🤕🤒🍺🥂🥃👩 अनुपम व्यथा ♠️♠️♠️♠️♠️

अ..जी..त भै..या, ये ह..मारे सा..थ ई क्यों होता है? क्या ह..म  इत..ने बुरे हैं? अनूप लड़खड़ाती वाणी में बोल रहा था। अचानक उसने अपने हाथ से ताड़ी के आधे भरे कुल्हड़ को जमीन पर दे मारा और जोर से चिल्लाते हुए भावुक हो कर गाने लगा, 'क्या इत..ना  बु.. रा  हूँ मैं माँ? क्या इ..तना  बु...रआआ  मे..री  माँ !!!? पररर मैं क्क क्या कारूँ माँ? जब्ब जब्ब आ.वे य्याद जिया में, ई मनवा तड़पेला, केहू  स..जनी के देश, कस..हु  लेज्जा ई सन्देश, लौट के आवेला, जब्ब जब्ब आवे याद ....'

नशे में अनूप के कदम उसकी वाणी की ही तरह लड़खड़ा रहे थे और अजीत उसे संभालने की कोशिश कर रहा था। अनूप कभी कोई नशा नहीं करता पर आज इसने जीभर कर ताड़ी पी थी, अजीत के रोकने पर भी न रुका। अब अजीत को गुस्सा आ रहा था।

पर गुस्से को नियंत्रित करते हुए कहा, 'यार तुझे हुआ क्या है ? कब से पूछ रहे हैं । कुछ बताते भी नहीं हो। और ये सब क्या है, लोग देख रहे हैं यार ।' कहकर अजीत ने चारों ओर दृष्टि घुमा डाली।

गहरा नारंगी सूर्य दूर क्षितिज में दिन भर की गर्मी से त्रस्त होकर अब समंदर के पीछे कहीं छुपने का स्थान तलाशने लगा है। समंदर पर बिछी नारंगी किरणें किसी नायिका के आंचल का सा आभास दे रही है। कुछ अर्द्धनग्न लोग, जिनमें बहुत-सी कन्याएँ भी हैं, किनारे की गीली जमीन पर सीधी टांगे फैलाए हाथों को कमर से पीछे टिकाकर बैठे सूर्यास्त के इन दृश्यों में आनन्द खोज रहे हैं। तो कुछ इन दृश्यों को अपने महंगे कैमरे में सदा के लिए अमर कर देने की कवायद में जुटे हैं। कुछ मुग्धा नायिकाएँ एक अंगोछे जैसे वस्त्र को कमर पर तिरछा लपेटे समस्त जगत को भुला कर अन्य किसी की परवाह न करते हुए स्वयं अपने अपने प्रिय से लिपट चिपट कर यहाँ वहाँ घूम रही। वहीं पास में कुछ पावभाजी के ठेले लगे हैं। प्रत्येक ठेले पर बड़े-से तवे पर भाजी को बार-बार उलट-पलट कर लिटाया जा रहा था, उसकी सींसीं की कराहों से उठती खुशबू से बंधे कुछ लोग वही छोटे स्टूलों पर बैठ कर पावभाजी खाने का लुत्फ उठा रहे हैं। कुछ भिखमंगे बालक खाने वालों की प्लेट को कातर होकर ताक रहे हैं। सब बहुत व्यस्त नजर आते हैं।

 'लगता तो नहीं कि किसी को अनूप से विशेष फर्क पड़ेगा।' अजीत ने सोचा। पर तभी अनूप वही गिर कर बेहोश हो गया।  गुस्से में अजीत ने उसे कंधे पर बेताल की तरह लादा और समंदर के नमकीन ठंडे पानी मे ले जाकर गुस्से से पटक दिया। कुछ लोग दौड़ कर आए, पर अजीत ने हाथ के इशारे से उन्हें दूर रहने को कहा। पानी में गिरते ही अनूप को हड़बड़ाकर होश आ गया। अजीत ने फिर गर्दन से पकड़ कर पानी में घुसेड़ दिया। कुछेक सेकंड के बाद बाहर निकाला तो अनूप रोते हुए कहने लगा, 'हाँ भैया, म्मार ही डा..लिए हमको। हम मरना ही चाहते हैं।' मरने की बात सुनकर अजीत को और गुस्सा आ गया। उसने अनूप झिंझोड़ कर पानी से बाहर निकाला और कस्स के एक चांटा रसीद कर दिया। अनूप का नशा हवा हो गया। वहीं किनारे पर घुटनो के बल चुपचाप बैठ गया। आँखों से टपटप आँसू गिरने लगे। किंतु अजीत अब दया के मूड में बिल्कुल नहीं था, कॉलर पकड़ के उठाया और कहा, 'अब बोलते हो कि दूसरे कान पर भी धर दें ? देख मरदे ये लच्छन ठीक नहीं तुम्हारे। गुरुकुल के विद्यार्थी होकर ये सब शोभा देता है तुमको ?'

'तो और का क्या करें भैया? कोई हमसे प्रेम क्यों न करती भैया ? हमको तो जैसे नागफनी के कांटे लगे हैं। किसी भी लईकी से पूछिए उसे कैसा लड़का चाहिए, कहने को वो यही कहेगी की बस चरित्र..वान हो, गुण...वान हो, कहेंगी रंग रूप अस्थायी सुंदरता है, मन से सुंदर हो ऐसा वर चाहिए। हममें क्या कमी है ? क्या गुरुदेव ने हमारे रूप में किसी चरित्रहीन, गुणहीन और पापी का चयन किया है? मन की सुंदरता की बात करती हैं, पर कभी किसी ने हमारे भीतर झांक कर भी देखा ? नारी मन को तो कोमलता का पर्याय कहते हैं न भैया, पर ये बहुत कठोर होती हैं। भगवान कृष्ण कुब्जा में  सौंदर्य का दर्शन करते है, जानते हैं क्यों? क्योंकि वे पुरुष हैं। कभी देखा किसी रूपवती को किसी कुरूप से प्रेम करते देखा ? सुना भी न होगा। वो संज्ञा भी खुद को न जाने क्या समझती है। हमको अनूप भैया बोल दिहिस। बताइए। अरुण भैया को तो कभी भैया न बोली। क्या वो नहीं जानती कि हम उससे प्रेम.....' अनूप अपनी रौ में बस कहता जा रहा था कि अजीत ने उसके मुँह पर हाथ रख दिया।

'चुप बे मरदे, कुछ भी बोल रहे हो ? किसने कहा कि तुम चरित्रवान या गुणवान नहीं ? पर उसके लिए जिस कन्या को तुम चाहो वो अपना हृदय तुम्हारे चरणों मे रख कर तुम्हें प्रेमार्पण कर ही दे ये किस शास्त्र में लिखा है ? प्रेम तो नितांत व्यक्तिगत अनुभूति है इस पर किस का वश ? कल को बहुत सी कन्याएँ तुमसे ऐसी ही अपेक्षा करे तो क्या कहोगे उन सब से ? क्या सबकी अपेक्षा पूर्ण करने का पाप कर सकोगे ?  स्त्री सौंदर्य के प्रति आकर्षण पुरुष मन का नैसर्गिक गुण है। स्त्रियों को ढ़ेरों प्रेम प्रस्ताव झेलने पड़ते हैं। यदि तुम चाहते हो कि तुम्हारी इच्छा का सम्मान हो तो दूसरों की इच्छाओं का भी सम्मान करो न। तुम कृष्ण का उदाहरण दे रहे थे, वे तो युगपुरुष थे, साक्षात भगवान श्रीहरि विष्णु के अवतार। तुम कितने ऐसे पुरुषों को जानते हो जो स्वेच्छा से कुरूप कन्या का वरण करने को तैयार होंगे? अगर कोई ध्यान में न आ रहा तो किसी कन्या से ऐसी अपेक्षा क्यों करते हो ? तुम्हे पौराणिक बातें तो याद रहती हैं पर वर्तमान में ही नियति भाभीश्री का उदाहरण क्यों भूल जाते हो ?  क्या सौंदर्य की दृष्टि से उजबक उनकी किसी भी रूप में समता कर सकेंगे ? किंतु क्या तब भी वे उनसे असीम प्रेम नहीं करती ? और संज्ञा हो या कोई और, किसी से भी तुम अथाह प्रेम कर तो सकते हो किंतु बलात् किसी से प्रेम का कण भी पा नहीं सकते, समझे ?' अजीत ने थोड़ा रोष से कहा।

अनूप बस सुबक रहा था, नजरें नीची किए ही बोला 'हमें क्षमा कर दीजिए भैया, अपराधी जैसा अनुभव हो रहा है।'

'हूँ, पर तुम केवल एक ही अवस्था में क्षमादान पा सकते हो, बस चार प्लेट पावभाजी खिला दो। हाहाहा सच्ची बड़ी भूख लग रही यार।' अजीत ने चेहरे पर शरारती मुस्कान लाते हुए कहा।

अनूप अपनी आँखें पोंछ रहा था, अजीत की बात सुनकर उसके चेहरे पर भी मुस्कान तैर गई। अजीत ने अनूप को कंधे से पकड़ा और कहा, 'चल न यार। देख वो पावभाजी कब से पुकार रही। आओ खा लो हमको, आओ खा लो हमको। मुझसे उसकी करुण पुकार अब और नहीं सुनी जाती। हाहाहा।'

लगभग सभी स्टूल बुक थे, एक ओर कुछ स्टूल खाली दिखे। अजीत और अनूप वहाँ बैठ कर पावभाजी खाने लगे। उनके खाते-खाते अच्छी खासी भीड़ हो गई। कुछ लोग खड़े भी थे। दो यज्ञोपवीत और चंदन तिलकधारी विद्यार्थियों को इस तरह पावभाजी खाते देख कर कुछ कन्याएँ वहीं कुछ दूर खड़ी पावभाजी खाते हुए उन दोनों की ओर संकेत करते हुए आपस में ठिठोली कर रही थी। अजीत गुस्से में खड़ा हुआ उनके पास जाकर तुनक कर बोला, 'कहिए क्या समस्या है?' अनूप दौड़ कर उसके पीछे चला आया। बोला, 'छोड़िए न भैया, चलिए आप...'

'ल सानु की समस्या होनी आ महाराज, तुस्सी थोड़ा हिसाब नाळ खायो, तिखा बोत है एस्च कित्थे धोती ना खराब कर लवो' एक कन्या अजीत की आवाज सुनकर पलटी और हंसते हंसते बोली।

'देखिए हमको पंजाबी बोलना नहीं आता पर समझ मे सब आता है। हम तो बिना डकार लिए लकड़ी का बुरादा भी पचा जाएं, आप अपने काम से मतलब रखिए। ' अजीत ने क्रोधित स्वर में कहा।

'ल महाराज, तुस्सी तां बुरा मन्नगे। एदां थोड़ी ना हुँदा आ। खैर एक गल्ल पूछणी सी। पर की पूछिए तुस्सी तां बोत गुस्से च हों ' कन्या ने हंसते-हंसते कहा फिर अनूप की ओर मुखातिब होकर बोली, 'चलो तुस्सी ही दस दओ, केड़े सीरियल चों भज्ज के आए हों महाराज ?' फिर जोर से अपनी सखी के हाथों पर ताली देकर हंसने लगी।

अनूप ने देखा तो लगा साक्षात अप्सरा जमीन पर उतर आई है। पाँव में जड़ाऊ मोजड़ी, हल्के हरे रंग की सलवार और गहरे पीले रंग के कुर्ते में, जिसमें बड़ी-बड़ी आसमानी लहरें उसके यौवन को लपेटे हुए थी, वो कमाल लग रही थी। तिस पर उसका बार बार महाराज कहना अनूप को अवाक कर रहा था। अजीत अभी भी क्रोधित था। क्योंकि उसे समझ आ रहा था कि ये उनका मजाक बना रही। वो उन्हें डांटने के लिए कुछ कहने ही वाला था कि अनूप बोला, 'जाए देइ भैया ! अब अपन होखे वाली पतोह पर कइसन खीस ? अजीत सुनते ही क्रोध भुला कर हंसने लगा। पंजाबी कन्या खिसिया गई। अनूप पुनः बोला, 'तोहरा के केहू बतवलस ना का? तू त बड़ी कमाल के बाड़ू 😉'

कन्या बोली , 'ये बाड़ू बाड़ू क्या होता है? हिंदी नहीं आती क्या महाराज ?'

'अच्छा आप अभी जो पंजाबी अत्याचार कर रही थी, उसका क्या महारानी ? वैसे हम आपकी तरह किसी का मजाक न बना रहे थे। समझे।' कह कर अनूप और अजीत वापस पलटे पर उनके स्टूलों पर अब दो पहलवाननुमा आदमियों का कब्ज़ा हो चुका था।

#जयश्रीकृष्ण

#उजबक_कथा
#गुरुकुल_के_किस्से
#पार्ट9

✍️ अरुण
Rajpurohit-arun.blogspot.com

🙄🙄🙄🙄🙄 ठरक शिरोमणि ♠️♠️♠️♠️♠️

प्रातःकालीन ब्रह्ममुहूर्त ; पक्षियों की चहचहाहट के बीच कुछ बंदर पेड़ों के ऊपर एक डाल से दूसरी डाल पर कूद-फांद कर रहे हैं। झींगुरों की आवाज अब उषा के आगमन की सूचना पाकर शनै: शनै: कम होने लगी है। एक मादा बंदर अपने शिशु को सीने से चिपटाए पूँछ से डाल पर उल्टी लटक कर गुरुकुल के जलाशय से सीधे होंठ लगाए जल ग्रहण कर रही है। कुछ मेढ़क जलाशय के किनारे अपनी ही रौ में उदासीनता के साथ खुद उछलते और शाख से टूट कर गिरे पत्तों को उछालते अज्ञात की ओर बढ़ते नजर आते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि निशा भी अब अँगड़ाई लेकर जागने ही वाली है। यज्ञशाला में विराजित गुरुदेव के मुखारविंद से निःसृत श्लोकों की स्वरलहरियाँ शीतल मंद सुगंधित पवन के साथ यदा-कदा कानों में पड़ कर रोमांचित कर देती हैं। गुरुकुल के कुछ शिष्य अपने तरह के व्यायाम और साधना के बाद जलाशय के चारों ओर नीम की दातुन करते हुए चर्चा में रत हैं।

उजबक अभी तक इतने शीतल वातावरण में भी श्रम स्वेद से नहाए दोनों हाथों में पेड़ के तने को काट कर बनाए गए बड़े से मुग्दर थामे को तेजी से एक विशेष लय में घुमा रहे हैं। उनकी गति और चेहरे के भाव देखकर लगता है मानों वे आज ही अपनी काया की अतिरिक्त वसा को जला कर उससे मुक्ति पा लेंगे। सहसा कौशल ने कन्या की आवाज में जोर से पुकारा , 'स्वामी ....स्वामी....कहाँ हो प्रिय?' उजबक जैसे किसी तंद्रा से जगे हों। उनके हाथ से एक मुग्दर फिसल कर सीधे जलाशय में जा गिरा। अनूप वहीं खोया खोया सा खामोशी से पानी को निहार रहा था, जैसे चहुँओर व्याप्त इस शांति को आँखों ही से पी जाना चाहता हो। यकायक जलाशय में मुग्दर गिरने पर पानी उछलने और कुछ छींटे अपने ऊपर गिरने से अनूप चौंक गया। अनूप कल से ही गुमसुम सा है। इन्द्रविहार चित्रपट में भी वो चुपचाप ही था। और तो और वो संज्ञा से एक सीट छोड़ कर अगली सीट पर बैठा था। अब यहाँ भी ध्यानस्थ मुद्रा में बैठा था।

उजबक ने कौशल की ओर देखा तो वे आँखों मे शरारत दबाए जोर-जोर से हंस रहे थे, कौशल कई तरह की आवाजें निकालने में सिद्धहस्त हैं। आज परिहास करते हुए उजबक को छेड़ने के लिए वो ये स्वांग कर रहे थे। उजबक को देख कर पुनः उसी तरह बोले, 'स्वामी, मैं ये क्या सुन रही हूँ। आप पर केवल मेरा अधिकार है। कहिए न , कहिए कि ये सब जो कह रहे हैं वो असत्य है, मिथ्या है। आप की नियति मैं हूँ। मैं ही हूँ न स्वामी?' कहते कहते कौशल ने उजबक को पीछे से पकड़ लिया और अपने हाथ उजबक के पेट पर गोल-गोल घुमाने लगे।

'कैसी बातें करते हैं बाबा? (कौशल को सब बाबा ही कहते हैं) आपको परिहास करने को मैं ही मिलता हूँ? आप प्रेम नहीं समझते। कभी किसी से प्रेम किया होता तो कदाचित भान भी होता।' उजबक ने कहा।

'हे ईश्वर ! ये मैं क्या सुन रही हूँ? हे प्राणनाथ आप मुझे उपेक्षित कीजिए, चाहे जो कष्ट दीजिए, मैं आपसे उसका अभीष्ट भी न पूछूँगी। किंतु, विधाता के लिए कृपया ये न कहें कि मैं प्रेम ही न जानती। मैं आपसे असीम प्रेम करती हूँ स्वामी।' कौशल अभी भी हंसते हुए कहे जा रहे थे।

'मैं आपसे अच्छे से परिचित हूँ असीमानन्द जी। आप परिहास में व्यस्त रहिए किंतु जानते हैं ? प्रेम समस्त चराचर जगत को देखने का दृष्टिकोण ही परिवर्तित कर देता है। देखिए न हम पूर्व में भी यहाँ इसी प्रकार अभ्यास किया करते थे किंतु कोई लक्ष्य न था। पूर्व में हमें कभी अपनी काया को लेकर कभी कोई संताप न हुआ किंतु अब देवी नियति के लिए स्वयं को उनके अनुरूप ढालने का मन होता है।' उजबक बोले।

'तो आपको क्या लगता है मेरा प्रेम इस रूप में आपसे कमतर है ? स्वामी, प्रजापिता ब्रह्मा रचित इस सृष्टि का कण-कण साक्षी है कि मुझसे अधिक आपसे न कभी किसी ने प्रेम किया है और न करेगा। न भूतो न भविष्यति। यदि मैं आपकी शपथ लेकर कहूँ तो अभी माँ वसुंधरा मुझे भी माता वैदेही के समान अपने अंक में भर लेंगी। कहूँ तो ये वृक्ष , उनके निर्जीव होकर गिरे ये सूखे पत्ते, ये मयूर, वो दादुर सब समवेत स्वर में अभी पुकार-पुकार कर कहेंगे कि आप पर केवल मेरा ही अधिकार है स्वामी। कहिए कि आप मेरे हैं, मेरे ही हो न प्रिय ? कह कर कौशल ने उजबक के पेट को और जोर से पकड़ लिया। सभी शिष्य इन दोनों को देख कर हंस हंस कर दुहरे हुए जा रहे थे।

'आप आज ये कैसा प्रलाप कर रहे हैं? हुआ क्या है? मद्यपान तो न किया कहीं ? क्या खाया सत्य कहिए?' उजबक ने चकित स्वर में कहा।

'प्रलाप नहीं प्रेम कहिए प्रिय प्रेम। निर्मल, निश्चल, अथाह प्रेम और ये समस्त प्रेम आपके लिए है। और जो प्रेम में हो उसे किसी अन्य मद की आवश्यकता ही कहाँ रहती है? कुछ न खाया किंतु आज्ञा दें तो खा लूँ आपको ही? हाउ..।' कौशल ने थोड़ा हल्के से उजबक के कंधे पर काट लिया।

'भक्क, बाबा आपको किसी ने बताया है या नहीं पर हम बता रहे हैं। मित्र आप बहुत अश्लील आदमी हैं।' उजबक थोड़ा क्रोध से बोले।

'अश्लीलता क्या होती है स्वामी? मैं आज रात्रिकालीन चर्चा आपके साथ इसी विषय पर विशद चर्चा करना चाहूंगी? आप मुझे समझाएंगे तो मैं सब समझ जाऊंगी।' कह कर कौशल ने जीभ अपने होंठो पर फिरा दी।

'भक्क...भक्क....भक्क' बोलते हुए उजबक ने कौशल को दूर छिटक दिया।

कौशल पुनः कुछ कहने ही वाले थे कि गौरव ने गुरुमाता का संदेश की उद्घोषणा की। प्रातःकलेवा का समय हो रहा था। सभी छात्र हंसते मुस्कुराते पाक कुटीर की ओर प्रस्थान करने लगे। अनूप अभी भी जलाशय के तट पर ही बैठा था। उजबक ने उसे आवाज दी तो वो भी धीमे कदमों से हमारे पीछे पीछे चलने लगा।

***

पाक-कुटीर में मिट्टी के चूल्हे पर बन रही खिचड़ी की भीनी सुगंध नथुनों में जाते ही भूख दूनी हो गई। हम सब पंक्तिबद्ध बैठे थे । गौरव गुरुमाता को विशेष प्रिय है, अतः वे उसे अपने पास बैठा कर ही भोजन कराती हैं। भूमि पर साफ आसन के के समक्ष स्वच्छ केले के पत्तों पर दही-खिचड़ी का भोजन परोसे जाते ही भोजन मंत्र की सम्मिलित टेर गुंजायमान होने लगी।

 'ॐ सह नाववतु।
सह नौ भुनक्तु।
सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु।
मा विद्‌विषावहै॥
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

भोजन के समय संवाद करना गुरुकुल में वर्जित है, किंतु ये नियम हम केवल गुरुदेव के सामने मानते हैं। गुरुमाता तो मैया हैं अतः उनसे रूठना, मनाना और पिटना हमारी दिनचर्या का ही भाग हो चला है। मैंने सबसे पहले भोजन कर लिया तो शेष छात्रों को भोजन करवाने में मैया की सहायता करने लगा। उजबक को मैया चार बार खिचड़ी परोस चुकी थी। अध्ययन के समान भोजन में भी उनकी गति देखते ही बनती है। जब उन्होंने पांचवी बार मांग की तो मैं परोसने का पात्र लेकर उनके समीप आया। कहा, 'कितना परोसना है कृपया बता दीजिएगा।' और उन्हें खिचड़ी परोसने लगा। कौशल धीमे स्वर में कन्या की आवाज में बोले, 'पूछना क्या है, देखते नहीं मेरे स्वामी को? कांटा हुए जाते हैं। तुम बस परोस दो मैं अपने स्वामी को अपने हाथों से कौर खिलाऊंगी।'

उनके कहने के साथ ही सभी शिष्य मुँह नीचे किए भोजन करते करते ही हंसने लगे। मैया बोली, 'कम से कम भोजन के समय तो शांत रहा करो, जब देखो तब ठिठोली। किसी दिन मेरा धैर्य छूटा तो तुम्हारे गुरुदेव से सब कह दूंगी।' सब ने मुँह पकड़ कर अपनी हंसी दबा दी। उजबक ने कौशल पर क्रोधित नेत्रों से दृष्टिपात किया। फिर उन्हें ध्यान आया कि क्रोध करने के लिए बाद में भी समय मिल सकता है, अतः अपनी सम्पूर्ण एकाग्रता भोजन को समर्पित कर दी तथा पूर्ण तन्मयता से भोजन देव का सत्कार करने लगे। भोजन कर चुकने के बाद जब उठने में परेशानी हुई तो कौशल ने उन्हें सहारा दिया। उठाते उठाते ही कान में धीमे से बोले, 'आइए स्वामी, आइए।' सभी शिष्य मुँह पकड़े दौड़ कर बाहर आ गए।

***

छात्रावास में भूतल पर सबकी शैयाएं क्रम से बिछी थी। सरदार, उजबक, कौशल, अजीत, मैं, अनूप और गौरव। गौरव शैया पर बैठे-बैठे अपने तरकश के तीरों को और पैना कर रहा था। अजीत पंजाबी भाषा की कोई पुस्तक पढ़ रहा था। अनूप मुझसे संवाद कर रहा था। तभी उजबक और उनके पीछे कौशल, दोनों बाहर से आए। आते ही उजबक ने घोषणा की, 'देखिए मित्रों, मैं आज से कौशल के पास नहीं सोऊंगा और मैं तो कहता हूं आप भी मत सोइए, ये व्यक्ति खतरनाक है।'

गुरुदेव भोजनोपरांत अपने लेखन कार्य को गति देने लगे थे, छात्रावास के ठहाकों की आवाजों की गूंज चतुर्दिक व्याप्त आम्र कुंजों से टकरा दूर गगन तक जा रही थी। गुरुदेव ने भी जब ये गूंज सुनी तो वे बस थोड़ा मुस्कुराए और पुनः अपने कर्म में रत हो गए।

#जयश्रीकृष्ण

#उजबक_कथा
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#पार्ट8

✍️ अरुण

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🌌🌌🌌🌌🌌 जलते दिए ♠️♠️♠️♠️♠️

समय पूर्वाह्न 11 बजे, उजबक लोटे में अंगारे डाल कर अपनी धोती की सिलवटें दूर कर रहे हैं। उनका सफेद कुर्ता भी पास ही रखा है। धोती एक ही है, इसलिए स्वयं कच्छे में ही खड़े हैं। बनियान फटी हुई है जिसमें से उनकी तोंद पर लहराते यज्ञोपवीत के सफेद तंतु मुस्कुरा रहे हैं। उजबक स्वयं भी सदा की तरह बहुत प्रसन्नचित्त नजर आते हैं। कोई भी उन्हें देख कर जान सकता है कि इस अवस्था में खड़े रहने से उन्हें 🔔 कोई फर्क नहीं पड़ रहा। लोटा घुमाते घुमाते कुछ गुनगुनाते हुए कभी कभी अपनी कमर को हल्का सा झटका भी देते हैं। 'छलकत हमरी जवनिया ए राजा' ओ हो हो। ला ला ला।

अचानक अनूप बाहर से दौड़ते हुए आया बोला, 'गुरु...गुरु...'

उजबक एकदम पीछे की ओर पलटे तो उनके साथ उनका लोटा भी अंगारों समेत वहीं पलट गया। धोती की सिलवट तो दूर हुई ही न थी पर जहाँ जहाँ जलते हुए अंगारे गिरे वहाँ खूबसूरत से छेद बन गए।

'क्या यार अनूप, आपके चक्कर में हमारी धोती जल गई' उजबक थोड़ा मायूसी से बोले।

'और आप? आप तो आज फंसाए दिए थे। ई रखिए अपना क्रेडिट कार्ड। कुछो ना धरा इसमें। साला हम भी गधे हैं, ये लेके एटीएम से पैसे निकलवाने गए थे? इसमें कुछ होता तो प्रदीपवा इसे फेंक काहे देता? ब्लॉक्ड है साला कार्ड ही। हम चार बार ट्राई भी किए रहे, पर हर बार कार्ड ब्लॉक्ड का मैसेज मिला पैसों की जगह। उ साला गार्ड हमको तोड़ देता, बोला कि तुम चोर हो इतनी देर से मशीन में क्या खुचर-पुचर कर रहे हो। ई देखिए हमारे कुर्ते का भी कॉलर गया। फट गया उससे झपट में। वैसे हम उसे पेट में मुक्का मार के हिसाब बराबर किए हैं, पर आपने ठीक न किया गुरु। ब्लॉक्ड कार्ड देकर काहे भेजे थे?' अनूप अपनी शिकायतों के साथ एक सांस में बोल गया।

उजबक थोड़ा और मायूस हो गए, बोले, 'यार हमको कहाँ पता था कि कार्ड ब्लॉक है। चलचित्रों में नायक से झूठ ही कहलवाया गया कि अगर आप किसी से हृदय से प्रेम करें तो समस्त सृष्टि आपकी सहायता करने को तत्पर हो जाती है। हमारे साथ तो इससे विपरीत हो रहा है मित्र। अब हम नियति से कैसे मिलने जा सकेंगे ? पैसों तो न हों तब भी चलेगा किंतु बिना धोती के.... हे प्रभु अब आप ही सुझाइए हम क्या करें ? अरुण भाई भी लकड़ी काटने गए हैं न जाने कब लौटेंगे।' कहकर उजबक वहीं धप्प से बैठ गए।

'अरे फिक्र काहे करते हैं। हम हैं न। आपकी धोती में बस छेद हुए हैं वो भी एक साइड में ही हैं, पूरी जली थोड़े न है। आप खड़े होइए हम आपको पहनाते हैं।' कहकर अनूप ने धोती उठा ली और उजबक को पहनाने लगा। धोती को तेलगु स्टाइल के नाम पर गोल-गोल कमर के चारों ओर लपेट कर अंतिम सिरा भी कमर में खोंस दिया। यद्यपि उजबक को इस स्टाइल की धोती पहनना बिल्कुल अच्छा न लगता था पर मजबूरी क्या न करा दे। परिस्थिति की मांग के अनुसार उन्होंने इसे ही विधि समझ कर स्वीकार लिया। वैसे अनूप ने धोती को इस करीने से लपेटा था कि सारे छेद नाभि के ठीक नीचे दबाए सिलवटों में ही गुम होकर रह गए। सहज देखने पर ज्ञात न होता था कि ये धोती 'हवादार' है।

कुछ पैसे भी अनूप के पास थे, वो सब भी उजबक को सुपुर्द कर दिए। पर दोस्ती यारी अपनी जगह है अनूप भी गुरुकुल वालों की सबसे प्रिय कंडीशन अप्लाई करना नहीं भूला। बोला ,' गुरु हमहु तोहरा साथे चलब।'

उजबक के लिए ये नई दुविधा थी, मासूमियत से बोले 'आप वहाँ क्या करेंगे मित्र? देवी नियति भी आपसे अपरिचित हैं। आपकी उपस्थिति हमारे उनके साथ चलचित्र का सहज आनन्द लेने में बाधक बनेगी न?'

'अच्छा ? और अरुण भैया जाते हैं तब ? उनके साथ तो सब सहज रहते हैं फिर हमारे साथ क्यों नहीं? भाभी परिचित साथ ले जाने से होंगी न कि न ले जाने से। देखिए हम कोई बहाना न सुनेंगे, अगर आप हमको न ले जाएंगे तो हम गुरुजी को सब बताने जा रहे हैं।' कहते कहते अनूप इमोशनल होने लगा।

उजबक पर अनूप के इमोशन्स का तो कोई प्रभाव भले ही न पड़ा था पर गुरुजी को सब बताने की धमकी ने तुरंत अपना प्रभाव दिखाया और वे उसे साथ ले चलने के लिए मन मार कर राजी हो गए।

***

इन्द्रविहार चित्रपट के बाहर नियति और संज्ञा दोनों उजबक के आने की प्रतीक्षा कर रही थी। नियति पारंपरिक शुभ्र श्वेत वस्त्र धारण किए थे वहीं संज्ञा ने आज गुरुकुल के परिवेश के विपरीत ब्लैक जीन्स और मेहरून चेक वाली शर्ट पहनी थी। गुरुकुल में ये सब देखने का अवसर नहीं मिल पाता किंतु गुरूमाता की कुटिया में भोजन की तैयारियों में उनका हाथ बंटाते हुए रेडियो पर कई बार इस चलचित्र के गीत सुनकर इसे देखने की इच्छा होती थी इसीलिए उजबक से उसने 'प्रेम रतन धन पायो' दिखा लाने का आग्रह किया था। वही देखने आज दोनों सखियाँ एक बार फिर गुरूकुल की देहरी लांघ आई थी। उजबक को आने में देर हो रही थी, भीड़ बढ़ती देख नियति के कहने पर संज्ञा 4 टिकेट्स लेने चली गई। शायद उन्हें विश्वास था कि आज भी मैं उजबक के साथ जरूर आऊंगा।

उजबक आज भी हमेशा की तरह अपने तेल चुपड़े बालों और ढेर काजल से कजरारी की आँखों में खूबसूरत लग रहे थे। उन्हें आते देखा तो नियति का प्रतीक्षा से मुरझाया चेहरा खिल उठा। उजबक ने पास आते ही प्रणाम कहा।

 'भक्क, भौजी को प्रणाम तो हम कहेंगे, आप काहे कह रहे हैं? आपके कहने के लिए बहुत कुछ होता है सभी भाषाओं में, कुछ याद न आ रहा हो तो भोजपुरी में कहिए 'हम तोहरा से प्रेम करिना', 'हमके ना मिलबु त जिनगी जहर हो जाई', 'करेजा मुरुक जाइ ए सुग्गा', 'ए खरखुन करेजा के दवाई तुहि बाड़ू', 'आपना अखियन के लोर से हमरा घाव पर मलहम लगा द'.... आप को तो कुछो नहीं आता भैया। और पाँय लागू भौजी, प्रणाम कर रहे हैं दिल से। भैया तो हमको साथे न ला रहे थे हम जबरी आए हैं।' कहकर अनूप ने नियति के चरण स्पर्श किए और खड़े होकर दांत चियार दिए।

नियति के लिए ये भोजपुरी हमला बिल्कुल नई चीज थी उसे कुछ समझ न आया। सिवाय इसके कि वो उसे भौजी यानि भाभी कह रहा है। उसने प्रश्नवाचक मुद्रा में उजबक की ओर देखा तो उजबक ने कहा कि 'ये भी हमारे सहपाठी, हमारे मित्र, हमारे अनुज और हमारे अतिप्रिय हैं। आज अरुण भाई तो गुरु आज्ञा से ईंधन की व्यवस्था करने जंगल गए थे इसलिए हम अनूप को साथ ले आए। आप आज अकेली ही आई हैं ?'

अकेली शब्द सुनते ही नियति को संज्ञा का ख्याल आया जो इस वक़्त  टिकट खिड़की के बाहर कुछ लफंगों से उलझ रही थी। जो लाइन में खड़ी संज्ञा से छेड़छाड़ करने की कोशिश कर रहे थे। उजबक और नियति की बातों और हावभाव से अनूप तुरन्त सब समझ गया। हीरो की एंट्री का टाइम हो गया था। उजबक से बोला ' भैया हम देखते हैं '। पर अनूप के कदम उधर बढाने की ही देर थी कि एक लड़का लगभग उड़ता हुआ धप्प से औंधे मुँह उसके कदमों में आ गिरा। अनूप ने आश्चर्य से प्रश्नवाचक मुद्रा से नजरें उठाई तो देखा संज्ञा रजनीकांत की तरह सब लफंगों को हवा में उड़ाते हुए टिकेट्स लेकर प्रसन्न मुद्रा में उनकी ओर ही आ रही थी। 'बाप रे' सहसा अनूप के मुँह से निकला।

उजबक के साथ मेरी यानि अरुण की जगह अनूप को आया देख संज्ञा को कुछ खास खुशी न हुई। लेकिन अनूप ने उसका हाथ पकड़ कर जबरदस्ती मिला लिया, बोला 'तू त बहुत सुग्घर बाड़ू हो,का मारेलु कसम से।'
 
'मतलब' संज्ञा ने कहा।

'मतलब आप बहुत खूबसूरत हैं और क्या गज्जब फाइट करते हो।' अनूप ने उसका हाथ पकड़े हुए ही कहा।

संज्ञा को ये व्यवहार थोड़ा असहज और अज़ीब करने वाला लगा। पर उजबक के मित्र के लिहाज से वो चुप रही। हाथ छुड़ाकर बोली, 'मुझे हर लफंगे से निपटना अच्छे से आता है।' फिर सबसे एक साथ कहा चलें, फ़िल्म का टाइम कब का हो चुका है।

अंदर फ़िल्म वाकई शुरू हो चुकी थी। पर बहुत भीड़ नहीं थी। मल्टीप्लेक्स सिनेमा में भीड़ किस थिएटर में घुसेगी जल्दी से पता नहीं लगता। उजबक को तेलगु धोती में चलना थोड़ा कठिन लग रहा था इसलिए नियति के साथ कॉर्नर सीट्स पर बैठे गए। जहाँ नियति फ़िल्म और उजबक बस नियति को देख रहे थे। उनसे कुछ सीट्स की दूरी पर संज्ञा और उससे एक सीट छोड़कर अनूप बैठे थे। आशा और अपेक्षा के विपरीत अनूप के चेहरे पर भयानक खामोशी पसरी हुई थी। थोड़ी देर बाद उजबक ने नियति से कहा, 'आप भूने हुए मक्कई के दाने खाएंगी ?'
'जी?' नियति ने उजबक की ओर आश्चर्य से देखा।
'मेरा मतलब पॉपकॉर्न' कहकर कुछ देर तक खुद उजबक और उनका पेट हंसते रहे। नियति भी मुस्कुरा दी।
उजबक उठ कर चलने को हुए अंधेरे में तेलगु धोती सम्भाल न सके लड़खड़ा गए, उन्हें गिरते देख नियति ने पकड़ने की कोशिश तो की पर वो खुद भी उनके साथ लिपटी लुढ़कती हुई नीचे कालीन पर आ गिरी।
नियति उजबक की बाहों में आलिंगनबद्ध थी, उधर सिनेमा में 'सुनते हैं जब प्यार हो तो दिए जल उठते हैं।' गीत की थाप डॉल्बी डिजिटल सराउंडसाउंड सिनेमा में चारों और गूंज रही थी।
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#पार्ट7

✍️ अरुण

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👯👯👯👯👯 कन्याकुमारी नमो नमः ♠️♠️♠️♠️♠️

कन्या गुरुकुल के भीतर का दृश्य, चारों ओर बहुत हरियाली है और अथाह शांति भी। इस नीरवता को थोड़ी थोड़ी देर में उठ रही कोयलों की कुहुक भंग अवश्य करती है, किंतु अगले ही क्षण पुनः वैसी ही निस्तब्धता छा जाती है। यज्ञशाला से उठते धूम्र की सुगंध मोहक प्रभाव छोड़ रही है। कदाचित वेदाध्ययन का यह समय नहीं है इसलिए वैदिक श्लोक की सम्मिलित टेर किसी दिशा से सुनाई नहीं पड़ती। एक कक्ष में कुछ वरिष्ठ साध्वियाँ कुछ पांडुलिपियों के साथ अध्ययन, मनन तथा चिंतन में व्यस्त नजर आती हैं, वहीं एक ओर कुछ किशोर बालिकाएँ तलवार और ढाल थामे एक दूसरे की शक्ति की थाह लेते हुए छका रही हैं, तो कुछ निहत्थी ही कलारिपट्टू के दांवपेंचों के परीक्षण रही हैं। संज्ञा वहीं पास ही खड़ी उन्हें अभ्यास करवा रही है। कुछ बहुत छोटी छोटी बच्चियाँ खेल खेल में बीच में आकर अभ्यास में व्यवधान डाल रही। संज्ञा के डांटने पर उन्होंने खिलखिलाकर किलकारियां मारते हुए दौड़ लगा दी। संज्ञा उनके पीछे भागी, लड़कियाँ दौड़ कर आगे निकल गई पर संज्ञा कन्या छात्रावास के दरवाजे के पास ठिठक कर रुक गई। नियति जमीन पर बिछी तृणशैया पर दरवाजे की तरफ पीठ करके लेटी है। पास ही कोई पुस्तक रखी है जिसमें 'पीतवर्णी गुलाब' रखा है। चुपके चुपके उसी गुलाब को निहारा जा रहा है।

'ओहो तो आप यहाँ व्यस्त हैं राजकुमारी जी, अभ्यास में क्यों नहीं आईं? हम्म" संज्ञा ने नियति पर लगभग गिरते हुए कहा।

'वो वो वो मेरा मन कुछ स्वस्थ नहीं था, और तुम्हें तो विदित ही है कि ये लड़ना भिड़ना मेरी रुचि का विषय नहीं है। मुझे मेरी पुस्तकों में ही आनंद आता है।' नियति ने धीमे स्वर में कहा।

'जरा देखूँ तो' कहकर संज्ञा ने किताब छीन ली, 'ऐसी पुस्तकें पढ़ कर तो मन अस्वस्थ ही होगा न, कहाँ से लाई? पुस्तकालय की तो लगती ये। व्हेन लव हैपन्स? तुम अंग्रेजी कब से पढ़ने लगी ?' किताब उलटते पलटते संज्ञा ने कहा।

'इस शीर्षक ही में तुम्हारे प्रश्न का उत्तर भी छुपा है। 'व्हेन लव हैपन्स'।' नियति के नेत्र अभी भी भूमि की ओर थे।

'अच्छा तो ये बात है। तब ये किताब जरूर हमारे होने वाले जीजाश्री उजबक देव महाराज जी ने ही दी होगी, है न?' संज्ञा के चेहरे पर शरारती मुस्कान तैर रही थी।

'हाँ उन्होंने ही भिजवाई है, पर पहुंचाने के लिए हनुमान बन कर 'तुम्हारा अरुण' आया था।' नियति ने संज्ञा को छेड़ा।

'मेरा अरुण? माय फुट। मैंने उसके साथ पकौड़े खा लिए तो वो मेरा हो गया? तू भी न, कुछ भी बोलती है।' संज्ञा ने लगभग खीझते हुए कहा।

'अच्छा ठीक है, तो ये परफ्यूम मैं ही रख लेती हूँ। तुम उसे अपना नहीं मानती न सही पर मैं तो उसकी भाभीसा हूँ ही। आहा हा हा कितने प्यार से बोला था कि भाभीसा ये परफ्यूम और ये पत्र 'मेरी संज्ञा' को दे दीजिएगा। पर सकल पदार्थ है जग माहीं, कर्महीन नर पावत नाहीं। अब इस पत्र का क्या करूँ? चलो वापस ही कर दूंगी। ठीक है। लेकिन एक बार पढ़ कर तो देखूँ ..' कहकर नियति पत्र पढ़ने को हुई।

पर संज्ञा उसके हाथ से पत्र छीन कर बाहर उद्यान की ओर भाग गई। वाटिका में पुष्पों की बीच छुपी संज्ञा स्वयं भी एक गुलाब  ही प्रतीत होती थी। दौड़ने से तेज़ हुई साँसों के साथ उठते गिरते यौवनाभूषणों से किसी समुद्र का सा आभास होता था। जो स्वयं अपने ही ज्वार-भाटे में उलझा जा रहा था। ये बुरी सी लिखावट वही थी जिससे नियति को उजबक के नाम से पत्र आते थे। पर आज वही बुरी लिखावट बुरी मालूम न होती थी। हर शब्द पढ़ने के साथ संज्ञा के चेहरे की गुलाबी रंगत में मीठी सी मुस्कान घुलती चली गई।

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✍️ अरुण

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🤠🤠🤠🤠🤠 बड़े बाबू ♠️♠️♠️♠️♠️


आज बाजार जाते समय बड़े बाबू मिल गए। यूँ उनका मिलना कोई विशेष घटना नहीं है। वो तो मिल ही जाते हैं बहुत बार, और मैं हर बार प्रयास करता हूँ उनसे बिना मिले बच निकलने का। मैं ही नहीं हर कोई करता है। जो भी उन्हें जानता है, वो ये भी जानता है कि इनके मिलने का मतलब घण्टों इनकी बातें सुनने में होम कर देना। आप बीच से निकल कर भाग नहीं सकते। ये अपने एक पांव से आपका पांव पर धीरे से कब दाब लेंगे ये आपको तब पता लगेगा जब आप वहाँ से निकलने की चेष्टा करेंगे और पाएंगे कि वो 'सुनिए तो' कहते हुए आपका एक हाथ भी अपने दोनों हाथों में दाब चुके हैं। मुझे इस दबाव को सहने का अच्छा खासा प्रशिक्षण स्वयं उन्हीं से मिल चुका है। आश्चर्य होता था कि कोई व्यक्ति इतनी स्पीड से कैसे बोल लेता है।

पिछली बार जब मिले थे तो उनकी नॉन स्टॉप बातें चुनावों में किसी की साज़िश के तहत लगाई गई उनकी ड्यूटी लगवाने और उसके बाद उसे कटवाने के उनके भागीरथी प्रयासों पर केंद्रित थी। जिसका मोटा मोटा मजमून ये था कि किसी ने चुनावों में उनकी ड्यूटी लगा दी, हाँ जी साजिश करके ही लगाई क्योंकि शूगर पेशेंट की ड्यूटी लगाने से तो सुप्रीम कोर्ट ने भी मना कर रख रखा है। लगाने वालों को तो खैर भगवान देखेंगे ही साथ ही साथ उन्हें भी देखेंगे जिन्होंने डॉ. की पर्ची देख कर भी ड्यूटी नहीं काटी। कलयुग है न। काम कर के कोई राजी ही नहीं है। यूँ हर विभाग में उनका कोई न कोई साला किसी बड़े पद पर है, पर इस बार किसी ने उनकी न सुनी। जाना ही पड़ा उन्हें इलेक्शन ड्यूटी में, इतनी भारी परेशानी के होते हुए भी। ठीक इलेक्शन वाले दिन तय समय और वार पर उन्हें दिल का दौरा पड़ा। सबके हाथ पांव फूल गए थे जी। खुद इलेक्शन कमीशन अपनी बोलेरो में वापस घर छोड़ कर गया। पहले ही कहा था कि मत लगाओ ड्यूटी, लगा दी है तो काट दो, अब भुगतो। पूरा विवरण मैंने संक्षिप्त में बताया है उन्होंने 'सुनिए तो-सुनिए तो' के योजक लगा कर पूरे डेढ़ घण्टे में सुनाया था।

वैसे जब ये हमारे स्कूल में पोस्टेड थे तब ऐसी कोई दिक्कत नहीं होती थी। बड़े बाबू 11 बजे थके मांदे स्कूल आते, कहते सर्वर काम न कर रहा आज भी बिल नहीं बना दोपहर बाद फिर से जाना पड़ेगा। बकौल बड़े बाबू स्कूल हो या कोई भी ऑफिस वहाँ का इकलौता और सबसे महत्त्वपूर्ण काम बिल बनवाना ही होता है। उन्हें कम्प्यूटर पर काम करना नहीं आता, इसलिए सब ऑनलाइन बिल बाहर से बनते थे और जिनका सर्वर बड़े बाबू से पूछ कर ही एक्टिव होता। इनकी कर्मठता में कहीं कोई कमी न थी दोपहर बाद फिर से कोशिश करने के लिए वो 12 बजे से कुछ पहले ही निकल जाते, अगले दिन 11 बजे लौट आने के लिए। जब बिल बन जाते तो उन्हें तैयार करने में बहुत समय लगता। हमें बताया जाता कि पचास जगह रजिस्टर में लिखना पड़ता है तब वेतन मिलता है मास्टर जी। आपकी तरह केवल बातें करके काम नहीं चलता। बहुत सारी कलम और ढेरों चप्पल घिसनी पड़ती है तब जाकर सबको वेतन मिल पाता है। इसके साथ वो ये भी जोड़ देते कि देश और सरकारें सिर्फ बाबू लोगों की कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी के कारण ही चल रहे हैं, वरना इन नेताओं को कहाँ कुछ आता है। जब बिल बन जाते तो उन्हें जमा करवाने में कई दिन खर्च होते। जिस दिन बिल जमा होते उस दिन थकान उनके चेहरे ही नहीं पूरे व्यक्तित्व से टपकती मालूम होती। जिसे दूर करने के लिए छुट्टी न देना किसी कार्यालयाध्यक्ष के वश में न होता। क्योंकि फिर उनके जीवन के अगले पीछे सभी दुःखों की कहानी शुरू होती जिसमें सभी दोषों के लिए कार्यालयाध्यक्ष को उत्तरदायी सिद्ध कर दिया जाता। और इतनी ग्लानि झेलना कम से कम किसी मनुष्य के लिए तो संभव नहीं।

हम उन्हें बड़े बाबू कहते थे, उनके प्रोमोशन से पहले से ही। जाने क्यों और कैसे पर एक दिन प्रोमोशन हो भी गया और वो सचमुच बड़े बाबू बन गए। उनके प्रोमोशन का सबसे ज्यादा दुःख उन्हीं को हुआ। एक तो इतनी पास से 15 किमी. दूर पोस्टिंग हो गई, दूसरे वहाँ बिल बनाने के अलावा भी बहुत काम होते थे। कम्प्यूटर स्कूल ही में लगा था, और जिसका सर्वर अधिकतर खराब होने से इंकार कर देता। बड़े बाबू को ये बातें पसन्द नहीं। वेतन में भी कोई विशेष बढ़ोतरी न रही थीं। पर फिर किसी ने जाने क्या समझाया कि प्रोमोशन स्वीकार कर लिया। फिर एक दिन मिले तो कहने लगे यहाँ जैसा कोऑपरेटिव स्टाफ वहाँ नहीं है। इतना काम करते हैं पर कोई गुण-अहसान नहीं मानता। न माने भगवान तो देख ही रहे हैं, पर वो बाबू ही क्या जो काबू आ जाए। शहर में एसडीएम ऑफिस में ही प्रतिनियुक्त हो गए। कहने लगे छोटे बाबू बहुत कामचोर होते हैं। पर उन्हें सबसे काम करवाना आता है। एसडीएम तो उन्हीं के नाम की माला जपते रहते हैं। ऊपर से माल भी बरसने लगा है। सब बढ़िया है। फिर एक दिन अपने एपीओ होने और बहाल होने की कहानी 'सुनिए तो' कह कर जबरदस्ती सुनाई। सिद्ध किया कि साँच को आँच नहीं होती। लोग बड़े बाबू के रुतबे से अधिक उनकी बातों से डरते हैं। लेकिन उन्हें जितना कोई दबाने की कोशिश करता है वो खुद उतना ही निखर कर सामने आते हैं, ये बात उन्होंने उसी तरह दबाते हुए मुझसे कही थी।

मैं भी उनसे, उनकी बातों से, डरता ही हूँ। आज भी निकल जाना चाहता था। देखा तो वो थोड़ा लंगड़ाते से चल रहे थे। लगा वो कुछ परेशानी में हैं। मुझे देखा तो अरे ! अरे ! अरे ! कहते हुए गले पड़े, मेरा मतलब मिले। फिर हाथ और पांव दाब कर खड़े हो गए। मैंने उनसे उनके लंगड़ाने का कारण पूछा तो कहने लगे, 'दीवाली का बोनस जमा हो गया ? हमारा तो हो गया। तनख्वाह के मामले में उनके स्टाफ को कभी कोई समस्या आती ही नहीं। आज पटाखे लेने आए हैं। बच्चे जिद करते हैं न, वरना वो तो इसे सिवाय बर्बादी के कुछ न समझते। आजकल बिना लाइसेंस के पटाखे भी न बेच सकते, वरना उनका भी विचार था बहती गंगा में हाथ धोने का। कोई पटाखों की दुकान वाला परिचित मिला ही नहीं, पर उनके साले से फोन पर बात करवा दी तो सीधा 70% डिस्काउंट पर माल मिल गया। मिठाई तो लेनी ही नहीं चाहिए। कल टीवी पर दिखा रहे थे मावे में गोबर तक मिला देते हैं। गोबर का ध्यान आते ही उन्होंने थोड़ा नीचे देखा। फिर शुरू हो गए। आप के यहाँ तो सब घर ही पर बनता है न ? आपकी भाभी जी को लेकर आऊंगा कल , राम राम भी हो जाएगी और कुछ अच्छा बनाना भी सीख लेगी। '
मैं उस घड़ी को कोस रहा था जब मुझे उनके लंगड़ाने के विचार पर उनसे सहानुभूति हुई थी, फिर पूछा आप स्वस्थ तो हैं? अभी लंगड़ा क्यों रहे थे ? वो फिर शुरू हो गए, कहने लगे , 'अरे! सुनिए तो, इस बार भाजपा की पार पड़ती नहीं लग रही मुझे तो, जनता खिलाफ है। सड़के टूटी पड़ी हैं, पशुओं ने सड़कों को गटर बना रखा। स्कूल टाइम बढ़कर सारे मास्टर तो खिलाफ कर लिए और वेतन काट कर सारे बाबू। सरकार तो बाबू ही चलाते हैं उनसे दुश्मनी तो मगरमच्छ टाइप की दुश्मनी लेना हो गया। ये सरकार तो गई। अच्छा आप की ड्यूटी तो लगी ही होगी, ध्यान रखना चुड़ैल का। जीत न जाए। मेरी इस बार ड्यूटी न लगी, बीमार आदमी की ड्यूटी न लगनी चाहिए आयोग को समझ आ गया है, हें हें हें। और उनकी ड्यूटी कोई लगाता भी कैसे, साला ही तो है एसडीएम। जीजाजी की ड्यूटी लगा कि मरना है उसको। हम तो लगाने वालों में से हैं। आपको ड्यूटी कटवानी हो तो बताओ, सस्ते में कटवा देंगे। '

मुझे देर हो रही थी, घर पर लक्ष्मी पूजन के लिए सब इंतज़ार कर रहे होंगे। उनसे कहा कि आप अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखिएगा। मुझे जल्दी निकलना है। उन्होंने फिर से सुनिएगा कहा, तो मैने कहा कि कल आराम से सुनूंगा आप तो आ ही रहे हैं न। कह कर फटाफट हाथ छुड़ा कर निकल गया। थोड़ी देर में ही बड़े बाबू के लंगड़ाने का रहस्य पता लग गया। पांव दबाते हुए अपने पांव का गोबर वो मेरे जूतों पर रगड़ कर चले गए थे।

#जयश्रीकृष्ण

✍️ अरुण

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👩👧👦👨👼 मातृ आलोचना ♠️♠️♠️♠️♠️

सब लोग अपनी माँ से प्यार करते हैं, मैं भी करता हूँ पर एक्चुअली मैं अपनी मम्मी का हमेशा से बहुत बड़ा आलोचक भी रहा हूँ, उनको मेरे गुणों की कभी पहचान न हुई। कभी कभी तो ये भी सोचता हूँ कि इतनी उच्च मेधा, त्वरित निर्णायक क्षमता और शारीरिक सौष्ठव का चातुर्य के साथ प्रयोग करने जैसी योग्यताओं के लिए उन्हें मेरा कायल हो जाना चाहिए, अपने भाग्य की सराहना करते हुए ईश्वर को बारम्बार धन्यवाद देते रहना चाहिए कि उन्होंने इतना विलक्षण बालक केवल 'उन्हें' प्रदान किया। यूँ कहने के लिए पड़ौस में रहने वाली सुमित्रा मौसी के दो बेटे भी मेरे जैसे ही कहे जा सकते हैं पर उन दोनों से जितना मिलकर न हुआ उतना मैं अकेला कर डालता। स्कूल में उन दोनों के कुल नम्बरों से मेरे ज्यादा रहते। वो दोनों भाई थे, पर भाईगिरी मैं करता। हालांकि मेरी याददाश्त आज भी बहुत अच्छी ही है पर उन दिनों में हमारा हमउम्र कोई भी लौंडा हमसे पिटने से बचा होगा ऐसा याद नहीं पड़ता। सुमित्रा मौसी बच्चों को पीटने में सिद्धहस्त थी, पर मम्मी से कम। मौसी जी के दोनों लड़के, ऊप्स मैंने आपको अब तक उनके नाम भी नहीं बताए न? नोट कीजिए अब फटाफट, पप्पी और राजू, हाँ तो पप्पी और राजू दोनों मिलकर मौसी से जितनी मार खाते थे, उससे अधिक मैं अकेला खाता था, इसलिए इस मामले में भी मेरी श्रेष्ठता निर्विवादित ही थी। अब मार तो मार होती है, दर्द होना ही होता था, और कुछ नहीं कर पाता था, तो आलोचना करना ही सही लगता, इसलिए बन गया आलोचक।

कदाचित आप ये सब झूठ समझ कर हजम करने में परेशानी अनुभव करें, पर फिर भी विश्वास कर लीजिए। क्योंकि हम थोड़ा नहीं बहुत फ़्लैश बैक में जाने वाले हैं। इतनी पुरानी बात को झूठ प्रमाणित करने की न तो आप जहमत उठा सकेंगे न ही कोई साक्ष्य ही जुटा पाएंगे, इसलिए मान लीजिए कि मैं सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र ही हूँ। क्या कहा? कितना फ़्लैश बैक? अजी वो आप अंदाज़ा लगाते रहिए। देखिए वो देखिए ये जो तीन छोटे छोटे बच्चे हैं, इनमें सबसे गोरा वाला मैं ही हूँ। मम्मी कहती है कि मैं इतना प्यारा और गोरा था कि मौका देखते ही पड़ौस की अंजू दीदी मुझे नंग धड़ंग भी उठा ले जाती थी। हाऊ क्यूट ना ? यस आई नो। पर देखिए, अपनी क्यूटनेस को मेंटेन रखा है, 4 साल का हूँ तो कपड़े पहने बिना बाहर नहीं आता। एटलीस्ट चड्डी होना तो कम्पलसरी कर दिया है। देख लीजिए आज भी पहनी ही है, ब्लू कलर की। मुझे संडे से मुहब्बत होने लगी है, स्कूल से प्रॉब्लम नहीं है, वो तो मैं तब से जा रहा हूँ जब 2.5 साल का था। पर इस दिन होम वर्क नहीं करना पड़ता। एंड आई रियली लव देट। पर मुझे ये भी अच्छे से पता है कि ये संडे का दिन रोज नहीं आता, बहुत दिन बाद आता है, आज जब आया है तो अपुन फुल ऑन एन्जॉय करने को मांगता।

पप्पी राजू, मेरे साथ बैठे हैं। मनन हो रहा कि आखिर समय का सदुपयोग कैसे सुनिश्चित हो? पप्पी ने अन्त्याक्षरी का सड़ा सा आईडिया दिया, जिसे सदन पटल पर रखने से पहले ही निंदा प्रस्ताव झेलना पड़ा। राजू ने बोला कि कॉलोनी चलें? मैंने सराहना के नेत्रों से उसे निहारा, पप्पी राजू दोनो की आंखों में चमक आ गई। दरअसल राजू पप्पी के पापा वहीं काम करते हैं। बेलदार हैं। और इस कॉलोनी को नहरी कॉलोनी भी कहते हैं। सिंचाई विभाग का ऑफिस है यहाँ। पप्पी यहाँ पहले भी आ चुका है। इसलिए गाइड की भूमिका उसे मिली। बिना अन्य किसी विशेष चर्चा में समय गवाएं, बिना किसी को भी कोई सूचना दिए हमनें सीधे प्रस्थान करना उचित समझा। शुभस्य शीघ्रं। रास्ते के दृश्यों में समय न गंवाते हुए आप भी वहीं पहुंचिए। हमको उस कॉलोनी में घुसने से किसी ने न रोका। शायद पप्पी को जानते होंगे सब। पप्पी पेड़ पर चढ़ने में बहुत फ़ास्ट है। शहतूत के पेड़ पर सरपट यूँ चढ़ गया जैसे बंदर हो। खूब कच्चे पक्के शहतूत ऊपर से तोड़ कर गिराने लगा। धूल के साथ शहतूत वाकई टेस्टी लगते हैं। हम दोनों नीचे गिरे शहतूत बीन कर भुक्खड़ों की तरह ठूंसने में लगे थे। थोड़ा स्टॉक कर लेने की इच्छा हुई, पप्पी से कहा तो वो डाली को हिलाने के चक्कर में खुद धम्म से नीचे आ गिरा। पता नहीं क्यों और कैसे पर उसके जरा भी चोट लगी नहीं, नीचे गिरते ही थोड़ी सी रोनी शक्ल बनाई पर हमको देख कर मुस्कुराने लगा। कमर सीधी कर कपड़े झाड़ने लगा। पर नीचे गिरने की आवाज़ सुन एक आंटी आ गई कहीं से, डांटने लगी। बोली अगर चोट लग जाती तो ? निकलो भागो यहाँ से। अगर मैं कोई ज्वालामुखी होता तो अपने क्रोध के लावे से उनको वहीं जला कर भस्म कर दिया होता। पर अपने और उनके साइज में इतना महान अंतर देख क्रोध को दबा देना ही उचित लगा।

कॉलोनी से निकल कर पास आ रही नहर के पास चले गए हम सब। ये नहर बहुत बड़ी नहीं है। छोटा नाला टाइप ही समझिए। कुछ बड़े लड़के नहा रहे हैं बीच मे खड़े खड़े ही, पानी उनकी कमर तक भी न आ रहा। कुछ इसी में तैर भी रहे। बड़ा मजा आ रहा, देख कर ही, सोचा कि क्यों न हम भी उन्हीं की तरह किनारे की बालू मिट्टी में लोट पोट होकर नहर में कूद कर देखें। कितना मजा आ रहा इनको , हमको भी आएगा। पर जैसे ही कपड़े उतार कर नंगे हुए, एक अंकल खामखाँ चिल्लाने लगे। बोले खबरदार जो पानी में कूदे तो। अमा सब को हम ही से दुश्मनी क्यों है? इन लड़कों को तो कोई कुछ न कहता। क्या कहें, समरथ को नहीं दोष गुसाईं। मूड खराब हो गया। घर वापसी का विचार भी मन में आया, पहले ही काफी देर हो चुकी थी। बट हू केयर्स। घरवालों ने हमारी खोज खबर लेना शुरू कर दी थी। और हमें आसपास यहाँ वहाँ न पाकर उनकी हालत खराब हो रही थी। स्टुपिड पीपल, हमें कहीं कुछ हो सकता है भला, देखो भले चंगे हैं, अपना ध्यान खुद रख सकते हैं। लौटते वक्त ट्रेन की आवाज़ कानों में पड़ी तो कदम स्टेशन की ओर मुड़ गए। मीटर गेज पटरी पर कोई माल गाड़ी आई हुई थी। खाली गाड़ी में जितना उछल कूद हो सकती थी हमनें की, आश्चर्य की यहाँ किसी ने हमें न रोका। रेल वाकई सार्वजनिक संपत्ति है, और रेल कर्मी साक्षात भगवान, जो जल्दी से किसी पर ध्यान नहीं देते। माल गाड़ी हमें अपना माल समझ कर ले उड़े तो ले उड़े उनकी बला से, खैर जब खेल खेल कर मन भर गया तो घर के भोजन की याद आने लगी। लगा कि घरवालों को छोड़ो पर भोजन को ज्यादा इंतज़ार करवाना तो पाप होगा।

मोहल्ले में घुसते ही सूचनाएं विद्युत गति से प्रसारित होती हुई घर वालों तक पहुंची। मेरी बहनों के साथ आसपास के लोग हितैषी होने का नाटक करते हुए हमारे चारों ओर घेरा बंदी बनाने लगे। यूँ की हमनें खतरे को सूंघ तो लिया पर थोड़ा देरी से, वापस मुड़ने की कोशिश भी की, पर पकड़े गए। घर पहुंचाए गए तो देखा मम्मी और मौसी भन्नाए बैठी हैं। ओ हो हो हो क्या मारा है भाई साहब। यादें लिखते लिखते भी दर्द से आँसू आ रहे। अपने बच्चे पर इतना अत्याचार ? टैलेंट की कद्र ही नहीं है। कोई समझाओ इनको कि आप लोग ही कद्र न करोगे तो दूसरे क्या घण्टा करेंगे? पप्पी राजू ने अपनी तोतली वाणी में बहुत झूठ बोले कि हम चिल्लेदार और पटारी (जिलेदार और पटवारी) के घर गए थे, लेकिन मैंने तो सब सच बताया। पीटना तो नहीं ही चाहिए था। 😢

#जयश्रीकृष्ण

#बचपन_के_दिन

✍️ अरुण

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💤💤💤💤💤 नींद ♠️♠️♠️♠️♠️

जिंदगी में पहले भी बहुत काम किया है, खेत में काम करने से लेकर घर बनवाने में ईंट ढोने तक, बहुत थकावट भी आई पर कभी इतनी बुरी हालत नहीं हुई। दरअसल 3 दिन से एक पल के लिए भी सो नहीं पाया हूँ। बहन की शादी हो तो दौड़ भाग भी करनी ही पड़ती है, क्या मुझे नहीं पता ? और मैं नहीं करता तो और करता भी कौन? बुआ जी को उनके ससुराल से लाने भी और कौन जाता? हलवाई , टेंट, खाने पीने का सामान लाने और बारात की व्यवस्थाओं में सोने का वक़्त कैसे मिलता भला, पर अब सब निपट जाने के बाद चैन से सो जाना चाहता था। सोचा कि 2 घड़ी की नींद मिल जाए तो सच में चैन मिल जाएगा। पर फिर एक कॉल आया और मुझे दिल्ली निकलना पड़ रहा है। मौसी जी नहीं रहे, जाना तो पड़ेगा ही। पापा ने मम्मी को नहीं बताया, मुझसे बोले कि 'तुम चले जाओ। इसे अभी से भेज देंगे तो 12 दिन वहीं रुकना पड़ेगा। इतने दिन क्या करेगी वहाँ, रो रो कर ये भी अपनी हालत खराब लेगी खामखाँ। शुगर और बीपी पेशेंट है कोई दिक्कत हो गई तो हमको ही परेशानी हो जाएगी।' पापा ने बोला है तो अब मानना भी पड़ेगा ही, अकेले बेटे होने का एक नुकसान ये भी है कि कोई और ऑप्शन नहीं होता, न घरवालों के पास न खुद के पास। सब की सारी अपेक्षाएँ आप ही से जुड़ी होती हैं। हल्की सी अवज्ञा का स्वर उठा नहीं कि तुरंत कोई न कोई कपूत पूत होने का स्टिकर कहीं से लाकर माथे पर चिपका जाता है। सोचा कि क्यों रिस्क लें, बस में ही जाना है तो सो जाऊंगा बस ही में, पर स्लीपर कोच में बस सीट का ही जुगाड़ हो पाया, और अब उसी का इंतज़ार हो रहा।

शाम का धुंधलका अंधेरा बस स्टैंड की एलईडी लाइट्स ने पाट दिया है। एक बड़ी सी डिजिटल घड़ी बस अड्डे पर अपने जगमगाते नियॉन बल्बों की रोशनी में चीख चीख कर टाइम बता रही है। ढेर सारे आदमी, ढेर सारी औरतें और उतने ही ढेर सारे बच्चे न जाने कहाँ कहाँ जाने के लिए निकल निकल कर यहाँ जमा हो रहे हैं। मैं उनींदी आँखों से मुँह बाए बस सब देख रहा हूँ। पास ही कन्याओं का एक झुंड खड़ा है जो न जाने क्या गॉसिप कर रहा है। शायद कुछ लड़कियाँ कुछ को सी ऑफ करने आई होंगी। एक दूसरे से चुहल करते हुए हाथ पर ताली दे रहीं। ठहाकों के बीच एक नजर उस तरफ दौड़ाई, एक कन्या ने भी चिप्स चेपते हुए मुझे देखा पर फिर नजर फेर ली। शायद इन ललाई लिए आँखों मे मैं उसे कोई नशेड़ी नजर आ रहा हूंगा।

वाह,  लो मेरी बस भी आ गई। भीड़ कुछ ज्यादा नहीं लग रही ? हाँ ज्यादा ही तो है। पर मुझे क्या मेरे पास तो सीट है। सी 2, हाँ यही है। इस सी 2 के पीछे पता नहीं क्या लॉजिक है? शायद ट्रेन के बर्थ की तरह नाम रखते रखते किसी दिन ये लोग भी चार्ट चिपकाया करेंगे बुलेटिन बोर्ड पर । खैर जो भी हो, जाकर बैठ गया मैं तो। बस चल पड़ी है। पर आज एसी बस भी रोडवेज वाली फीलिंग दे रही है। सभी सीटें फुल हैं पर लोग अभी भी खड़े ही हैं। फिर से सोचा कि मुझे क्या, मेरे पास तो सीट है न। एक आंटी जी भी खड़े हुए हैं, उम्र भी ५५-६० के आसपास तो होगी ही। पर मुझे क्या। इतनी उम्र है, ढलती उम्र के साथ कमजोरी आ ही जाती है, तभी तो बस में पिल्लर पकड़ के खड़ी हैं। पर मुझे उससे क्या। हो सकता है बीमार भी हों। पर मुझे उससे क्या। मम्मी भी तो शुगर पेशेंट हैं, कल को वो ऐसे ही तकलीफ में हों तो ? पर मुझे उससे.... नहीं नहीं.... ऐसा नहीं करना चाहिए न ? पर मुझे सोना है। गैलरी में ही सो जाउँ तो ? हाँ, ये सही है। आंटी जी को बुला कर अपनी सीट पर बिठा दिया। ज्यादा देर खड़े नहीं रह सकता। इसलिए नहीं कि टांगे काम न कर रही, इसलिए क्योंकि अब सोना है मुझे। खम्भे को पकड़ कर वहीं बैठ गया। टांगे फैलाने जितनी जगह नहीं है इसलिए पालथी मार ली। स्लीपर वालों ने पर्दे खींच लिए हैं। और कुर्सी वालों ने भी कुर्सियों को ढीला छोड़ कर खुद उस पर पसर गए हैं। आंटीजी सीधी होकर बैठी हैं, सीधी ही होंगी शायद वरना ये तो सब जानते हैं कि इस कुर्सी को आराम कुर्सी में कैसे बदलते हैं। मैंने उनकी कुर्सी का लीवर घुमा दिया तो वो भी रिलैक्स करने लगीं। अब सब ठीक है। सब आराम की मुद्रा में आ रहे। मुझे भी सोना है अब।

खम्भे को पकड़े पकड़े नींद में खोता जा रहा हूँ। घर जाकर सबका हिसाब भी करना है। हलवाई, टेंट, खाने पीने का सामान सबका, पापा को तो कुछ भी नहीं मालूम , और वो अकेले सब करेंगे भी कैसे? माता पिता तो सारी उम्र बच्चों के लिए करते ही हैं। अब जब मौका आया है तो हम पीछे क्यों हटें? मौसी जी नहीं रहे, अब उनके बच्चे चाहें भी तो उनके लिए कभी कुछ कर पाएंगे कभी ? नहीं न। अचानक ज़ोर का धमाका हुआ। मैं भाग कर बस से बाहर आ गया। बस किसी ट्रोले से टकरा गई थी। ड्राइवर की आधी लाश अभी सीट पर है बाकी आधी पता नहीं। कुछ लोग और भी हैं जो बाहर आ रहे निकल निकल कर। रोने चीखने चिल्लाने की आवाज़ें। मैं मूर्तिवत खड़ा हूँ। बहुत लोगों को बहुत चोटें लगी हैं। पर कुछ साहसी लोग भी हैं जो अपनी चोटों की परवाह न करते हुए, दूसरों को बचाने की जुगत कर रहे हैं। मैं कितना स्वार्थी हूँ न ? अच्छा भला हूँ पर किसी की सहायता तक नहीं कर रहा। और वो आंटी जी ? उनको क्या हुआ होगा, वो ठीक तो होंगी न ? जैसे ही विचार मन में आया दौड़कर बस के क्षत दरवाजे तक गया, देखा कुछ लोग उन्हें सहारा देकर नीचे ला रहे थे। माथे से खून बह रहा था। बेचारी भली औरत मेरी आई को खुद पर ले लिया। अगर मैं उस सीट पर होता तो इनकी जगह मेरा माथा फटा होता। देखो मैं तो भला चंगा खड़ा हूँ। भगवान इनकी उम्र लम्बी करें। इन्हें शीघ्र आरोग्य प्रदान करें। इन्हें ही नहीं सबको, पता नहीं कितनों को चोटें आई है। अभी भी लोग बाहर आ रहे। मैं फिर से दरवाजे तक आ गया। मुझे भी दूसरों की सहायता करनी चाहिए न। पर कुछ लोग किसी के हाथ और पांव से पकड़ कर लगभग घसीटते हुए नीचे ला रहे। ओह लगता है ये तो मर ही गया बेचारा। इसकी नींद तो अब कभी न खुलेगी। मैं रास्ते से हट गया। चाँद की रोशनी में लाश का चेहरा दिखा। खून से तरबतर, शायद सर पर कोई गहरी चोट आई है। कपड़े देखे तो चौंक गया, ये सचमुच मैं था......!

#जयश्रीकृष्ण

✍️ अरुण

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गुरु माँ का स्नेह

हमारी गुरु माँ भी बहुत कमाल हैं, सबके खाने पीने और स्वास्थ्य की देखभाल ऐसे करती हैं जैसे सच में हमारी जननी ही हों। पर कुछ दिनों से बहुत भुलक्कड़ सी हो गई हैं। हम लोगों के नाम तक याद न रहते। आज सुबह आदरणीय गुरुजी ही उनके कोपभाजन बन गए। दरअसल हुआ यूँ की प्रातः सब को कलेवा करवाने के बाद उन्हें ये तो स्मरण पड़ रहा था कि कोई है जिसने अल्पाहार नहीं लिया ये भी कि किसने नहीं लिया पर 'उस किसने' का नाम भूल गए। गुरुजी ध्यान-योग सत्र समाप्त कर जब स्वयं अल्पाहार करने पहुंचे तो गुरुमाता उन्हीं पर बिफर पड़ी। बोलीं 'आपको अपनी क्षुधापूर्ति की पड़ी है, उस बेचारे ने भी सुबह से कुछ न खाया, आपको उसकी लेशमात्र भी चिंता हुई?'

तिवारी जी मुस्कुराए, बोले, ' अच्छी बात है पहले अपने उस पुत्र को ही खिला दो प्रिय, मुझे बताओ मैं अभी उसे यहीं बुलवा लेता हूँ।'

गुरु माता ने याद करने का बहुत प्रयास किया पर नाम याद नहीं आया। रुआंसी होकर बोली, 'अरे वो है न मेढ़क सी आँखों वाला।'

गुरु जी हमें काव्य में अलंकार विषय पर बहुत बार व्याख्यान देते रहते हैं, पर निजी जीवन की वार्ताओं में ये सुख उन्हें गुरुमाता के श्रीमुख से ही प्राप्त होता है। इतनी विलक्षण उपमा सुनकर सोचने लगे कि इसका उपमेय कौन हो सकता है? एक एक कर भिन्न भिन्न चित्र उनके स्मृति पटल पर उभरने लगे।

गुरुमाता अधीर हो रही थी, बोलीं 'आप इतना समय क्यों लगा रहे हैं, बुलवा दीजिए न'

'हूँ, पर किसे? मानव चरित्रों पर पशु गुणों का आरोप कर तुमने मुझे दुविधा में डाल दिया प्रिय। इतने शिष्यों में से नेत्रों में मेढ़क से समता रखने वाला ढूंढने में समस्या आएगी ही, नाम याद करो या कोई अन्य चिह्न बताओ' गुरु जी बोले।

'ओहो, आप भी न, 7 ही तो शिष्य हैं। मैं उसकी बात कर रही हूँ जिसके सिर पर टिंडे जैसे रोएँ ही बचे हैं, बाल झड़ रहे धड़ाधड़।' गुरुमाता ने उलाहने के स्वर में कहा।

कदाचित गुरुजी ने इस बार चीन्ह लिया कि किसकी बात हो रही, इसलिए जोर जोर से हँसने लगे।

गुरु माँ को लगा कि ये अभी भी नहीं समझे। फिर कहने लगी, 'अरे वही जिसके खरगोश जैसे कान हैं। चलते समय बंदर की तरह उछलता है।'

गुरुजी पेट पकड़ कर और जोर से हंसने लगे।

गुरुमाता सौम्यता से बोली, 'आप हंस क्यों रहे हैं, अरे उसे बुलवा दीजिए न जिसके कान मंजीरे जैसे है, और जिसका पेट गजानन गणेश जी जैसा है।'

गुरु जी ने एक हाथ मुँह पर रखा दूसरे से पेट को दबाते हुए बोले, अरे बस बस, और फिर जोर से हंसने लगे।

गुरुमाता को खीज आ रही थी, झल्ला कर बोली, 'आप यहाँ हीही कर रहे वहाँ मेरा कद्दू जैसे गालों वाला बच्चा सुबह से भूखा बैठा होगा। आप रहने दीजिए मैं स्वयं ही बुला लाती हूँ। कह कर वे पाक कुटीर से बाहर आईं।

वटवृक्ष के नीचे शुक्ला जी क्लास चल रही थी। हम सब नीचे बैठे उन्हें बस सुन रहे थे। गुरुमाता की उपस्थिति से पूर्णतया अनभिज्ञ सरदार अत्यंत गम्भीर होकर डींगें हांकने में व्यस्त थे। बोले,'तुम सब के सब ढक्कन ही रहोगे, लिखवा लियो हमसे। अबे बोर नहीं होते रोज रोज यही सब पकाऊ खाना खा के ? हम तो आज अमृत चख कर आ रहे। कन्या गुरुकुल के पिछवाड़े एक बेर का वृक्ष है।'
विमी बोले, ' हाँ हाँ, हमनें भी सुना है उसके बारे में...!'

सबकी दृष्टि विमी की ओर घूम गई, तो सरदार चिल्लाते हुए बोले, 'अबे चुप बे, घण्टा पता है तुमको, आज हम उसी बेरी के बेर खा कर आए हैं, वो भी पेटभर कर। ये लो तुम लोगों के लिए भी लाए हैं, कह कर अपनी धोती के साइड में बंधी पोटली खोल दी। चारों ओर बेर ही बेर बिखर गए। भगदड़ और लूट मच गई। अचानक एक हाथ से किसी ने शुक्ला की गुद्दी पकड़ ली। शुक्ला ने गर्दन घुमाई तो देखा गुरु माता ने अपने एक हाथ मे खड़ाऊ थाम रखा था। क्रोध से तमतमाते हुए बोली, ' मैं इस लंगूर के खाने के लिए कब से चिंतित हो रही हो और ये बिना आज्ञा दीवारें फांदता घूम रहा।'

हम नहीं समझ पाए कि शुक्ला को इतना पीटने की क्या जरूरत थी? चलो पीटा सो पीटा पर पूरे हफ्ते के लिए गुरुकुल वालों के कच्छे और धौतियाँ धोने का दंड ? ये तो ज्यादती ही हो गई बेचारे के साथ।

वैसे बेर वाकई मीठे थे, इस बात की पुष्टि किसी से भी की जा सकती है।

#जयश्रीकृष्ण

#गुरुकुल_के_किस्से

✍️ अरुण

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😡😠😩😭😇😜 नियति ♠️♠️♠️♠️♠️

फ्रॉक सूट में लड़कियों की उम्र और भी कम लगती है न। और ये दोनों तो बहुत प्यारी सी चाबी वाली गुड़िया सी लग रही थी जो हमारी ओर बढ़ रही थी। एक गोरी थी, तो दूसरी थोड़ी सांवली, एक का कद 5'5" था, तो दूसरी का 5'3", एक की नाक बहुत तीखी सी थी तो दूसरी की छोटी पर क्यूट सी, एक की आँखे बड़ी बड़ी थी तो दूसरी चश्मिश, एक के चेहरे पर शर्म के साथ मुस्कान घुली थी तो दूसरी के चेहरे पर हल्का गुस्सा माथे की त्योरियों में अपनी जगह ढूंढ रहा था,  दोनों आकर हमारे डेस्क के पास खड़ी हो गई, उन्हें देख हम भी खड़े हो गए। चश्मिश ने गुस्से से भरी आँखों से हम दोनों को देख कर पूछा, 'उजबक कौन हैं आप मे से ?'

'ओहो आप तो आते ही रैगिंग पर उतर आई संज्ञा जी, थोड़ा बैठिए तो सही। कौन कौन है यही जानने तो आएं हैं सब।' मैंने मुस्कुराते हुए कहा। चश्मिश ने खा जाने वाले नेत्रों से मुझे देखा। बोली, ' नाम मत लो तुम मेरा, 😠 तो तुम हो उजबक ? कितने वाहियात लैटर लिखे हैं तुमने। वो भी सड़े हुए बदबूदार शेर ठूस ठूस के। आज के जमाने में कौन लेटर लिखता है? उस पर तुम्हारी राइटिंग भी माशाअल्लाह, बताया नहीं किसी ने ? टट्टी लिखते हो तुम , एकदम टट्टी, आक थू।' कहते कहते उसने सच में घास पर थोड़ा सा थूक दिया। दूसरी कन्या उसका हाथ दबा कर उसे शांत करने की कोशिश कर रही थी। उसने उसका हाथ झटका और फिर शुरू हो गई, 'तू चुप कर नियति, इन जैसों को हैंडल करना मुझे बखूबी आता है। हाँ तो सब बोलो, बड़ी चुल्ल मची थी न मिलने की, मिल कर बात करने की? अब करते क्यों नहीं? बोलो।'

मैं कुछ कहने ही वाला था कि उजबक बोले, 'देखिए देवी, कदाचित यहाँ कुछ मतिभ्रम हो रहा है। आप अकारण आवेशित हो रही हैं। कृपया शांत हो जाइए, आप भी विद्यार्थी हैं, धैर्यहीनता विद्यार्थी को शोभा नहीं देती। आप आक्रोश में उद्विग्न होकर गलत व्यक्ति से उलझ रही हैं। ये तो मेरे मित्र 'अरुण' हैं, और मेरा नाम उजबक है। किंतु क्षमा कीजिए हम यहाँ आपकी नहीं देवी चमेली की प्रतीक्षा कर रहे हैं। संभव है आप भी उनसे परिचित हों।' कह कर उजबक ने संज्ञा के फ्रॉक पर बने कन्या गुरुकुल के बैज की ओर देखा।

संज्ञा थोड़ी शांत हुई और बोली , 'देखिए भाई साहब, आप भले आदमी मालूम पड़ते हैं। पर ऐसी ओछी हरकतें भी किसी को शोभा नहीं देती। अगर आप उजबक हैं तो क्यों आपने मेरी सहेली को वे पत्र क्यों लिखे ? ये बहुत सीधी है, इसे लगा आप सच मे इससे प्यार करते हैं। और हाँ हमारे गुरुकुल में चमेली नाम की लड़की तो क्या कोई पौधा भी नहीं है।'

उजबक के चेहरे पर एक साथ कई भाव आए, पर अगले ही क्षण स्वयं को संयत किया और बहुत गम्भीरता से कहने लगे, 'आपको असुविधा हुई उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ संज्ञा जी। सत्य जानिए मैंने कभी किसी को कोई पत्र न लिखा। मुझे भी एक पत्र प्राप्त हुआ था, लगा कि कोई रमणी मुझ जैसे मूढ़मति को भी अपनाने , उससे प्रेम करने का साहस रखती है। ऐसा कभी कोई अनुभव भी तो न रहा है। असत्य नहीं कहूँगा, वह पत्र पाया तो उसी क्षण हृदयतल से उस अज्ञात नायिका के प्रति स्वयं को समर्पित कर दिया था। जो घटित हो चुका उसे लौटाना तो मेरे वश में नहीं किंतु आपकी मित्र की भावनाओं को मेरे कारण कष्ट हुआ है, मैं विधाता से प्रार्थना करूँगा की मुझे रौरव में भी स्थान न मिले। भले ही मैंने स्वप्न में भी कभी किसी के अनिष्ट की कामना नहीं की, किंतु यह भी तो सत्य ही है कि उजबक नाम इनके कष्ट का हेतु बना। हो सके तो मुझे क्षमा कर दीजिए।' उजबक ने भावुकता से नियति के सामने हाथ जोड़ दिए।

नियति जो अब तक नेत्रों को नीचे किए शांत बैठी थी, उसने पहली बार उजबक की ओर देखा। उसकी आँखें जलप्लावित हो रही थी। बोली,' आप ऐसा न कहिए। संज्ञा ने जो कहा उसके लिए मैं आपसे क्षमा चाहती हूँ। आप ही के समान प्रेम शब्द को अनुभूत करने का मेरा भी यह प्रथम ही अनुभव है। पहले पहल लगा कि कोई परिहास कर रहा होगा। पर फिर आपके नाम से एक के बाद एक पत्र आने लगे। लिखावट से अधिक कथ्य महत्त्वपूर्ण लगने लगा। उन पत्रों की प्रतीक्षा करते करते कब जीवन में आपके आने प्रतीक्षा करने लगी मुझे भी ज्ञात नहीं। किंतु चमेली का छद्म नाम मैंने ही आपको लिखा था, शायद इस भय से कि अगर पत्र किसी के हाथ लग जाता तो मैं कहीं की न रहती। अगर कोई दोषी है तो वो मैं हूँ। मुझे क्षमा कर दीजिए',  कह कर नियति वहीं घुटनों के बल बैठ कर जोर जोर से रोने लगी। चेहरा आँसुओं से भीग गया। उजबक भी भावुक हो रहे थे, और शायद संज्ञा भी। मुझे भी थोड़ा अज़ीब सा ही लग रहा था पर जैसे भी हो गाड़ी अब ट्रैक पर आती लगी।

संज्ञा कुछ बोलने को हुई तो मैंने उससे कहा, 'आप प्लीज इधर आइए, इन दोनों की समस्या ये ही सुलझाएं तो अधिक सही रहेगा। '
संज्ञा ने गुस्से से मुझे देखा पर फिर पार्क में एक ओर पग पटकती सी चल दी। मैं भी उसके पीछे पीछे हो लिया। 😜

'संज्ञा जी, आपका फेवरेट सब्जेक्ट क्या है?' चलते चलते उससे मैंने पूछा।

'देखो, मैं नियति नहीं हूँ, और मुझे अभी भी बहुत गुस्सा आया हुआ है, आपको बोल दिया न कि नाम मत लो मेरा। मुझे आप पर पहले भी गुस्सा नहीं करना चाहिए था, अब भी नहीं करना चाहती सो इट वुड बी बेटर फ़ॉर यू , प्लीज लीव मी अलोन।' संज्ञा ने अपने आप पर कंट्रोल करते हुए कहा।

'अरे सुनिए तो, अच्छा ठीक है आप कहती हैं तो मैं आपका नाम नहीं पुकारूंगा। पर किसी क्यूट सी लड़की को 'संज्ञाहीन' कर देना तो पाप हो जाएगा, नहीं?' मैंने हंसते हंसते कहा।

संज्ञा रुकी, अपना नजर का चश्मा थोड़ा नीचे कर मेरी ओर देखते हुए कहा, 'हो गया आपका? नाउ विल यू प्लीज शटअप?' मैंने पहली बार उसकी आँखें देखीं। बिना काजल के काली आँखें, लगा कि ज्यादा देर इन्हें देखा तो बींध डालेगी।

'ओके ओके, गुस्सा छोड़िए न प्लीज। अच्छा ये बताइए आपको स्विमिंग आती है? मुझे तो बिल्कुल नहीं आती। पर अभी लग रहा है कि आनी तो चाहिए, है ना?'

'क्यों घास में तैरने का मन हो रहा ? जाओ तैर लो, डरो मत, मैं नहीं डूबने दूंगी, आई एम ए गुड स्विमर, डोंट वरी।' संज्ञा ने हल्के व्यंग्य से कहा।

मैं जोर से हंसा। कहा , ' अरे, आप तो मुझे अभी डुबो देती, जानती भी हैं कितने समंदर आँखों में लिए घूम रही हैं आप ?' 😜

"देखिए जाइए ये सस्ते जोक किसी और को सुनाइए, मुझे इन पर हंसी नहीं आती।"  संज्ञा ने बेरुखी से कहा।

'गुरु जी ने बोला था कि अकेली लड़की खुली तिजोरी जैसी होती है, मैं नहीं चाहता कोई मेरा खजाना लूट...आई मीन मैं नहीं चाहता कोई आपको कोई नुकसान पहुंचा दे।' मैंने ढीठाई से कहा।

"मेरी चिंता छोड़ अपनी कीजिए, कलारिपट्टू चैंपियन हूँ, राष्ट्रीय स्तर पर खेल चुकी हूँ।" संज्ञा थोड़ा हंस कर बोली। 😊

' वाह खेल खेल कर थक गई होंगी, हिमक्रीम मेरा मतलब आइसक्रीम खाएंगी ?'

"नहीं, आपको सच में अक्ल ही नहीं है, बूंदे बरस रही तो पकौड़े का मौसम हुआ न?"

'लाऊं?'

"ना कहूँगी तो ?"

'तो आइसक्रीम ले आऊंगा।'

"पागल 😊😊, अच्छा ठीक है, जाइए ले आइए।"

मैं दौड़ कर गया उद्यान के बाहर की रेहड़ी से पकौड़े लिए, पूछा पेमेंट कार्ड से कर दूं ? उसने मुझे ऐसे देखा जैसे मैंने उससे किडनी मांग ली हो। बोला, 'भाऊ कैसा बात करता तुमि, वो सब बड़े होटलां में होतां इदर नी, रोकड़ा देओ नाइ तो माल इदर ई रखो रे बाबा।'

'अरे बाबू भैया आप 😜, रुकिए देता हूँ' जेब से पर्स निकाला, देखा तो 100 रुपए का एक नोट बड़े सलीके से 'प्रदीप' की फोटो के पीछे छुप कर बैठा था। मैंने दोनों निकाले। नोट बाबू भैया को और फ़ोटो धरती मैया को दिए। पकौड़े उठाए और संज्ञा का सर्वनाम बन कर उसकी ओर उड़ चला। बूंदे बरसना थोड़ा तेज़ हो गया था। संज्ञा एक पेड़ की छाया में अकेली बैठी थी मुझे देखा तो बोली, ' सिर्फ हमारे लिए लाए हो, नियति के लिए ?' कह कर उसने उनकी दिशा में देखने का प्रयास किया। मैंने अपना एक हाथ उसकी आँखों के आगे कर दिया। उसने मेरा हाथ झटक कर फिर देखा। नियति और उजबक दोनों भीगते हुए आलिंगनबद्ध दिखाई पड़े। शर्मा कर वो बैठ गई। धीरे से पकौड़े उठा कर खाने लगी। मैं अपने दोनों हाथों से उसके सर पर छाता बना कर खड़ा था। उसने मुझे यूँ देखा तो मुस्कुरा दी।

अब इस बारिश से सब भीग रहे थे, उजबक-नियति, संज्ञा और शायद मैं भी ....😇

To be continued.......

#गुरुकुल_के_किस्से
#उजबक_कथा
#पार्ट5

#जयश्रीकृष्ण

✍️ अरुण

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👬🌧️💘🌻👯शुभागमन ♠️♠️♠️♠️♠️


प्रेम पथिक को हटा कर पहले हम और फिर उजबक खड़े हुए, हमको कुछ न हुआ था और उजबक भी मिट्टी में गिरे थे तो ज्यादा चोट नहीं लगी, पर उठते ही बजाय अपने वस्त्र झड़क कर साफ करने या अपने घुटनों पर लगी चोट की चिंता करने के वो तालियाँ बजा कर किलकारी मारने लगे, बोले, 'शुभ है, शुभ है, आहाहाहा आनन्द आ गया।'

यार ये आदमी पागल तो नहीं हो गया ? देखूं कहीं कोई चोट सर पर न लग गई हो। मन ही मन कहते हुए मैं उजबक की ओर लपका।

'अरे क्या कर रहे हैं आप, हमें कुछ न हुआ। इधर नहीं उधर देखिए।' कह कर उजबक ने उल्टी दिशा की मुँह करके देखने का संकेत किया। सामने कन्या गुरुकुल का प्रवेशद्वार था। बाहर कुछ छात्राएँ हमारे चेहरे की धूल से हास्य चुरा कर रक्तवृद्धि योग का अभ्यास कर रही थीं। 'सत्यानाश, बरसों से बनाई इज्जत पर धूल फेर दी। ऊपर से ये मूर्ख शुभ है शुभ है चिल्ला रहा है। मैं मन ही मन बोला।

' सत्य ही तो कह रहे हम अरुण भाई, कितना शुभ संकेत है, विद्या मन्दिर में शीश झुकाना तो 100 यज्ञ जितना फल देता है और हम तो साष्टांग नतमस्तक हो गए। ऐसा अद्भुत संयोग और सौभाग्य तो देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। और तो और आप जानते हैं ? ये वही गुरुकुल है जिसमें देवी चमेली अध्ययनरत हैं, खैर आप कैसे न जानते होंगे, आप ही तो सूत्रधार बनेंगे हमारी परिणय गाथा के। अच्छा, छोड़िए वो सब, देवी चमेली से यहीं मिल लिया जाए ?

 कहिए क्या कहते हैं आप ? ' कह कर उजबक ने उसी मासूमियत से हमें देखा। मन तो किया कि कस्स के लपड़ मार दें, पर फिर सोचा अगर विमी का हाथ उठ गया तो क्या होगा?

आईडिया ड्राप कर उद्विग्न मन को शांत करते हुए मैंने कहा कि 'नहीं यह सही नहीं होगा, गुरुमाता को इसके बारे में भनक नहीं लगनी चाहिए, अन्यथा तुम्हारा और हमारा गुरुकुल से निष्काषित होना निश्चित है।'

'हूँ, आप सत्य कहते हैं। मैं ही भावावेग में मूर्खता करने जा रहा था। तो अब क्या करें?'

'अब आप वो करेंगे जो मैं कहूंगा, एक मिनट रुकिए मैं इस प्रेम पथिक को उसकी सही जगह पर छोड़ दूँ' कह कर मैं उजबक के दादा जी की साईकल के साथ कन्या गुरुकुल में प्रवेश कर गया। और कुछ ही क्षणों में वापस खाली हाथ लौट आया। उजबक के चेहरे पर मिश्रित भाव थे। इससे पहले वो कुछ पूछते मैंने खुद ही कहना प्रारंभ कर दिया, ' देखो प्यारे बुरा न मानना पर इतना अद्भुत वाहन चलाने में मैं स्वयं को असमर्थ पा रहा था, मैं नहीं चाहता कि पुष्पक विमान सरीखे प्रेम पथिक की गरिमा से किसी प्रकार का कोई खिलवाड़ हो, इसलिए उसे चमेली के लिए उपहार है कहकर कन्या गुरुकुल में दे आया हूँ।' मैं सब एक ही श्वांस में कह गया।

उजबक बहुत सम्मान से मेरी ओर निहार रहे थे, बोले , 'बाह अरुण भाई, कई बार अपनी शपथ भुला कर आपके गाल पर चुम्बन अंकित करने को मन हो जाता है, अगर देवी चमेली के प्रति एकनिष्ठ प्रेम का मन में विचार न आया होता तो हमनें अभी ये कर भी दिया होता।'

'अबे हुर्रर हुर्रर, बदतमीज आदमी,  खबरदार जो ऐसा सोचा भी। ' सुनते ही उजबक जोर से तीन बार हा हा हा बोले फिर कुछ क्षण उनका पेट हंसता रहा। थोड़ी देर में रुक कर बोले ' पर आपको द्वारपाल ने रोका क्यों नहीं?' मैंने कहा 'मुझे कभी नहीं रोकेंगे, हमनें बता रखा है कि गुरुमाता हमारी आंटी हैं। 😎😂'  ये सुनकर उजबक का पेट बिना आवाज़ किए देर तक अकेला ही हँसता रहा।

***

गार्गी उद्यान की आभा अनुपम है, अनेकों विलक्षण पुष्प प्रजातियाँ यहाँ सहज उपलब्ध हैं। बहुत से युगल समस्त जगत से परे, सभी चिंताओं से विमुक्ति पाकर अपने पर्सनल लोक में विचरण कर रहे हैं। आलिंगनबद्ध, चुम्बनरत या प्रेम वार्ताओं में लीन जोड़ों को देख उजबक के ही नहीं मेरे भी स्नायुओं में रक्त प्रवाह की गति तीव्रतर हो रही है। तिस पर प्रकृति भी आज प्रेमानुकूल प्रतीत होती है। चारों ओर पसरी हुई हरी हरी दूर्वा नन्हीं नन्हीं बरसती बूंदों की गुदगुदी से प्रफुल्लित जान पड़ती है। वातावरण इतना मनोहर है कि पर्यावरण में घुली सुगंध पुष्पों की मीठी मीठी भीनी बातें मालूम होती है जिसे हर कोई चुपचाप धीरे से बस सुन लेना चाह रहा है।

उद्यान के एक ओर बने डेस्क पर हम दोनों बैठे हैं। उजबक थोड़ी थोड़ी देर में व्यग्रता से कसमसा रहे हैं। हाथ में पीला गुलाब है। आश्चर्य मत कीजिए, उजबक तो श्वेत गुलाब ले रहे थे, बोले , 'श्वेत रंग शांति का परिचायक है बंधु। प्रेम में कोलाहल नहीं शांति हो तो जीवन उत्सव बन जाता है।' पर मैंने समझाया कि , ' तुम्हारा भाभी से (उजबक ने भी आप ही तरह ये शब्द सुनकर गुदगुदी वाले एक्सप्रेशन दिए थे) युद्ध थोड़े न हुआ जो सफेद फूल देकर संधि प्रस्ताव दोगे। लाल गुलाब दो। प्रेम का रंग है, सौभाग्य का प्रतीक, तभी तो सुहागिनें भी अपने अधिकांश वस्त्र रक्तिम ही पहनती हैं।'

उजबक मेरे तर्क से प्रसन्न हुए पर फिर मुस्कुराते हुए गम्भीर वाणी में कहने लगे, 'आप सत्य कह रहे हैं मित्र, किंतु अभी हमारे प्रेम का विधिवत प्रारंभ होना भी तो शेष है। अच्छा आप कहते हैं तो मैं ये पीतवर्णी गुलाब लिए लेता हूँ। मैत्री सूचक है। अगर देवी चमेली ने हमें अपने मित्ररूप में भी अपना लिया तब भी हम विश्वास दिलाते हैं कि उनके अंतर में अपने लिए प्रेमांकुर अवश्य बो देंगे।'

'अजीब प्राणी है यार, कोई भी विषय हो इसे उसमें अपनी टांग अड़ानी ही है, हुँह मुझे क्या।' मन ही मन मैंने विचार किया।

 उजबक बोले, 'देखिए हमारा प्रेम है उसमें उजबक प्रभाव न रहे तो भी ठीक न रहेगा न।' मैंने थूक निगला, यार इसे सब कैसे पता लग जाता है, और ये लड़कियाँ भी नहीं आईं अब तक।' मैंने सोचा।

 उजबक बोले, 'प्रतीक्षा तो हम भी कर ही रहे हैं, किंतु ऐसा भान हो रहा कि कदाचित हम ही समय से पूर्व आ गए हैं। ये प्रतीक्षा भी अद्भुत होती हैं न अरुण भाई ? हम ये चाह तो रहे हैं कि वो अभी इसी क्षण हमारे पास आ जाएं पर साथ ही साथ इस प्रतीक्षा के दर्द का भी भरपूर आस्वादन कर लेना चाहते हैं। यद्यपि हमारे लिए प्रत्येक क्षण कल्प के समान है, पर साथ ही मन यह भी कहता है कि अगर हमें अनन्त कोटि वर्षों तक देवी चमेली की इसी प्रकार प्रतीक्षा करनी पड़े तब भी हम अवश्य करेंगे। यह प्रेम का कैसा अनूठा रूप है मित्र ?

मैं बोर हो रहा था, पर उजबक प्रेम की ये बातें आज मुझे भी मोहित कर रही थी। जाने कैसे एक अज्ञात ग्लानि से मन भर आया। लगा कि मैं रो दूँगा। कुछ कहना ही चाहता था कि उजबक उछलते हुए से बोल पड़े, 'वो देखो वो ही है, वही हैं न मित्र, मैंने उन्हें कभी नहीं देखा किंतु मेरा मन मुझे पुकार पुकार कर कहता है कि ये वही हैं। कहिए तो वही हैं न मित्र ?'

मैंने गर्दन घुमा कर देखा, दो श्वेत वस्त्रधारिणी ऋषि कन्याएँ हमारी ही दिशा में बढ़ रही थी।

To be continued

#गुरुकुल_पार्ट4

#जयश्रीकृष्ण

✍️ अरुण

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🚲🚲🚲🚲🚲 मैं और प्रेम पथिक ♠️♠️♠️♠️♠️

'अरे यार, ये तुमने क्या पहना है! धोती कुर्ता !? वो भी सफेद ? लड़की से मिलने जा रहे हो या किसी की मैय्यत में अफसोस जताने ? कम से कलरफुल ही पहन लो न यार। और ऊपर से ये तिलक भी? लोग समझेंगे पंडिज्जी किसी के श्राद्ध में जीमने निकले हैं 😩'

मेरे कथन पर उजबक ने कोई विशेष ध्यान न दिया। तिलक लगा चुकने के बाद अपनी शिखा  संवारने लगे। शिखा में कंघी घुमाते घुमाते ही बोले, ' आप जानते हैं अरुण भाई शास्त्र कहता है कि शिखाविहीन मनुष्य चांडाल के समान होता है? जिस प्रकार पृथ्वी के दो ध्रुव होते हैं उसी प्रकार मानव शरीर में भी ध्रुवीय आकर्षण/प्रतिकर्षण पाया जाता है। हमें लगता है देवी चमेली भी इस चुटिया के पाश से मुक्त नहीं हो पाई होंगी। आपका क्या विचार है?"

'ओ महाराज, तुम्हें तुम्हारी इसी चुटिया की कसम। लड़की के सामने चुटिया पुराण मत बाँचने लग जाना कहीं और तुम्हारे इस टॉवर में गांठ लगा लो। लड़की को रेडिएशन न हो जाए कहीं 😂'

'परिहास न करें मित्र, हम अपने प्रथम प्रेम का प्रत्येक क्षण जीना चाहते हैं, उसका आनन्द उठाना चाहते हैं। अब आप अगर व्यवधान न डालें तो थोड़ा काजल लगा लें हम?' उजबक के चेहरे पर मात्र प्रेम था पर जाने क्यों इस क्षण मुझे c लिखा दिखाई दिया।

 'अज़ीब है यार, काजल कौन लड़का लगाता है और वो भी लड़की से मिलने जाते वक्त ? हद ही हो गई।' मन ही मन मैंने कहा।

'हम लगाते हैं कोनो दिक्कत ?' कह कर विमी ने कृत्रिम क्रोध से मुझे देखा। जाने कैसे ये आदमी मन की बात भी सुन लेता है। मैं बस सोच ही रहा था कि उजबक ने अपने तैयार होने की घोषणा करते हुए मुझसे पूछा ,'आप धोती नहीं पहनेंगे ?'

'पहनेंगे' शब्द पर इतना ज्यादा जोर दिया गया था कि मुझे झुक कर नीचे देख कर आश्वस्त हो लेना पड़ा कि वाकई मुझे कुछ पहनने की आवश्यकता तो नहीं ? नहीं नहीं पेंट पहन तो रखी है। इसलिए तुनक कर कहा, 'कैसी बातें करते हो? धोती नहीं पहनेंगे हम, ये जीन्स टी शर्ट ही ठीक है।'

'हम समझ गए, आप नहीं चाहते कि आप हमसे अधिक सुंदर दिखे। बाह अरुण भाई बाह, आपकी दूरदर्शिता को प्रणाम करने का मन होता है हमारा, अभी कर भी देते पर विलम्ब हो रहा है हम नहीं चाहते कि देवी चमेली को हमारे कारण प्रतीक्षा करनी पड़े।' कह कर उजबक मुस्कुराए। मैंने उनकी तरफ अब ध्यान से देखा श्वेतांबर धारी ये गेहुँआँ गुलाब अपने सरसों के तेल से लबालब भरे बालों, काजल से काली की आँखों मे बच्चों सी मुस्कान बिखेरता बहुत अज़ीब पर क्यूट लग रहा था।

'अरुण भाई अब आप ऐसे मत देखिए हमको नजर लग जाएगी, हमारी अम्मा भी कहती हैं उनके लल्ला को यानि हमको नजर तो बस लगने का बहाना ढूंढती है। कोई भी थोड़ा ध्यान से देख ले तो उसी पल हम उसको अच्छे लगने लगते हैं और अगले ही पल हमको नजर हो जाती है। अम्मा कहती हैं कि नजर तभी लगती है जब किसी को कोई बहुत प्यारा लगता है, हमको तो अम्मा की भी नजर लग जाती थी लेकिन वो तो बेचारी सारा दिन थुथकार कर, उतारा करती थी तब कोई दिक्कत नहीं होती थी, वरना जानते हैं नजर लग जाए तो दस्त हो जाते थे हमको। आप नजर मत लगाओ धोती सफेद है न, दिक्कत हो सकती है समझिए।' विमी ने इतनी मासूमियत से कहा कि सचमुच वो बहुत प्यारा लगा मुझे, इसलिए उसका मन रखने के लिए दो बार हल्का थू थू कर के थुथकार दिया।

उजबक की बाँछे खिल गई। पहले वो फिर उनका पेट अलग अलग हंसते रहे फिर चहक कर बोले, 'चलें अरुण भाई?' मैंने कहा चलो तो बाहर की और चलने की जगह भीतर की और दौड़ लगा दी। 5 मिनट बाद वापस आए तो डकार लेते हुए बोले, ' दही चीनी खाकर आए हैं दो कटोरा, हमारी अम्मा कहती हैं कि शुभ होता है।' समझ में नहीं आ रहा था कि इस 85 किलो के बच्चे को कोई कैसे समझाए बस इतना कह, 'अब चलें?' उजबक ने कुछ कहने की बजाय सिर्फ स्वीकारोक्ति में सर हिला कर 'हूँ' कहा।

छात्रावास के बाहर एक साईकल खड़ी थी, जो प्रागैतिहासिक मालूम पड़ती थी। जो इतनी पुरानी थी कि इतना रगड़ रगड़ के धोए जाने के उपरांत भी अपनी जननी का नाम बता सकने में असमर्थ थी। उजबक ने मेरे कंधे पर हाथ रखा, और कहा , 'देखिए हमने वाहन की व्यवस्था तो कर दी है पर हमें इसे चलाना नहीं आता, यद्यपि हम आपके लिहाज से थोड़ा भारी हैं किंतु हमें आपकी मैत्री की शक्ति पर पूर्ण विश्वास है, आप बखूबी इसका संचालन करेंगे। आप जानते हैं हमारे दादा श्री गंगादीन जी जब हमारी दादी माँ को इस पर घुमाने निकलते थे तो बच्चे, बूढ़े, जवान, पुरुष, स्त्री सब का हुजूम उन्हें देखने को उमड़ आया करता था। वो भी क्या दिन थे...। अब चलाइए भी कह कर वो पिछली सीट पर दोनों और टांगे निकाल कर बैठ गए। 'आइए आइए' उजबक ने फिर से कहा तो मैंने कहा कि , 'ऑटो से चल पड़ते ......'

मेरी बात पूरी नहीं होने नहीं दी उजबक ने, बोले , ' कैसी बातें करते हैं आप? प्रेम में तो भावनाओं का ही प्राधान्य होता है,  पहली बार मिलने जा रहे हैं, तो किराए के साधन पर बैठेंगे ? न न न , अपना वाहन तो अपना ही होता है, और ये वाहन तो अनन्त काल से प्रेम पथिकों का अवलंब बना है, हम चाहते हैं कि हमारे प्रेम का साक्षी भी यही बनें, कोई ऑटो नहीं। चलिए भी आपको बहुत आनन्द आने वाला है इस पर बैठ कर ,कह कर उजबक ने जोर से ड्राइवर सीट पर हाथ मारा। सीट उछल कर नीचे जा गिरी। उजबक मुस्कुरा कर बोले, 'आज समय बहुत शुभ है। माँ वसुधा को प्रणाम करना हम और आप भूल रहे थे तो इस ने याद दिला दिया।' कहते हुए उजबक ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे पायलट सीट पर बिठा दिया। मुझे लगा कि धरती जोरों से हिल रही है, लगा कि अगर इसे चलाया नहीं ये प्रेम पथिक हमें लेकर धरती में समा जाएगा। पांव से जोर लगाया पर कोई असर न हुआ, वैसे भी ट्रक में मोटरसाइकिल का ईंजन लगा हो तो दिक्कत आती ही है। मेरी सहायता के लिए विमी ने अपने पाँवों का बूस्टर लगाया, साईकल मचमचाती नाचती सी चलने लगी। हैंडल भी थोड़ा ढीला था इसलिए अपनी मर्जी से घूम रहा था पर जैसे तैसे मैं उस पर नियंत्रण बनाए हुए था। उजबक के पाँव भी लगातार पतवार की तरह गति बढ़ रहे थे मैं सीधे सीट से उठ कर पैडल पर सवार होकर फटाफट साईकल चलाने लगा। 8-10 बार जोर से पैडल लगा कर जब पैर सुस्त पड़ने लगे तो मैं उछल कर सीट पर वापस बैठ गया। दादाजी की साईकल को ये गुस्ताखी जैसा लगा , उसकी सीट की स्प्रिंग ने पिछवाड़े पर जोर से काट लिया। मैं फिर से उछल पड़ा, सीट नीचे गिर कर माँ वसुधा को पुनः प्रणाम करने लगी। ब्रेक लगाए पर लगे नहीं, इसलिए अगले पहिए में टाँग अड़ा कर रोकने की कोशिश की। बैलेंस बिगड़ा, पहले उजबक , फिर हम और हमारे ऊपर प्रेम पथिक आ कर गिरे। पर गनीमत ये रही कि मैं सीट गिरने के बाद वापस बैठा नहीं, अगर मैं जरा भी असावधान होता तो फिर कभी किसी सीट पर सीधे बैठने की हालत में न रहता।

To be continue....

#गुरुकुल पार्ट 3

#जयश्रीकृष्ण

✍️ अरुण

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👶🤔🤓😍😘 हृदय परिवर्तन ♠️♠️♠️♠️♠️ .

प्रातः 6 बज रहे हैं, उजबक अपनी दैनिक क्रियाओं से निवृत होकर आकाश में अनन्त, असीम लालिमा को निहार रहे हैं। चेहरे पर सदैव के समान तेज़ है पर आज यूँ भावशून्यता देखना मुझे अच्छा नहीं लगा। कल ही विमी के पैसों से गुरुकुल के विद्यार्थियों ने गुलछर्रे उड़ाए थे, लगा कि कहीं इस भावशून्यता के पीछे जो कारण है कहीं उसकी जड़ें कल रात से ही तो नहीं जुड़ी हैं। मुँह में नीम का दातुन खोंसे मैं उजबक के पास चला आया, और कहा ,'क्या भाई आज बेचारे सूर्य देव को उदय होने दोगे या नहीं। कब से घूरे जा रहे हो, बेचारे डर कर निकल ही न रहे। 😜 ऐसा जुल्म मत करो प्यारे, इस अरुण का बदला उस अरुण से लोगे?'

उजबक  मेरी ओर स्मित नेत्रों से देख मुस्कुराते हुए बोले, 'ऐसा नहीं है मित्र, आप से मैं तो क्या गुरुकुल का कोई भी सदस्य रुष्ट हो ही नहीं सकता। वस्तुतः हमारे चिंतन का विषय वो नहीं है। कल आप सब जब आनन्दित हो रहे थे तो मैं बहुत उहापोह में था। मुझे स्वयं भी ये भान हुआ कि आप जो कह रहे हैं, उसे सिरे से नकारा नहीं जा सकता। मैं युवा हूँ, एक युवा के रूप में किसी संगिनी की कामना करना कोई चारित्रिक दोष नहीं, वरन अलंकरण ही कहा जाना चाहिए। भगवान भास्कर जब उदित होते हैं तो उनके साथ उनकी भार्या, ये अनुपम अरुणिमा उनकी कांति को द्विगुणित कर सृष्टि को उनके आगमन की सूचना देती है, क्या कोई चंद्र की कल्पना उनकी शीतल किरणों के बिना भी कर सकता है? आप सही हैं, प्रेम कोई बंधन नहीं, वह तो आह्लाद की विषयवस्तु है। मुझे भी किसी से प्रेम करना है, ऐसा प्रेम जैसा मीन जल से करती है, जिस संयोजन में पृथकता के लिए कोई स्थान न हो, आपने कल चमेली का जो पत्र मुझे हस्तांतरित किया, यद्यपि उसके कुछ अंशों को समझ पाने में मैं स्वयं को अक्षम पाता हूँ तथापि मुझे पूर्ण विश्वास है कि यदि आपने उसे मेरी ओर से हाँ कह ही दिया है तो अवश्य ही वे ही मेरी सहधर्मिणी बनने योग्य हैं। मैं इसे विधाता के विधान के रूप में स्वीकार कर अत्यंत हर्षित अनुभव कर रहा हूँ।'

मैं उजबक के भाषण, आई मीन उदबोधन को ध्यान लगा कर सुनने की कोशिश कर रहा था, कुछ समझ में आया कुछ नहीं, सुनकर दांत फिर से दातुन से खुरचना चालू करते हुए मैंने कहा,' भाई तुम हिंदी में बात किया करो न प्लीज, अच्छा सुनो न वो तुम्हारे वाली मिलने को बोली है तो कब मिलने जाओगे ? और हाँ ये न समझना कि तुमको १००० रुपल्ली का फ़टका लगा दिया। देखो यार, पार्टी जरूरी थी तो कर दी, वैसे हमको ये भी पता है कि तुम्हारे पास पैसे नहीं है। चिंता नको रे, तुम्हारी सब बीमारियों का इलाज अरुण मलहम तुम्हारे पास खड़ा है। पैसे का इंतज़ाम हमने कर लिया है, बस एक शर्त है हमको भी साथ ले जाना पड़ेगा। '

'देखिए हमें तो कोई आपत्ति नहीं मित्र, पर क्या यह उचित होगा ? मेरा अभिप्राय है कि आपकी उपस्थिति कहीं हम दोनों को असहज तो न कर देगी? कल्पनाओं की बात ओर है बन्धु किंतु यथार्थ में हमें इस संदर्भ में कोई अनुभव प्राप्त नहीं है, शेष आप ज्यादा जानते हैं, जैसा कहेंगे वैसा ही करेंगे।' उजबक बोले।

उजबक का मुझ पर अटूट विश्वास देख कर मैं फूल कर कुप्पा हुआ जा रहा था, इसलिए चौड़ियाते हुए खम शुरू किया, 'देखो मुन्ना, अब जब तुमने सब मुझ पर ही छोड़ दिया है तो टेंशन फ्री हो जाओ, कोई दिक्कत न होगी। सब पिलान रेडी है।' उजबक के कंधे पर हाथ रख कर बेतकल्लुफी से कहना जारी रखा ,'लड़की लड़के से मिलने जा रही, वो भी पहली बार, अकेली तो जाने से रही, कोई न कोई उसके साथ भी आएगी। उस कबाब की हड्डी को चबाने आई मीन हैंडल करने के लिए भी मेरा आपके साथ चलना बहुत जरूरी है। 😉😜 '

'वाह' सहसा उजबक के मुँह से निकला, फिर बोले 'आपकी दृष्टि बहुत व्यापक और दूरगामी है मित्र। आप निःसन्देह मेरे सर्वोत्तम मित्रों में से भी सर्वश्रेष्ठ कहे जाने योग्य हैं। पर धन की व्यवस्था कहाँ से हुई? क्योंकि जहाँ तक मुझे ज्ञात है आपके पास भी कोई संचित निधि होना असंभव है।'

मैं हंसा और कहा, 'टेंशन नको रे, बोला तो। जानते हो न, मारवाड़ी कभी रिक्स नहीं लेते। अच्छा ठीक है, ये देखो हमारा जुगाड़। ' कह कर मैंने एक कार्ड उजबक के हाथ में रख दिया। कार्ड देखते ही उजबक के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी, बोले 'पर ये तो सरदार का क्रेडिट कार्ड है, आपने चोरी की ? मुझे आपसे ऐसी आशा न थी मित्र, नजरों से गिर गए आप...'

'ओ हेलो, कोई चोरी बोरी नहीं करी मैंने, कल रात को सरदार खेत गन्दा करने गया था पॉटी करके, कार्ड वहीं छूट गया। जब वापस आया तो ढूंढा उसने, नहीं मिला। पर वो तो बेफिक्र हो गया, बोला हमको घण्टा फर्क नहीं पड़ता। हमने मोमबत्ती जला के पौना घण्टा खर्च किया तो कार्ड पाए हैं। हमारे मेहनत की कमाई है समझे। उ सरदार का कोनो हक नहीं इस पर, मांगे भी मुक्का मार देंगे हम। उ देखो वहाँ गेहूँ की बोरियों पर नींद में पड़े पड़े न जाने किसे सोच कर चुम्मियां उड़ा रहा अश्लील आदमी।' मैंने थोड़े आक्रोश से कहा।

'हम्म आप सही हो, आप गलत हो ही नहीं सकते, मुझे आप पर गर्व है मित्र' कहकर उजबक पुनः पूर्व दिशा निहारने लगे, उदित होते सूर्य की किरणें उनके भाल पर पड़ने लगी थी, मैं साफ देख पा रहा था कि इस साधु पुरुष के जीवन में निकट भविष्य में अवश्य कुछ क्रांतिकारी घटित होने वाला है।

To be continued.....

#गुरुकुल_पार्ट2

 #जयश्रीकृष्ण

✍️ अरुण

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👶👶👶👶👶 वन्स अपॉन ए टाइम इन गुरुकुल ♠️♠️♠️♠️♠️

'अच्छा अरुण भाई , जानते हैं हमको क्या लगता है ? हमको लगता है साहित्य में स्तरीय या लुगदी साहित्य जैसे भेद नहीं होने चाहिए। विधा चाहे जो हो हर साहित्यकार अपने अनुभव और ज्ञान के कोष से शब्द चुन कर अपनी कृति को अलंकृत करता है, किसी की अभिव्यक्ति के लिए 'लुगदी' जैसे विशेषणों का प्रयोग मुझे नितांत अनुचित प्रतीत होता है।'

अरे , अरुण भाई, कहाँ गए, अभी तो यहीं थे।? ' कहकर उजबक इधर उधर देखने लगे।

'अरे भाई, नीचे देखो तनिक, गर्मी लग रही थी, आप ही की छाया में बैठे हैं। खीखीखी

उजबक ने जोर से हंसने का उपक्रम करके बड़ी गम्भीर आवाज़ में तीन बार हा हा हा बोला। फिर बोले, 'आप बाज नहीं आएंगे कभी, उठिए देखिए न कितना गम्भीर विषय है। '

'हम्म गम्भीर तो मुझे भी लगता है। एक बात बोलें, यूँ तो आप काफी छायादार हैं हमारे लिए पर हम गारण्टी के साथ कह सकते हैं कि आप मोटे नहीं हो। आई थिंक आपको गैस हुई है, अमा कभी खुल कर भी हंस लो यार। 😜'

जवाब में उजबक ने चेहरे पर क्वेश्चन मार्क उकेरा, मुझे सहसा याद आया कि जो इंसान जब गले लगाता है तो हड्डियाँ अचानक तड़तड़ा कर बेडरेस्ट मांगने लगती हैं, अगर वही हमको मुक्का मार देगा तो शायद पीठ का हाल वैसा ही होगा जैसा बड़ा सा उल्कापिंड गिरने से पृथ्वी का होता है। इससे पहले की उस क्वेश्चन मार्क की जगह क्रोध ले मैंने तुरंत उनका ध्यान किसी दूसरी और आकर्षित किया, ये कहकर कि ,'गुरु आपने कभी प्रेम किया है?'

क्वेश्चन मार्क की जगह अब गर्व साफ दिखाई पड़ता था, अपने भाल को उन्नत कर उजबक बोले ,' हाँ बिल्कुल किया है, मैं अपनी जननी इस मातृभूमि से, इसके कण कण से, समस्त चराचर जगत से, अपने गुरुजनों, परिजनों यहाँ तक कि तुमसे भी प्रेम.....'

'ओ हेलो, रुको महाराज, ये सब ठीक है, पर आपने सादुलशहर की जगह सादुलपुर की बस पकड़ ली। ये नहीं वो दूजे टाइप के प्रेम का बताइए हमको, किए हैं कभी ?' हमने बीच में रोक कर कहा। उनके चेहरे पर एक भोला, मासूम और क्यूट सा क्वेश्चन मार्क फिर से उभर आया। तो हमने सीधे कहा, 'अरे गुरु, कोनो लड़की से प्रेम नहीं हुआ? और हाँ खबरदार जो माँ या बहन को इस प्रश्न के उत्तर में आसपास भी फटकने दिया तो, लड़की बोले तो लड़की , अब क्या बोले यार, एक तो आपसे सवाल पूछना ही महाभारत हो जाता है। यूँ कि ये बताइए, किसी कन्या को देखकर आपके मन का 'घनानन्द' जागा हो? कोई ऐसी कन्या जिसके लिए पूर्ण तन्मयता से ढेर सारा शृंगार लिखने या सुनाने का मन हो ? कोई ऐसी कन्या जिसके पदार्पण से आपका मनमयूर स्वतः नर्तन कर उठता हो? कोई है ऐसी ?'

उजबक गुरुकुल में सबसे अच्छे विद्यार्थी माने जाते हैं, और माने क्या जाते हैं वो हर क्षेत्र में सबसे अच्छे हैं भी। आज पहली बार उनसे किसी ने ऐसा प्रश्न पूछा था। मैं उनके चेहरे पर विभिन्न भावों का प्रवाह देख रहा था। उनकी आँखें उनकी मुस्कान के साथ विस्तारित होती चली गई, गाल भी सुर्ख होकर किसी षोडसी से समता करने का आग्रह करने लगे। सुना था लज्जा नारी का आभूषण है, ये आभूषण उजबक ने कब खरीदा मालूम नहीं पर आज पहने हुए मैं देख पा रहा था। गर्दन झुका कर सर नीचे किया, फिर धीरे से आँखे ऊपर की और मेरी ओर देखा। 'हाय मेरी जान, काश तुम ललकी होते' लगा कि जैसे मेरे ही मन में किसी ने पुकारा।

'अब नखरे ही करोगे या कुछ बताओगे भी', मैंने कहा।

उजबक ने सलज्ज होकर धीमे स्वर में कहना शुरू किया,' यद्यपि मेरे विचार में प्रेम नितांत निजी अनुभूति है तथापि आपसे मैत्री की सघनता मुझे आपके लिए अंतर के इस रहस्य को अनावृत्त करने का आग्रह कर रही है।'

अचानक मेरे मुँह से निकला 'हैं??' , मुझे खुले मुँह और अवाक देखकर उजबक बोले, 'मेरा आशय है कि मैं आपके इस प्रश्न का उत्तर अवश्य दूँगा मित्र।'

'प्रेम तो पारस है मित्र, कौन इसका स्पर्श पाकर कंचन न हो जाना चाहेगा? किंतु शैशवकाल से लेकर वर्तमान तक हमनें अपने लक्ष्य ही से प्रेम किया है। आपको याद है न विवेकानंद जी ने क्या कहा था,'उठो , जागो और तब तक न रुको जब तक.....'

'देवता जी , विवेकानंद ने चाहे जो कहा हो, पर आप अभी अपनी जीभ को ब्रेक लगाओ, और हाँ ये लो तुम्हारे नाम से पास वाले कन्या गुरुकुल की चमेली ने ये लैटर आई मीन पत्र आपके लिए भेजा है। यूँ की आप चाहो न चाहो पर छोरी आपसे पट गई है, जबरदस्ती। एक बार और, ना कहने का सवाल ही नहीं क्योंकि आपकी और से हाँ वाला लेटर हम खुद अपने पर्सनल कर कमलों से लिख कर दे चुके हैं, तुम्हारे बैग से १००० रुपए निकाले थे शाम को पार्टी है, मन हो तो आ जाना।

अब उजबक के चेहरे पर जो भाव थे उन्हें वर्णित करना मेरे लिए सम्भव न था।

#जयश्रीकृष्ण

✍️ अरुण

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😜😜😜😜😜 लव 2 बी फट्टू ♠️♠️♠️♠️♠️

 एक दोस्त हैं, बड़े दिलेर टाइप, बोले तो हर काम को मर्दानगी से करने वाले। बोलने से लेकर चलने तक सबमें माचो लुक कम्पलसरी है और ये वो कैसे घुसेडते हैं ये कोई उनसे ही सीखे। हम लोग कॉलेज में थे, एक दिन हमारे रूम पर पधारे तो देखा हेयर स्टाइल चेंज कर रखा पठ्ठे ने, पूछा तो बोले, 'अबे तुम न समझोगे, लड़कियाँ मरती हैं ये सब स्टाइल पर'। हम अवाक होकर सुनते रहे, उनकी कुछ ज्ञात अज्ञात कहानियों पर वृह्द चर्चा, उनके डेयरिंगनेस के किस्से, खुद की उन्हीं की जुबानी। चेहरे पर हल्की चोट के निशान देखकर पूछा तो बोले अरे वो झगड़ा हो गया था किसी गैंग से, वो 7 थे हम अकेले, लेकिन एक एक को तबियत से कूट के आए हैं, पर 7 लोगों से एक साथ भिड़ोगे तो एक आध खरोंच खुद को भी लग ही जाया करती है। ये कह कर गर्व से मेरी और देखा। मैं खिसिया कर किताब में मुँह छुपाने लगा। फिर जब वो चले गए तो मेरा दोस्त बोला, 'फेंकता है साला। पता है श्याम बता रहा था कि उसके अकॉउंट से केंटीन में रोज कुछ न कुछ खा जाता था ये बिना बताए, पूछा तो अकड़ने लगा, श्याम ने घसीट घसीट के पीटा है। मैं बस मुस्कुरा भर दिया। शायद कुछ कहने को था भी नहीं।

****

कॉलेज में राजनीति की क्लास चल रही थी, हम सबसे पीछे बैठे थे। माचो बाबू सपना का सपना रोज देखते थे इसलिए उस दिन उसी के पास वाली सीट पर हकीकत में जा बैठे। शायद कुछ कहने की कोशिश भी हो रही थी, सपना ने हिकारत भरी नजरों से उन्हें देखा फिर वापस क्लास में कॉन्सन्ट्रेट करने लगी। अचानक माचो बाबू ने उसकी जांघ पर हाथ रख दिया। सपना उठी, हाथ को 270° पीछे घुमाया और प्रकाश की गति से वापस छोड़ दिया। एक जोरदार आवाज़ ने बाकी क्लास का भी ध्यान आकर्षित किया, किसी ने कुछ न पूछा। माचो बाबू के चेहरे पर छपी पतली पतली धारदार उंगलियों की लालिमा सब हलफन बयान कर रही थी। बाद में ये भी सुना कि प्रिंसिपल के सामने छोरी ने तब माफ किया जब इसने 51 बार नाक से जमीन पर सॉरी लिख कर माफी न मांग ली। शाम को जब रूम आए तो बोले अरे यार गिर गए थे नाक पर घसीट लगी है ये भी बोले कि लड़कियों को सच्चे प्यार की कद्र नहीं होती, इसलिए अब वो भी सपना से प्यार नहीं करते। जा बेवफा जा तुझे प्यार नहीं करना टाइप। फिर मेरी और देख कर मुस्कुराए बोले साले फट्टू किताबों में घुसे रह जाओगे कुछ न होना तुमसे।

****

एक दिन हम सब मेला देखने जा रहे थे सुखाड़िया सर्किल, जाने किधर से माचो बाबू भी आकर साथ हो लिए। मैंने श्याम से धीरे से कहा ये खुद भी पिटेगा और हमें भी पिटवाएगा। कान बहुत तेज़ थे कमबख्त के, सुन लिया शायद, बोला अबे डर मत छिलके, मेरे होते कोई हाथ नहीं लगा सकता तुमको। मैं मन ही मन बोला कि साले यूँ तो कोई न लगाएगा तेरी वजह से ठोक दे तो बात अलग है। उसने फिर से मेरी और घूर के देखा।

मुझे उस गोल झूले से बहुत डर लगता है जो ऊपर से नीचे गोल गोल घूमता है। खासकर तब जब वो नीचे से ऊपर आने लगता है, उस वक़्त जो हिलोर आती है तो सच्ची कलेजा बैठ जाता है। माचो बोले कि झूलेंगे हम बोले नहीं झूलेंगे, पर इस हाँ ना के बीच वो श्याम को लेकर झूले पर सवार हो गए। झूले पर लड़कियाँ भी सवार थी। झूला चलने से पहले ही लाइन मारना शुरू कर दिया, मानो झूले नहीं फेरे लेने जा रहे उनके साथ, और अब जब उतरेंगे तो बस घर बसा कर ही उतरेंगे। हर चक्कर के साथ माचो जोर जोर से चिल्लाते हुर्रर हुर्रर , पहले तो लगा वो एक्साइटेड होकर चिल्ला रहे, पर थोड़ी ही देर में उनका हुर्रर अबे साले रोक में बदल गया। झूला तेज़ गति पकड़ चुका था। अचानक रोकना शायद सम्भव भी नहीं था। जब किसी ने उनकी आवाज़ न सुनी तो रोने लगे। लड़कियाँ हँस रही थी, मैं भी। पर थोड़ी ही देर में लड़कियाँ हंसना छोड़ माचो की साइड लेकर झूला रोकने को चिल्लाने लगी। ना ना, वो डरी नहीं, दरअसल माचो साहब डर के मारे लीक हो गए थे और उनका लीकेज लड़कियों पर छींटों की शक्ल में गिर रहा था। जब झूला रुका तो हांफते हुए माचो दोनों गालों को छुपाने के यत्न कर रहे थे जिस में लड़कियों ने बदतमीज बोल कर फिर से रंग भर दिए थे। मुझे देखा तो बोला पता नहीं किस साले ने पानी गिरा दिया, सब कपड़े भीग गए।

***

कॉलेज के साथ ही माचो का भी साथ छूट गया। कभी कभी सोचता भी कि अपनी कमजोरी से उबरने की कोशिश करना तो ठीक है पर कमज़ोरी को छुपाने का उस तरह दिखावा कितना जरूरी होता होगा? खैर आज मार्किट गया था, तो फिर से माचो मैन मिल गए, उनकी भैंस के पीछे सब्ज़ी का थैला उठाए चल रहे थे। मैंने आवाज़ दी तो मेरी और देखा पर फिर बिना कुछ कहे आगे बढ़ गए।

#जयश्रीकृष्ण

✍️ अरुण

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🚌👬🥛💦🌧️💦💫 ब्रह्मज्ञान ♠️♠️♠️♠️♠️ .

रेलवे में काम करना कभी मेरा सपना था, बहुत से एग्जाम दिए अनगिनत बार फैल हुआ और आखिरकार पास भी, असिस्टेंट स्टेशन मास्टर और गुड्स गार्ड के पदों पर सेलेक्ट भी हुआ, पर उससे पहले राजस्थान सरकार मेहरबान हो गई, घर से कुछ दूर चलते ही पोस्टिंग भी हो चुकी थी इसलिए पश्चिम रेलवे जोन के अहमदाबाद मंडल से नियुक्ति आदेश मिलने पर भी गया नहीं। इकलौता बेटा होने की दुहाई देकर कुछ मित्रों ने ही समझा दिया कि इससे आराम की नौकरी और क्या होगी , रेलवे में रहे तो परिवार के साथ लगभग हर दूसरे साल घरवालों के साथ सामान उठाए घूमोगे, बाकी सब से कट जाओगे सो अलग। मान ली उनकी बात, और नहीं गया। 

खैर ये उन दिनों की बात है जब मैं लगातार फैलियर झेल कर निराशा के अथाह सागर में गोते लगा रहा था। बी. एड. करने के बारे में कभी सोचा नहीं था पर जब लगा कि अब बाकी विकल्पों ने साथ देने से मना कर दिया है तो सीधे कश्मीर यूनिवर्सिटी में एडमिशन ले लिया, राजस्थान में ही बीएड एंट्रेंस एग्जाम देता तो शायद हो भी जाता पर यू नो ना, फैल हो हो कर इतना दिमाग खराब हुआ पड़ा था कि सोचा नो रिक्स रे बाबा। बीएड को अपने कुछ तथाकथित शुभचिंतकों की पकाऊ बातों और घनघोर निराशा से उबरने के साधन के रूप में लिया था। हम 6 लोग थे तो सोचा हॉस्टल के प्रतिबन्धों के झेलने के बजाय बाहर स्वतंत्र रहा जाए। इसलिए मैं और मेरे एक मित्र ने सेशन शुरू होने से पहले कश्मीर का एक एक चक्कर लगा कर रेंट पर मकान की व्यवस्था कर आने का निश्चय किया। अभी मैंने जो भी राम कहानी हलफन बयान की ये उसी चक्कर मे कश्मीर जाते समय की यात्रा से सम्बंधित है। हो सकता है कि आप कहो कि इसके बिना भी काम चल सकता था, शायद हाँ, पर मेरी मर्जी, मैं आपको जबरदस्ती ये भी सुना कर ही रहूँगा। 🤣🤣🤣🤣🤣

बहरहाल खर्च की कोई चिंता नहीं थी, क्योंकि हमारी इस यात्रा को 6 लोगों द्वारा मिल कर स्पॉन्सर किया जा रहा था। श्रीगंगानगर से जम्मू के लिए बस में स्लीपर बुक करवा लिए। रास्ते के लिए सब कुछ लिया पर पानी भूल गए। रात में जब दोनों का गला सूखने लगा तो बस रुकने का बेसब्री से इंतज़ार होने लगा और जैसे ही मौका मिला मित्र दौड़ कर 2 लीटर स्प्राइट और 2 बोतल पानी ले आया। 'अबे कितने जन्म का प्यासा है' मैंने कहा तो वो दांत चियार कर बोला अब प्यास की ऐसी की तैसी। जब पानी की दोनों बोतल हम दोनों ने तुरंत खत्म कर दी तो लगा लौंडे ने काम तो सही ही किया है। लगा कि प्यास अब भी थोड़ी बाकी है तो स्प्राइट की बोतल की गर्दन मरोड़ कर शुरू हो गए। तुरंत तो नहीं पर कुछ देर बाद वो भी चरम को प्राप्त हो गई। अपने मित्र की समझदारी पर खीखी करते बतियाते कब नींद आ गई पता ही न चला, सुबह 6 बजे जम्मू पहुंचने से पहले लगभग 5:30 पर ही हमें हमारे ब्लैडर ने उठा लिया जो चीख चीख कर कह रहा था कि जल्दी से खाली करो मुझे वरना अगर वो अपनी पर आया तो हमें पानी पानी कर देगा। कंडक्टर से पूछा तो बोला अभी बस पहुंचने ही वाले हैं। तनाव हमारे चेहरे से साफ झलक रहा था, धीरे धीरे जम्मू के नजदीक आने के साथ ही प्रेशर एकतरफा से दो तरफा होते जा रहा था। बार बार ,'भाई कितना टाइम और लगेगा' पूछते उसके 'बस पहुंच ही गए समझो' वाले आश्वासन से अपने प्रेशर को बहलाते आखिर जम्मू पहुँचे। हमारे एडमिशन वाले एजेंट ने बोला था कि जम्मू से श्रीनगर के लिए तुरन्त निकल लेना, जितना देर करोगे उतनी समस्या बढ़ती जाएगी, हो सकता है साधन न मिलें या रास्ते में फंस जाना पड़े। उसकी बातें सुनकर सोच रखा था कि हाँ सही है तुरन्त निकल लेंगे। पर फिर लगा फिलहाल सुलभ शौचालय पर 'कुछ चढ़ाना' सबसे ज्यादा इम्पोर्टेन्ट हैं। हालांकि वहाँ भी भीड़ ही थी सवेरे सवेरे, जहाँ विभिन्न धर्मों और जातियों के योद्धा हर तरह के जातिगत और साम्प्रदायिक द्वेष से परे अपने तनाव पर विजय पाने और फिर उससे मुक्ति प्राप्त करने हेतु प्रयासरत थे, अपने विशिष्ट मारवाड़ी कौशल का प्रयोग करते ही सबको छकाते हुए हमने वो जंग फतेह हासिल की। बाहर आए तो लगा जैसे कुछ प्रॉब्लम कभी थी ही नहीं और ये लोग पागल हैं क्या, क्यों खड़े हैं यहाँ, कुछ काम धाम तो है नहीं, हुँह। 😉

श्रीनगर के लिए जाने से पहले पानी की दो बोतल और 2 चिप्स के पैकेट ले लिया गया, अगेन नो रिक्स रे बाबा, क्या पता फिर प्यास लगे तो पानी तो साथ होने को मांगता है कि नहीं। किसी टाटा सूमो में 400/- प्रति व्यक्ति देने की बजाय बस में 300/- दोनों की टिकट के लिए देना हमारे मारवाड़ी मन को ज्यादा सही लगा, भले ही खर्च की कोई पाबंदी नहीं थी पर कंजूसी भी कोई चीज होती है, जिसे मितव्ययता के व्रेपर में लपेट कर हम एक दूसरे को बेवकूफ बना चुके थे। बस में चढ़े तो पता लगा सबसे लास्ट वाली सीट्स पर हम बैठेंगे। सही है गुरु, कौन क्या कर रहा है सब दिखेगा, एक्स्ट्रा झूले मिलेंगे सो अलग, सब हमारे कंट्रोल में है, ग्रेट। बस में बिल्कुल वैसा ही माहौल था जैसा बाकी बसों में होता है, फर्क बस इतना था कि यहाँ जालीदार टोपियाँ ज्यादा नजर आ रही थी। सब अपने आप मे 'मशगूल' थे तो हम भी खाने-पीने में व्यस्त होने का उपक्रम करने लगे।

जब भी जम्मू का नाम सुना कश्मीर के साथ ही सुना, इसलिए ये वहम था कि उसका ये जुड़वां भाई उसी के आसपास ही होगा। पर हमारे सारे अनुमान मुँह में कचड़ कचड़ करती चिप्स से भी कमजोर निकले, सब बिना आवाज़ किए ध्वस्त हो गए जब एक सहयात्री से पूछने पर उसने बताया कि कम से कम 10-12 घण्टे लेगी ये बस😱😱। अबे मरवा दिया बे, 12 घण्टे लगेंगे 😱😱😱😣😣😣 मित्र की और देखा वो भी परेशान नजर आया पर उसकी परेशानी का कारण अलग था, बोला यार मुझे नम्बर वन वाला प्रेशर फिर से आ रहा। देखा जाए तो इस सिचुएशन में मुझे उससे ये डायलॉग खम चाहिए था कि अभी थोड़ी देर पहले ही तो फ्रेश हो कर आए हो पर नहीं बोला। क्यों? क्योंकि भविष्य के अकाल की कल्पना करते हम दोनों ने इतना पानी उदरस्थ कर लिया था कि अब ब्लेडर "एक बार से दिल नहीं भरता, मुड़ के देख मुझे दोबारा" गा रहा था। मित्र से थोड़ा कम ही सही पर मुझे भी अपना ब्लैडर फिर से भरता सा मालूम हुआ। पर सोचा बस ही है, रुक रुक कर जाएगी, जैसे ही ड्राइवर ब्रेक लगाएगा हम उतर कर ब्रेक हटा देंगे, हां नहीं तो 😂।

थोड़ी देर मुस्कुराने की कोशिश जरूर की, पर ऐसे तनाव में मुस्कुराते रहना सबके बस का नहीं होता, हमारे भी नहीं था। बाहर के दृश्य लुभावने तो छोड़ो डरावने भी नहीं लग रहे थे। बाहर सड़क के एक और पहाड़ थे, और दूसरी और गहरी घाटी, ड्राइवर लगातार बस को किसी रॉलर कोस्टर की तरह भगा रहा था। आसपास दूर दूर तक कोई गाँव या शहर नजर न आता था। चिप्स अच्छी लगनी बन्द हो गई। मन में आ रहा था बस एक बार बस रुक जाए तो घाटी में सैलाब ला दूंगा। आखिरी सीट वाले झूले भी सुहाने न लग रहे थे, हर हिलोर के साथ लगता जैसे थोड़ा भी ध्यान हटा तो बस ही में प्रलय आ सकती है। आखिर कंडक्टर को बोला गया कि बस 2 मिनट ही के लिए पर प्लीज बस रोक दो। उसने हमें ऐसे देखा जैसे हम एलियंस हैं, फिर आगे देखने लगा। उसकी ये उदासीनता देख हमारी टेंशन हमारे सर चढ़ कर बोलने लगी, मर्यादा वर्यादा भूल सीधे जोर से कह दिया, अबे बस रोक नहीं तो बस ही में निकल जाएगा। बस की बाकी सवारियों ने पीछे सर घुमाया , एक ज़ोरदर सम्मिलित ठहाका बस में बड़ी देर तक प्रतिध्वनित होता रहा। कंडक्टर शायद बुद्धत्व प्राप्त मनई था, चेहरे पर स्थायी विषाद की छाया लिए उसके चेहरे पर कोई भाव न था, सिर्फ इतना बोला बारिश हुई थी रात में लैंडस्लाइड में फंस गए तो मुश्किल हो जाएगी। थोड़ी देर में खाने के लिए रुकेंगे तब कर लेना। 'खाना? खाने से ज्यादा निकालना जरूरी है। और अभी तो 9 बजे हैं , इतनी जल्दी कौन खाना खाता है? यार अंकल, प्लीज रोक दो।' हमने लगभग गिड़गिड़ाते हुए कहा। कंडक्टर बस इतना बोला कि 'अभी नहीं 12 बजे तक रुकेंगे खाने के लिए' और फिर मुँह फेर लिया। मन तो किया कि सब तमीज साइड में रख के घुमा के दे दूँ अंकल के थोबड़े पर, मुँह घुमाना भूल जाएगा। जाहिल, गधा, उल्लू, पाज़ी। पर आईडिया ड्राप कर दिया। एक तो अंकल मस्क्युलर थे और ऊपर से हम दोनों डेढ़ पसली, क्योंकि अगर दोनों पंगा ले भी ले लेते और एक भी चांटा लग जाता तो तुरन्त गर्म झरनों का बहना भी तय था।
अपनी किस्मत और मूढ़मति को कोसते वापस वहीं अपनी सीट पर आकर बैठ गए। टाइम पास करने और ध्यान भटकाने को मोबाईल निकाला तो देखा इसमें भी नेटवर्क नहीं, किसी ने बताया कि शेष भारत के प्रीपेड कश्मीर में बंद हो जाते हैं, नोकिया 1110 था और सांप वाला गेम कितनी देर तक खेलेगा कोई, हाय री किस्मत, ऊपर देखा, मन से आवाज़ आई भगवान तुझे एक्सपेरिमेंट करने को या परीक्षा लेने को मैं ही मिलता हूँ? और ये भी कोई परीक्षा है भला? चीटिंग करते हो, चीटिंग चीटिंग चीटिंग 😣😢। मोबाईल में भले ही नेटवर्क नहीं था, पर अचानक लगा जैसे भगवान ने सुन ली हो, अचानक हल्की हल्की बारिश होने लगी। पहाड़ से पत्थर गिरने लगे, तो ट्रैफिक जाम सा होने लगा। बस के ब्रेक लगे तो हम दोनों तुरन्त बिना कुछ भी किसी से कहे सीधे झटपट बस से उतर गए। पत्थर हम पर गिर सकते थे, हम मर सकते थे, बस चली जाती तो वही पहाड़ों में फंस भी सकते थे, पर हु केयर्स , दौड़ कर गए, स्वच्छता अभियान से मुँह घुमा कर घाटी की और कर लिया,अचानक ब्रह्मज्ञान हो गया, अहा परमोसुखम् , बस यही सत्य है शेष समस्त जगत मिथ्या है।

#जयश्रीकृष्ण

✍️ अरुण

Rajpurohit-arun.blogspot.com

🏃🏃💃🏃🏃 चौने पार ♠️♠️♠️♠️♠️

समय सुबह के 3 बज कर छियालीस मिनट, बिल्कुल एग्जेक्ट बता रहा हूँ उठते ही हमेशा की तरह फोन जो देखा था। सोचा पौने 4 वाली पौनाई चल रही क्या इस वक़्त उठकर जॉगिंग करने से कोई लाभ भी होगा? नहीं शुभ काम अशुभ समय पर करना सही नहीं होगा, इसलिए कुछ देर 'जियो' नेटवर्क का सदुपयोग किया। ठीक 4 बजकर 3 मिनट छियालिस सेकंड पर घर से बाहर कदम रखा, हाँ जी फिर से टाइम देखा था, छियालिस देखकर एकबारगी कदम ठिठके जरूर पर फिर सोचा इतनी माइनर चीजों को ऊपर भी कहाँ नोटिस करते होंगे, यूँ की कानों में इयरफोन ठुसे हम भी चल पड़े।

अंधेरा ही है, गली के बेनाम झबरे कुत्ते ने मुझे अनजान समझ कर भोंकने की गुस्ताखी की पर फिर मेरे ईंट फेंक कर मारते ही तुरंत पहचान लिया , अरे सर आप हैं क्या, सच्ची बेचारा जाते जाते बहुत बार सॉरी भी बोल कर गया। गली में पड़ी लकड़ी का टुकड़ा उठा लिया, क्या पता फिर से कोई अनजान मिल जाए और ईंट न मिले, रिक्स नहीं लेना चाहिए , यूँ की काम आएगा यू नो। 'घर से निकलते ही कुछ दूर चलते ही, रस्ते में है उसका घर' कानों में बज रहे गाने ने अचानक मेरा ध्यान खींचा, चलते चलते गली में बंद दरवाज़ों को देखता आगे बढ़ता जाता हूँ। वो भी सो रही होगी कहीं, 'मासूम चेहरा नीची निगाहें, भोली सी लड़की, भोली अदाएँ'' आए हाए क्या बात है, यूँ की मजा आ गया बात का। उसके ख्यालों के साथ सड़क तक आ गया, आहो जी, जॉगिंग करने लायक पार्क ही नहीं है यहाँ, खैर जॉगिंग शुरू करते हैं।

कुछ कदम दौड़ते ही सांस फूलने लगी है, 'ये कौनसा मोड़ है उम्र का' कान में गाना बजा, भक्क बन्द कर दिया तुरन्त। ना ना ना गाने की वजह से गाना बन्द नहीं किया, दरअसल सामने कुछ कदम की दूरी पर एक ज्ञात यौवना मुग्धा नायिका इसी तरह कानों पर वायरलेस इयरफोन लगाए धीमे धीमे दौड़ लगा रही। देखा शुभ समय का शुभ प्रभाव? अगर पौनाई पर निकलता तो ये नहीं बस वो डेढ़ पसली अखबार वाला ही मिलता, खैर कन्या की उपस्थिति ने अपना जादुई प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया, पेट अंदर सीना बाहर, मुझे मेरे बाई सेप्स भी रोज से ज्यादा मोटे लग रहे अचानक, सांस फूलना बन्द हो चुकी है, थोड़ा पसीना जरूर आ रहा पर वो तो तेज़ दौड़ने पर आता ही है। बलिए गाने में इतना मग्न होकर चल रही, कि उसने मेरे जैसे किसी प्राणी के संसार मे होने की सम्भावना पर भी विचार न किया होगा। सामने से एक प्यारा खूसट जोड़ा हल्के कदमों के साथ अपनी जॉगिंग खत्म कर के एक पुलिया पर बैठा सुस्ता रहा है, बलिए ने उन्हें नमस्ते अंकल, नमस्ते आंटी कहा, हाए वे रब्बा, मुझे पता था मेरी बलिए बहुत संस्कारी है, आई लव यू यार कहना चाहता था, पर जोर से नमस्ते अंकल, नमस्ते आंटी बोल दिया मैंने भी, प्यारे खूसट दम्पति ने भी प्यार से आशीर्वाद स्वरूप कुछ कहा शायद, पर मैंने वो नहीं सुना।

 बलिए ने पीछे मुड़ कर जो देखा था, फिर बिना कोई भाव चेहरे पर लाए चेहरा घुमा लिया। आइपॉड बन्द है पर न जाने कैसे गाना बजने लगा फ़िज़ाओं में, 'चेहरा क्या देखते हो, दिल मे उतर कर देखो ना, दिल में उतर कर देखो ना'। बलिए ने फिर से देखा, ऊप्स ज्यादा जोर से गा दिया क्या मैंने ? उसकी चाल में थोड़ी गति आ गई है, 'छम्मकछल्लो ओ ओ ओ ओ, जरा धीरे चल्लो, जरा धीरे चल्लो'। लगा कि अगर उसने ये भी सुन लिया तो बोलेगी, हप्प हप्प तुम भी कैसे कैसे गाने सुनते रहते हो। साँस फिर से फूलने लगी है पर कंट्रोल करने की भी कोशिश जारी है। अरे रुक जा न यार, इतना तेज क्यों भाग रही, कौनसा ओलंपिक में जाना है हम को? डेढ़ किमी के बाद बालिके को आखिर तरस आया, नहर के पास रुक गई, नाउ उसका एक्सरसाइज चालू आहे। मैं अभी पेट पकड़ कर हाँफ ही रहा हूँ, उसने पूछा, "आप पहली बार आए हैं जॉगिंग पर? आई मीन पहले कभी नहीं देखा आपको।"

"ज ज जी मैं वो, आ आज ही आ आया आ  हूँ" अपनी उखड़ती सांसो के साथ बड़ी मुश्किल से इतना ही बोल पाया।

"पानी पी लीजिए", नहर की और इशारा करते हुए उसने कहा। यूँ की बड़ी बेज्जती टाइप कुछ हो गया पर कोई न, जिंदा रहे तो इज्जत फिर कमा लेंगे। चुपचाप पानी पीकर बैठ गया, वो दनादन एक्सरसाइज पे एक्सरसाइज पेल रही थी, मेरा सीना थोड़ा अंदर चला गया और पेट भी कुछ बाहर आ गया, और तो और बायसेप्स भी पहले से काफी कम लग रहे थे।

"थोड़ा वार्मअप करके फिर जॉगिंग किया करें, इतनी सांस नहीं फूलेगी, कितने बजे उठते हैं आप ?" अचानक पूछ लिया उसने,  मेरे मुँह से बस ,"चौने पार" निकला।

वो खिलखिलाकर हँसने लगी, अपनी हड़बड़ाहट और बेवकूफी देखकर जो शर्मिंदगी हुई थी वो उसकी हँसी सुन कर हवा हो गई, मूर्खों की तरह मैं भी मुस्कुरा दिया, बोला 'वो मेरा मतलब पौने..' उसने हँसते हँसते हाथ से इशारा किया, 'मैं समझ गई, चौने पार का मतलब, ओके कल जब चौने पार बजे उठें तो जॉगिंग शुरू करने से पहले दस मिनट के लिए थोड़ा वार्म अप जरूर कर लीजिएगा।' हँसते हँसते उसने अपनी कमर पर बंधे कपड़े से माथा पोंछा कपड़ा और वापस मुड़ कर दौड़ लगा दी। अरे ये क्या, ये तो चीटिंग है ना, सरासर चीटिंग, सांस भी नहीं लेने दी। उसके पीछे पीछे दौड़ लगा दी मैंने भी पर चार कदम पर ही स्टेमिना जवाब देने लगा तो रुक गया, उसने जाते जाते पलट कर देखा, बोली 'अजी आराम से, कल चौने पार बजे उठना है कि नहीं?' हँसते हँसते दौड़ती हुई वो आंखों से ओझल होती चली गई।

मैं धीमे धीमे वापस कदम बढ़ाने लगा, बड़ी मिक्सअप सी फीलिंग आ रही। वैसे ये जॉगिंग इतनी मस्त होती है पता नहीं था, अब धीरे धीरे प्यार को बढ़ाना है आई मीन धीरे स्टेमिना बढाना है रोज इसके साथ आया करूँगा दौड़ लगाने, पर लड़की बेज्जती कर गई यार, लेकिन बात भी तो उसी ने की न, हो सकता है ये चौने पार कभी छोना बाबू वाले प्यार में ही बदल जाए। फिर से आइपॉड ऑन कर लिया। खूसट जोड़ा वहीं पुलिया पर बैठा है, मैंने अब की बार उन्हें ध्यान से देखा, सच्ची में दोनों बहुत प्यारे लग रहे थे। मुझे देख कर मुस्कुराए, तो मैं भी मुस्कुरा दिया। जब हम तुम भी खूसट हो जाएंगे तो इसी तरह घूमने आया करेंगे।

थोड़ी रोशनी फैलने लगी है, स्ट्रीट लाइट बन्द हैं, कुछ घरों के दरवाजे भी खुले हैं, 'कल सुबह देखा जो,बाल बनाती वो, खिड़की में आई नजर' मैं चलता जा रहा हूँ अपने घर की तरफ, पर अचानक नजर घूम कर उस दरवाजे पर रुक गई, हाँ ये तो वही है, मेरी बलिए 😍😍😍😍, पर ये बच्चा, हमारी शादी से पहले ? यूँ की पहले बोलना था नकी सन्तूर लगाती हो, सच्ची त्वचा से उम्र का पता ही नहीं चला। मुझे देखा तो हँसने लगी, बोली , 'बेटा तुम भी जल्दी उठना कल से ये अंकल तो चौने पार बजे उठ जाते हैं। 😂'

भक्क, इस दुनिया मे सच्चे प्यार की कद्र है ही नहीं, और जॉगिंग तो एकदम फालतू चीज है सच्ची, यूँ की कल से बंद ही है जी।

#जयश्रीकृष्ण

अरुण

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🎪🎪🎪🎪 तिरुशनार्थी ♠️♠️♠️♠️

एक बार एग्जाम के लिए तिरुपति गया था। घरवाले बोले जा ही रहे हो तो लगे हाथ बालाजी से भी मिल आना। मुझे भी लगा कि विचार बुरा नहीं है। रास्ते म...