूर हुई ही न थी पर जहाँ जहाँ जलते हुए अंगारे गिरे वहाँ खूबसूरत से छेद बन गए।

'क्या यार अनूप, आपके चक्कर में हमारी धोती जल गई' उजबक थोड़ा मायूसी से बोले।

'और आप? आप तो आज फंसाए दिए थे। ई रखिए अपना क्रेडिट कार्ड। कुछो ना धरा इसमें। साला हम भी गधे हैं, ये लेके एटीएम से पैसे निकलवाने गए थे? इसमें कुछ होता तो प्रदीपवा इसे फेंक काहे देता? ब्लॉक्ड है साला कार्ड ही। हम चार बार ट्राई भी किए रहे, पर हर बार कार्ड ब्लॉक्ड का मैसेज मिला पैसों की जगह। उ साला गार्ड हमको तोड़ देता, बोला कि तुम चोर हो इतनी देर से मशीन में क्या खुचर-पुचर कर रहे हो। ई देखिए हमारे कुर्ते का भी कॉलर गया। फट गया उससे झपट में। वैसे हम उसे पेट में मुक्का मार के हिसाब बराबर किए हैं, पर आपने ठीक न किया गुरु। ब्लॉक्ड कार्ड देकर काहे भेजे थे?' अनूप अपनी शिकायतों के साथ एक सांस में बोल गया।

उजबक थोड़ा और मायूस हो गए, बोले, 'यार हमको कहाँ पता था कि कार्ड ब्लॉक है। चलचित्रों में नायक से झूठ ही कहलवाया गया कि अगर आप किसी से हृदय से प्रेम करें तो समस्त सृष्टि आपकी सहायता करने को तत्पर हो जाती है। हमारे साथ तो इससे विपरीत हो रहा है मित्र। अब हम नियति से कैसे मिलने जा सकेंगे ? पैसों तो न हों तब भी चलेगा किंतु बिना धोती के.... हे प्रभु अब आप ही सुझाइए हम क्या करें ? अरुण भाई भी लकड़ी काटने गए हैं न जाने कब लौटेंगे।' कहकर उजबक वहीं धप्प से बैठ गए।

'अरे फिक्र काहे करते हैं। हम हैं न। आपकी धोती में बस छेद हुए हैं वो भी एक साइड में ही हैं, पूरी जली थोड़े न है। आप खड़े होइए हम आपको पहनाते हैं।' कहकर अनूप ने धोती उठा ली और उजबक को पहनाने लगा। धोती को तेलगु स्टाइल के नाम पर गोल-गोल कमर के चारों ओर लपेट कर अंतिम सिरा भी कमर में खोंस दिया। यद्यपि उजबक को इस स्टाइल की धोती पहनना बिल्कुल अच्छा न लगता था पर मजबूरी क्या न करा दे। परिस्थिति की मांग के अनुसार उन्होंने इसे ही विधि समझ कर स्वीकार लिया। वैसे अनूप ने धोती को इस करीने से लपेटा था कि सारे छेद नाभि के ठीक नीचे दबाए सिलवटों में ही गुम होकर रह गए। सहज देखने पर ज्ञात न होता था कि ये धोती 'हवादार' है।

कुछ पैसे भी अनूप के पास थे, वो सब भी उजबक को सुपुर्द कर दिए। पर दोस्ती यारी अपनी जगह है अनूप भी गुरुकुल वालों की सबसे प्रिय कंडीशन अप्लाई करना नहीं भूला। बोला ,' गुरु हमहु तोहरा साथे चलब।'

उजबक के लिए ये नई दुविधा थी, मासूमियत से बोले 'आप वहाँ क्या करेंगे मित्र? देवी नियति भी आपसे अपरिचित हैं। आपकी उपस्थिति हमारे उनके साथ चलचित्र का सहज आनन्द लेने में बाधक बनेगी न?'

'अच्छा ? और अरुण भैया जाते हैं तब ? उनके साथ तो सब सहज रहते हैं फिर हमारे साथ क्यों नहीं? भाभी परिचित साथ ले जाने से होंगी न कि न ले जाने से। देखिए हम कोई बहाना न सुनेंगे, अगर आप हमको न ले जाएंगे तो हम गुरुजी को सब बताने जा रहे हैं।' कहते कहते अनूप इमोशनल होने लगा।

उजबक पर अनूप के इमोशन्स का तो कोई प्रभाव भले ही न पड़ा था पर गुरुजी को सब बताने की धमकी ने तुरंत अपना प्रभाव दिखाया और वे उसे साथ ले चलने के लिए मन मार कर राजी हो गए।

***

इन्द्रविहार चित्रपट के बाहर नियति और संज्ञा दोनों उजबक के आने की प्रतीक्षा कर रही थी। नियति पारंपरिक शुभ्र श्वेत वस्त्र धारण किए थे वहीं संज्ञा ने आज गुरुकुल के परिवेश के विपरीत ब्लैक जीन्स और मेहरून चेक वाली शर्ट पहनी थी। गुरुकुल में ये सब देखने का अवसर नहीं मिल पाता किंतु गुरूमाता की कुटिया में भोजन की तैयारियों में उनका हाथ बंटाते हुए रेडियो पर कई बार इस चलचित्र के गीत सुनकर इसे देखने की इच्छा होती थी इसीलिए उजबक से उसने 'प्रेम रतन धन पायो' दिखा लाने का आग्रह किया था। वही देखने आज दोनों सखियाँ एक बार फिर गुरूकुल की देहरी लांघ आई थी। उजबक को आने में देर हो रही थी, भीड़ बढ़ती देख नियति के कहने पर संज्ञा 4 टिकेट्स लेने चली गई। शायद उन्हें विश्वास था कि आज भी मैं उजबक के साथ जरूर आऊंगा।

उजबक आज भी हमेशा की तरह अपने तेल चुपड़े बालों और ढेर काजल से कजरारी की आँखों में खूबसूरत लग रहे थे। उन्हें आते देखा तो नियति का प्रतीक्षा से मुरझाया चेहरा खिल उठा। उजबक ने पास आते ही प्रणाम कहा।

 'भक्क, भौजी को प्रणाम तो हम कहेंगे, आप काहे कह रहे हैं? आपके कहने के लिए बहुत कुछ होता है सभी भाषाओं में, कुछ याद न आ रहा हो तो भोजपुरी में कहिए 'हम तोहरा से प्रेम करिना', 'हमके ना मिलबु त जिनगी जहर हो जाई', 'करेजा मुरुक जाइ ए सुग्गा', 'ए खरखुन करेजा के दवाई तुहि बाड़ू', 'आपना अखियन के लोर से हमरा घाव पर मलहम लगा द'.... आप को तो कुछो नहीं आता भैया। और पाँय लागू भौजी, प्रणाम कर रहे हैं दिल से। भैया तो हमको साथे न ला रहे थे हम जबरी आए हैं।' कहकर अनूप ने नियति के चरण स्पर्श किए और खड़े होकर दांत चियार दिए।

नियति के लिए ये भोजपुरी हमला बिल्कुल नई चीज थी उसे कुछ समझ न आया। सिवाय इसके कि वो उसे भौजी यानि भाभी कह रहा है। उसने प्रश्नवाचक मुद्रा में उजबक की ओर देखा तो उजबक ने कहा कि 'ये भी हमारे सहपाठी, हमारे मित्र, हमारे अनुज और हमारे अतिप्रिय हैं। आज अरुण भाई तो गुरु आज्ञा से ईंधन की व्यवस्था करने जंगल गए थे इसलिए हम अनूप को साथ ले आए। आप आज अकेली ही आई हैं ?'

अकेली शब्द सुनते ही नियति को संज्ञा का ख्याल आया जो इस वक़्त  टिकट खिड़की के बाहर कुछ लफंगों से उलझ रही थी। जो लाइन में खड़ी संज्ञा से छेड़छाड़ करने की कोशिश कर रहे थे। उजबक और नियति की बातों और हावभाव से अनूप तुरन्त सब समझ गया। हीरो की एंट्री का टाइम हो गया था। उजबक से बोला ' भैया हम देखते हैं '। पर अनूप के कदम उधर बढाने की ही देर थी कि एक लड़का लगभग उड़ता हुआ धप्प से औंधे मुँह उसके कदमों में आ गिरा। अनूप ने आश्चर्य से प्रश्नवाचक मुद्रा से नजरें उठाई तो देखा संज्ञा रजनीकांत की तरह सब लफंगों को हवा में उड़ाते हुए टिकेट्स लेकर प्रसन्न मुद्रा में उनकी ओर ही आ रही थी। 'बाप रे' सहसा अनूप के मुँह से निकला।

उजबक के साथ मेरी यानि अरुण की जगह अनूप को आया देख संज्ञा को कुछ खास खुशी न हुई। लेकिन अनूप ने उसका हाथ पकड़ कर जबरदस्ती मिला लिया, बोला 'तू त बहुत सुग्घर बाड़ू हो,का मारेलु कसम से।'
 
'मतलब' संज्ञा ने कहा।

'मतलब आप बहुत खूबसूरत हैं और क्या गज्जब फाइट करते हो।' अनूप ने उसका हाथ पकड़े हुए ही कहा।

संज्ञा को ये व्यवहार थोड़ा असहज और अज़ीब करने वाला लगा। पर उजबक के मित्र के लिहाज से वो चुप रही। हाथ छुड़ाकर बोली, 'मुझे हर लफंगे से निपटना अच्छे से आता है।' फिर सबसे एक साथ कहा चलें, फ़िल्म का टाइम कब का हो चुका है।

अंदर फ़िल्म वाकई शुरू हो चुकी थी। पर बहुत भीड़ नहीं थी। मल्टीप्लेक्स सिनेमा में भीड़ किस थिएटर में घुसेगी जल्दी से पता नहीं लगता। उजबक को तेलगु धोती में चलना थोड़ा कठिन लग रहा था इसलिए नियति के साथ कॉर्नर सीट्स पर बैठे गए। जहाँ नियति फ़िल्म और उजबक बस नियति को देख रहे थे। उनसे कुछ सीट्स की दूरी पर संज्ञा और उससे एक सीट छोड़कर अनूप बैठे थे। आशा और अपेक्षा के विपरीत अनूप के चेहरे पर भयानक खामोशी पसरी हुई थी। थोड़ी देर बाद उजबक ने नियति से कहा, 'आप भूने हुए मक्कई के दाने खाएंगी ?'
'जी?' नियति ने उजबक की ओर आश्चर्य से देखा।
'मेरा मतलब पॉपकॉर्न' कहकर कुछ देर तक खुद उजबक और उनका पेट हंसते रहे। नियति भी मुस्कुरा दी।
उजबक उठ कर चलने को हुए अंधेरे में तेलगु धोती सम्भाल न सके लड़खड़ा गए, उन्हें गिरते देख नियति ने पकड़ने की कोशिश तो की पर वो खुद भी उनके साथ लिपटी लुढ़कती हुई नीचे कालीन पर आ गिरी।
नियति उजबक की बाहों में आलिंगनबद्ध थी, उधर सिनेमा में 'सुनते हैं जब प्यार हो तो दिए जल उठते हैं।' गीत की थाप डॉल्बी डिजिटल सराउंडसाउंड सिनेमा में चारों और गूंज रही थी।
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✍️ अरुण

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👯👯👯👯👯 कन्याकुमारी नमो नमः ♠️♠️♠️♠️♠️

कन्या गुरुकुल के भीतर का दृश्य, चारों ओर बहुत हरियाली है और अथाह शांति भी। इस नीरवता को थोड़ी थोड़ी देर में उठ रही कोयलों की कुहुक भंग अवश्य करती है, किंतु अगले ही क्षण पुनः वैसी ही निस्तब्धता छा जाती है। यज्ञशाला से उठते धूम्र की सुगंध मोहक प्रभाव छोड़ रही है। कदाचित वेदाध्ययन का यह समय नहीं है इसलिए वैदिक श्लोक की सम्मिलित टेर किसी दिशा से सुनाई नहीं पड़ती। एक कक्ष में कुछ वरिष्ठ साध्वियाँ कुछ पांडुलिपियों के साथ अध्ययन, मनन तथा चिंतन में व्यस्त नजर आती हैं, वहीं एक ओर कुछ किशोर बालिकाएँ तलवार और ढाल थामे एक दूसरे की शक्ति की थाह लेते हुए छका रही हैं, तो कुछ निहत्थी ही कलारिपट्टू के दांवपेंचों के परीक्षण रही हैं। संज्ञा वहीं पास ही खड़ी उन्हें अभ्यास करवा रही है। कुछ बहुत छोटी छोटी बच्चियाँ खेल खेल में बीच में आकर अभ्यास में व्यवधान डाल रही। संज्ञा के डांटने पर उन्होंने खिलखिलाकर किलकारियां मारते हुए दौड़ लगा दी। संज्ञा उनके पीछे भागी, लड़कियाँ दौड़ कर आगे निकल गई पर संज्ञा कन्या छात्रावास के दरवाजे के पास ठिठक कर रुक गई। नियति जमीन पर बिछी तृणशैया पर दरवाजे की तरफ पीठ करके लेटी है। पास ही कोई पुस्तक रखी है जिसमें 'पीतवर्णी गुलाब' रखा है। चुपके चुपके उसी गुलाब को निहारा जा रहा है।

'ओहो तो आप यहाँ व्यस्त हैं राजकुमारी जी, अभ्यास में क्यों नहीं आईं? हम्म" संज्ञा ने नियति पर लगभग गिरते हुए कहा।

'वो वो वो मेरा मन कुछ स्वस्थ नहीं था, और तुम्हें तो विदित ही है कि ये लड़ना भिड़ना मेरी रुचि का विषय नहीं है। मुझे मेरी पुस्तकों में ही आनंद आता है।' नियति ने धीमे स्वर में कहा।

'जरा देखूँ तो' कहकर संज्ञा ने किताब छीन ली, 'ऐसी पुस्तकें पढ़ कर तो मन अस्वस्थ ही होगा न, कहाँ से लाई? पुस्तकालय की तो लगती ये। व्हेन लव हैपन्स? तुम अंग्रेजी कब से पढ़ने लगी ?' किताब उलटते पलटते संज्ञा ने कहा।

'इस शीर्षक ही में तुम्हारे प्रश्न का उत्तर भी छुपा है। 'व्हेन लव हैपन्स'।' नियति के नेत्र अभी भी भूमि की ओर थे।

'अच्छा तो ये बात है। तब ये किताब जरूर हमारे होने वाले जीजाश्री उजबक देव महाराज जी ने ही दी होगी, है न?' संज्ञा के चेहरे पर शरारती मुस्कान तैर रही थी।

'हाँ उन्होंने ही भिजवाई है, पर पहुंचाने के लिए हनुमान बन कर 'तुम्हारा अरुण' आया था।' नियति ने संज्ञा को छेड़ा।

'मेरा अरुण? माय फुट। मैंने उसके साथ पकौड़े खा लिए तो वो मेरा हो गया? तू भी न, कुछ भी बोलती है।' संज्ञा ने लगभग खीझते हुए कहा।

'अच्छा ठीक है, तो ये परफ्यूम मैं ही रख लेती हूँ। तुम उसे अपना नहीं मानती न सही पर मैं तो उसकी भाभीसा हूँ ही। आहा हा हा कितने प्यार से बोला था कि भाभीसा ये परफ्यूम और ये पत्र 'मेरी संज्ञा' को दे दीजिएगा। पर सकल पदार्थ है जग माहीं, कर्महीन नर पावत नाहीं। अब इस पत्र का क्या करूँ? चलो वापस ही कर दूंगी। ठीक है। लेकिन एक बार पढ़ कर तो देखूँ ..' कहकर नियति पत्र पढ़ने को हुई।

पर संज्ञा उसके हाथ से पत्र छीन कर बाहर उद्यान की ओर भाग गई। वाटिका में पुष्पों की बीच छुपी संज्ञा स्वयं भी एक गुलाब  ही प्रतीत होती थी। दौड़ने से तेज़ हुई साँसों के साथ उठते गिरते यौवनाभूषणों से किसी समुद्र का सा आभास होता था। जो स्वयं अपने ही ज्वार-भाटे में उलझा जा रहा था। ये बुरी सी लिखावट वही थी जिससे नियति को उजबक के नाम से पत्र आते थे। पर आज वही बुरी लिखावट बुरी मालूम न होती थी। हर शब्द पढ़ने के साथ संज्ञा के चेहरे की गुलाबी रंगत में मीठी सी मुस्कान घुलती चली गई।

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✍️ अरुण

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🤠🤠🤠🤠🤠 बड़े बाबू ♠️♠️♠️♠️♠️


आज बाजार जाते समय बड़े बाबू मिल गए। यूँ उनका मिलना कोई विशेष घटना नहीं है। वो तो मिल ही जाते हैं बहुत बार, और मैं हर बार प्रयास करता हूँ उनसे बिना मिले बच निकलने का। मैं ही नहीं हर कोई करता है। जो भी उन्हें जानता है, वो ये भी जानता है कि इनके मिलने का मतलब घण्टों इनकी बातें सुनने में होम कर देना। आप बीच से निकल कर भाग नहीं सकते। ये अपने एक पांव से आपका पांव पर धीरे से कब दाब लेंगे ये आपको तब पता लगेगा जब आप वहाँ से निकलने की चेष्टा करेंगे और पाएंगे कि वो 'सुनिए तो' कहते हुए आपका एक हाथ भी अपने दोनों हाथों में दाब चुके हैं। मुझे इस दबाव को सहने का अच्छा खासा प्रशिक्षण स्वयं उन्हीं से मिल चुका है। आश्चर्य होता था कि कोई व्यक्ति इतनी स्पीड से कैसे बोल लेता है।

पिछली बार जब मिले थे तो उनकी नॉन स्टॉप बातें चुनावों में किसी की साज़िश के तहत लगाई गई उनकी ड्यूटी लगवाने और उसके बाद उसे कटवाने के उनके भागीरथी प्रयासों पर केंद्रित थी। जिसका मोटा मोटा मजमून ये था कि किसी ने चुनावों में उनकी ड्यूटी लगा दी, हाँ जी साजिश करके ही लगाई क्योंकि शूगर पेशेंट की ड्यूटी लगाने से तो सुप्रीम कोर्ट ने भी मना कर रख रखा है। लगाने वालों को तो खैर भगवान देखेंगे ही साथ ही साथ उन्हें भी देखेंगे जिन्होंने डॉ. की पर्ची देख कर भी ड्यूटी नहीं काटी। कलयुग है न। काम कर के कोई राजी ही नहीं है। यूँ हर विभाग में उनका कोई न कोई साला किसी बड़े पद पर है, पर इस बार किसी ने उनकी न सुनी। जाना ही पड़ा उन्हें इलेक्शन ड्यूटी में, इतनी भारी परेशानी के होते हुए भी। ठीक इलेक्शन वाले दिन तय समय और वार पर उन्हें दिल का दौरा पड़ा। सबके हाथ पांव फूल गए थे जी। खुद इलेक्शन कमीशन अपनी बोलेरो में वापस घर छोड़ कर गया। पहले ही कहा था कि मत लगाओ ड्यूटी, लगा दी है तो काट दो, अब भुगतो। पूरा विवरण मैंने संक्षिप्त में बताया है उन्होंने 'सुनिए तो-सुनिए तो' के योजक लगा कर पूरे डेढ़ घण्टे में सुनाया था।

वैसे जब ये हमारे स्कूल में पोस्टेड थे तब ऐसी कोई दिक्कत नहीं होती थी। बड़े बाबू 11 बजे थके मांदे स्कूल आते, कहते सर्वर काम न कर रहा आज भी बिल नहीं बना दोपहर बाद फिर से जाना पड़ेगा। बकौल बड़े बाबू स्कूल हो या कोई भी ऑफिस वहाँ का इकलौता और सबसे महत्त्वपूर्ण काम बिल बनवाना ही होता है। उन्हें कम्प्यूटर पर काम करना नहीं आता, इसलिए सब ऑनलाइन बिल बाहर से बनते थे और जिनका सर्वर बड़े बाबू से पूछ कर ही एक्टिव होता। इनकी कर्मठता में कहीं कोई कमी न थी दोपहर बाद फिर से कोशिश करने के लिए वो 12 बजे से कुछ पहले ही निकल जाते, अगले दिन 11 बजे लौट आने के लिए। जब बिल बन जाते तो उन्हें तैयार करने में बहुत समय लगता। हमें बताया जाता कि पचास जगह रजिस्टर में लिखना पड़ता है तब वेतन मिलता है मास्टर जी। आपकी तरह केवल बातें करके काम नहीं चलता। बहुत सारी कलम और ढेरों चप्पल घिसनी पड़ती है तब जाकर सबको वेतन मिल पाता है। इसके साथ वो ये भी जोड़ देते कि देश और सरकारें सिर्फ बाबू लोगों की कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी के कारण ही चल रहे हैं, वरना इन नेताओं को कहाँ कुछ आता है। जब बिल बन जाते तो उन्हें जमा करवाने में कई दिन खर्च होते। जिस दिन बिल जमा होते उस दिन थकान उनके चेहरे ही नहीं पूरे व्यक्तित्व से टपकती मालूम होती। जिसे दूर करने के लिए छुट्टी न देना किसी कार्यालयाध्यक्ष के वश में न होता। क्योंकि फिर उनके जीवन के अगले पीछे सभी दुःखों की कहानी शुरू होती जिसमें सभी दोषों के लिए कार्यालयाध्यक्ष को उत्तरदायी सिद्ध कर दिया जाता। और इतनी ग्लानि झेलना कम से कम किसी मनुष्य के लिए तो संभव नहीं।

हम उन्हें बड़े बाबू कहते थे, उनके प्रोमोशन से पहले से ही। जाने क्यों और कैसे पर एक दिन प्रोमोशन हो भी गया और वो सचमुच बड़े बाबू बन गए। उनके प्रोमोशन का सबसे ज्यादा दुःख उन्हीं को हुआ। एक तो इतनी पास से 15 किमी. दूर पोस्टिंग हो गई, दूसरे वहाँ बिल बनाने के अलावा भी बहुत काम होते थे। कम्प्यूटर स्कूल ही में लगा था, और जिसका सर्वर अधिकतर खराब होने से इंकार कर देता। बड़े बाबू को ये बातें पसन्द नहीं। वेतन में भी कोई विशेष बढ़ोतरी न रही थीं। पर फिर किसी ने जाने क्या समझाया कि प्रोमोशन स्वीकार कर लिया। फिर एक दिन मिले तो कहने लगे यहाँ जैसा कोऑपरेटिव स्टाफ वहाँ नहीं है। इतना काम करते हैं पर कोई गुण-अहसान नहीं मानता। न माने भगवान तो देख ही रहे हैं, पर वो बाबू ही क्या जो काबू आ जाए। शहर में एसडीएम ऑफिस में ही प्रतिनियुक्त हो गए। कहने लगे छोटे बाबू बहुत कामचोर होते हैं। पर उन्हें सबसे काम करवाना आता है। एसडीएम तो उन्हीं के नाम की माला जपते रहते हैं। ऊपर से माल भी बरसने लगा है। सब बढ़िया है। फिर एक दिन अपने एपीओ होने और बहाल होने की कहानी 'सुनिए तो' कह कर जबरदस्ती सुनाई। सिद्ध किया कि साँच को आँच नहीं होती। लोग बड़े बाबू के रुतबे से अधिक उनकी बातों से डरते हैं। लेकिन उन्हें जितना कोई दबाने की कोशिश करता है वो खुद उतना ही निखर कर सामने आते हैं, ये बात उन्होंने उसी तरह दबाते हुए मुझसे कही थी।

मैं भी उनसे, उनकी बातों से, डरता ही हूँ। आज भी निकल जाना चाहता था। देखा तो वो थोड़ा लंगड़ाते से चल रहे थे। लगा वो कुछ परेशानी में हैं। मुझे देखा तो अरे ! अरे ! अरे ! कहते हुए गले पड़े, मेरा मतलब मिले। फिर हाथ और पांव दाब कर खड़े हो गए। मैंने उनसे उनके लंगड़ाने का कारण पूछा तो कहने लगे, 'दीवाली का बोनस जमा हो गया ? हमारा तो हो गया। तनख्वाह के मामले में उनके स्टाफ को कभी कोई समस्या आती ही नहीं। आज पटाखे लेने आए हैं। बच्चे जिद करते हैं न, वरना वो तो इसे सिवाय बर्बादी के कुछ न समझते। आजकल बिना लाइसेंस के पटाखे भी न बेच सकते, वरना उनका भी विचार था बहती गंगा में हाथ धोने का। कोई पटाखों की दुकान वाला परिचित मिला ही नहीं, पर उनके साले से फोन पर बात करवा दी तो सीधा 70% डिस्काउंट पर माल मिल गया। मिठाई तो लेनी ही नहीं चाहिए। कल टीवी पर दिखा रहे थे मावे में गोबर तक मिला देते हैं। गोबर का ध्यान आते ही उन्होंने थोड़ा नीचे देखा। फिर शुरू हो गए। आप के यहाँ तो सब घर ही पर बनता है न ? आपकी भाभी जी को लेकर आऊंगा कल , राम राम भी हो जाएगी और कुछ अच्छा बनाना भी सीख लेगी। '
मैं उस घड़ी को कोस रहा था जब मुझे उनके लंगड़ाने के विचार पर उनसे सहानुभूति हुई थी, फिर पूछा आप स्वस्थ तो हैं? अभी लंगड़ा क्यों रहे थे ? वो फिर शुरू हो गए, कहने लगे , 'अरे! सुनिए तो, इस बार भाजपा की पार पड़ती नहीं लग रही मुझे तो, जनता खिलाफ है। सड़के टूटी पड़ी हैं, पशुओं ने सड़कों को गटर बना रखा। स्कूल टाइम बढ़कर सारे मास्टर तो खिलाफ कर लिए और वेतन काट कर सारे बाबू। सरकार तो बाबू ही चलाते हैं उनसे दुश्मनी तो मगरमच्छ टाइप की दुश्मनी लेना हो गया। ये सरकार तो गई। अच्छा आप की ड्यूटी तो लगी ही होगी, ध्यान रखना चुड़ैल का। जीत न जाए। मेरी इस बार ड्यूटी न लगी, बीमार आदमी की ड्यूटी न लगनी चाहिए आयोग को समझ आ गया है, हें हें हें। और उनकी ड्यूटी कोई लगाता भी कैसे, साला ही तो है एसडीएम। जीजाजी की ड्यूटी लगा कि मरना है उसको। हम तो लगाने वालों में से हैं। आपको ड्यूटी कटवानी हो तो बताओ, सस्ते में कटवा देंगे। '

मुझे देर हो रही थी, घर पर लक्ष्मी पूजन के लिए सब इंतज़ार कर रहे होंगे। उनसे कहा कि आप अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखिएगा। मुझे जल्दी निकलना है। उन्होंने फिर से सुनिएगा कहा, तो मैने कहा कि कल आराम से सुनूंगा आप तो आ ही रहे हैं न। कह कर फटाफट हाथ छुड़ा कर निकल गया। थोड़ी देर में ही बड़े बाबू के लंगड़ाने का रहस्य पता लग गया। पांव दबाते हुए अपने पांव का गोबर वो मेरे जूतों पर रगड़ कर चले गए थे।

#जयश्रीकृष्ण

✍️ अरुण

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🎪🎪🎪🎪 तिरुशनार्थी ♠️♠️♠️♠️

एक बार एग्जाम के लिए तिरुपति गया था। घरवाले बोले जा ही रहे हो तो लगे हाथ बालाजी से भी मिल आना। मुझे भी लगा कि विचार बुरा नहीं है। रास्ते म...