आज बाजार जाते समय बड़े बाबू मिल गए। यूँ उनका मिलना कोई विशेष घटना नहीं है। वो तो मिल ही जाते हैं बहुत बार, और मैं हर बार प्रयास करता हूँ उनसे बिना मिले बच निकलने का। मैं ही नहीं हर कोई करता है। जो भी उन्हें जानता है, वो ये भी जानता है कि इनके मिलने का मतलब घण्टों इनकी बातें सुनने में होम कर देना। आप बीच से निकल कर भाग नहीं सकते। ये अपने एक पांव से आपका पांव पर धीरे से कब दाब लेंगे ये आपको तब पता लगेगा जब आप वहाँ से निकलने की चेष्टा करेंगे और पाएंगे कि वो 'सुनिए तो' कहते हुए आपका एक हाथ भी अपने दोनों हाथों में दाब चुके हैं। मुझे इस दबाव को सहने का अच्छा खासा प्रशिक्षण स्वयं उन्हीं से मिल चुका है। आश्चर्य होता था कि कोई व्यक्ति इतनी स्पीड से कैसे बोल लेता है।
पिछली बार जब मिले थे तो उनकी नॉन स्टॉप बातें चुनावों में किसी की साज़िश के तहत लगाई गई उनकी ड्यूटी लगवाने और उसके बाद उसे कटवाने के उनके भागीरथी प्रयासों पर केंद्रित थी। जिसका मोटा मोटा मजमून ये था कि किसी ने चुनावों में उनकी ड्यूटी लगा दी, हाँ जी साजिश करके ही लगाई क्योंकि शूगर पेशेंट की ड्यूटी लगाने से तो सुप्रीम कोर्ट ने भी मना कर रख रखा है। लगाने वालों को तो खैर भगवान देखेंगे ही साथ ही साथ उन्हें भी देखेंगे जिन्होंने डॉ. की पर्ची देख कर भी ड्यूटी नहीं काटी। कलयुग है न। काम कर के कोई राजी ही नहीं है। यूँ हर विभाग में उनका कोई न कोई साला किसी बड़े पद पर है, पर इस बार किसी ने उनकी न सुनी। जाना ही पड़ा उन्हें इलेक्शन ड्यूटी में, इतनी भारी परेशानी के होते हुए भी। ठीक इलेक्शन वाले दिन तय समय और वार पर उन्हें दिल का दौरा पड़ा। सबके हाथ पांव फूल गए थे जी। खुद इलेक्शन कमीशन अपनी बोलेरो में वापस घर छोड़ कर गया। पहले ही कहा था कि मत लगाओ ड्यूटी, लगा दी है तो काट दो, अब भुगतो। पूरा विवरण मैंने संक्षिप्त में बताया है उन्होंने 'सुनिए तो-सुनिए तो' के योजक लगा कर पूरे डेढ़ घण्टे में सुनाया था।
वैसे जब ये हमारे स्कूल में पोस्टेड थे तब ऐसी कोई दिक्कत नहीं होती थी। बड़े बाबू 11 बजे थके मांदे स्कूल आते, कहते सर्वर काम न कर रहा आज भी बिल नहीं बना दोपहर बाद फिर से जाना पड़ेगा। बकौल बड़े बाबू स्कूल हो या कोई भी ऑफिस वहाँ का इकलौता और सबसे महत्त्वपूर्ण काम बिल बनवाना ही होता है। उन्हें कम्प्यूटर पर काम करना नहीं आता, इसलिए सब ऑनलाइन बिल बाहर से बनते थे और जिनका सर्वर बड़े बाबू से पूछ कर ही एक्टिव होता। इनकी कर्मठता में कहीं कोई कमी न थी दोपहर बाद फिर से कोशिश करने के लिए वो 12 बजे से कुछ पहले ही निकल जाते, अगले दिन 11 बजे लौट आने के लिए। जब बिल बन जाते तो उन्हें तैयार करने में बहुत समय लगता। हमें बताया जाता कि पचास जगह रजिस्टर में लिखना पड़ता है तब वेतन मिलता है मास्टर जी। आपकी तरह केवल बातें करके काम नहीं चलता। बहुत सारी कलम और ढेरों चप्पल घिसनी पड़ती है तब जाकर सबको वेतन मिल पाता है। इसके साथ वो ये भी जोड़ देते कि देश और सरकारें सिर्फ बाबू लोगों की कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी के कारण ही चल रहे हैं, वरना इन नेताओं को कहाँ कुछ आता है। जब बिल बन जाते तो उन्हें जमा करवाने में कई दिन खर्च होते। जिस दिन बिल जमा होते उस दिन थकान उनके चेहरे ही नहीं पूरे व्यक्तित्व से टपकती मालूम होती। जिसे दूर करने के लिए छुट्टी न देना किसी कार्यालयाध्यक्ष के वश में न होता। क्योंकि फिर उनके जीवन के अगले पीछे सभी दुःखों की कहानी शुरू होती जिसमें सभी दोषों के लिए कार्यालयाध्यक्ष को उत्तरदायी सिद्ध कर दिया जाता। और इतनी ग्लानि झेलना कम से कम किसी मनुष्य के लिए तो संभव नहीं।
हम उन्हें बड़े बाबू कहते थे, उनके प्रोमोशन से पहले से ही। जाने क्यों और कैसे पर एक दिन प्रोमोशन हो भी गया और वो सचमुच बड़े बाबू बन गए। उनके प्रोमोशन का सबसे ज्यादा दुःख उन्हीं को हुआ। एक तो इतनी पास से 15 किमी. दूर पोस्टिंग हो गई, दूसरे वहाँ बिल बनाने के अलावा भी बहुत काम होते थे। कम्प्यूटर स्कूल ही में लगा था, और जिसका सर्वर अधिकतर खराब होने से इंकार कर देता। बड़े बाबू को ये बातें पसन्द नहीं। वेतन में भी कोई विशेष बढ़ोतरी न रही थीं। पर फिर किसी ने जाने क्या समझाया कि प्रोमोशन स्वीकार कर लिया। फिर एक दिन मिले तो कहने लगे यहाँ जैसा कोऑपरेटिव स्टाफ वहाँ नहीं है। इतना काम करते हैं पर कोई गुण-अहसान नहीं मानता। न माने भगवान तो देख ही रहे हैं, पर वो बाबू ही क्या जो काबू आ जाए। शहर में एसडीएम ऑफिस में ही प्रतिनियुक्त हो गए। कहने लगे छोटे बाबू बहुत कामचोर होते हैं। पर उन्हें सबसे काम करवाना आता है। एसडीएम तो उन्हीं के नाम की माला जपते रहते हैं। ऊपर से माल भी बरसने लगा है। सब बढ़िया है। फिर एक दिन अपने एपीओ होने और बहाल होने की कहानी 'सुनिए तो' कह कर जबरदस्ती सुनाई। सिद्ध किया कि साँच को आँच नहीं होती। लोग बड़े बाबू के रुतबे से अधिक उनकी बातों से डरते हैं। लेकिन उन्हें जितना कोई दबाने की कोशिश करता है वो खुद उतना ही निखर कर सामने आते हैं, ये बात उन्होंने उसी तरह दबाते हुए मुझसे कही थी।
मैं भी उनसे, उनकी बातों से, डरता ही हूँ। आज भी निकल जाना चाहता था। देखा तो वो थोड़ा लंगड़ाते से चल रहे थे। लगा वो कुछ परेशानी में हैं। मुझे देखा तो अरे ! अरे ! अरे ! कहते हुए गले पड़े, मेरा मतलब मिले। फिर हाथ और पांव दाब कर खड़े हो गए। मैंने उनसे उनके लंगड़ाने का कारण पूछा तो कहने लगे, 'दीवाली का बोनस जमा हो गया ? हमारा तो हो गया। तनख्वाह के मामले में उनके स्टाफ को कभी कोई समस्या आती ही नहीं। आज पटाखे लेने आए हैं। बच्चे जिद करते हैं न, वरना वो तो इसे सिवाय बर्बादी के कुछ न समझते। आजकल बिना लाइसेंस के पटाखे भी न बेच सकते, वरना उनका भी विचार था बहती गंगा में हाथ धोने का। कोई पटाखों की दुकान वाला परिचित मिला ही नहीं, पर उनके साले से फोन पर बात करवा दी तो सीधा 70% डिस्काउंट पर माल मिल गया। मिठाई तो लेनी ही नहीं चाहिए। कल टीवी पर दिखा रहे थे मावे में गोबर तक मिला देते हैं। गोबर का ध्यान आते ही उन्होंने थोड़ा नीचे देखा। फिर शुरू हो गए। आप के यहाँ तो सब घर ही पर बनता है न ? आपकी भाभी जी को लेकर आऊंगा कल , राम राम भी हो जाएगी और कुछ अच्छा बनाना भी सीख लेगी। '
मैं उस घड़ी को कोस रहा था जब मुझे उनके लंगड़ाने के विचार पर उनसे सहानुभूति हुई थी, फिर पूछा आप स्वस्थ तो हैं? अभी लंगड़ा क्यों रहे थे ? वो फिर शुरू हो गए, कहने लगे , 'अरे! सुनिए तो, इस बार भाजपा की पार पड़ती नहीं लग रही मुझे तो, जनता खिलाफ है। सड़के टूटी पड़ी हैं, पशुओं ने सड़कों को गटर बना रखा। स्कूल टाइम बढ़कर सारे मास्टर तो खिलाफ कर लिए और वेतन काट कर सारे बाबू। सरकार तो बाबू ही चलाते हैं उनसे दुश्मनी तो मगरमच्छ टाइप की दुश्मनी लेना हो गया। ये सरकार तो गई। अच्छा आप की ड्यूटी तो लगी ही होगी, ध्यान रखना चुड़ैल का। जीत न जाए। मेरी इस बार ड्यूटी न लगी, बीमार आदमी की ड्यूटी न लगनी चाहिए आयोग को समझ आ गया है, हें हें हें। और उनकी ड्यूटी कोई लगाता भी कैसे, साला ही तो है एसडीएम। जीजाजी की ड्यूटी लगा कि मरना है उसको। हम तो लगाने वालों में से हैं। आपको ड्यूटी कटवानी हो तो बताओ, सस्ते में कटवा देंगे। '
मुझे देर हो रही थी, घर पर लक्ष्मी पूजन के लिए सब इंतज़ार कर रहे होंगे। उनसे कहा कि आप अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखिएगा। मुझे जल्दी निकलना है। उन्होंने फिर से सुनिएगा कहा, तो मैने कहा कि कल आराम से सुनूंगा आप तो आ ही रहे हैं न। कह कर फटाफट हाथ छुड़ा कर निकल गया। थोड़ी देर में ही बड़े बाबू के लंगड़ाने का रहस्य पता लग गया। पांव दबाते हुए अपने पांव का गोबर वो मेरे जूतों पर रगड़ कर चले गए थे।
#जयश्रीकृष्ण
✍️ अरुण
Rajpurohit-arun.blogspot.com
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