😢😢😢😢😢 मासी ♠♠♠♠♠ .


ईश्वर के सम्बन्ध में मेरी बड़ी अटूट मान्यता रही है कि वो कभी कुछ गलत नही करते, हो सकता है हमारी स्थूल दृष्टि तत्कालिक सकारात्मकता अनुभव न कर पाएं पर जो भी होता है अच्छे के लिए ही होता है। जीवन में ऐसे कई अवसर भी आए जब परिस्थितियों ने मुझसे अपने उक्त विचार पर पुनर्विचार का आग्रह किया पर 'मेरो मन जहाज को पंछी' घूम फिर कर वापस वहीं लौट आता हूँ। मेरा बचपन बहुत विपरीत आर्थिक परिस्थितियों को देखते/झेलते बीता , बार बार ईश्वर को उस दशा के लिए कोसते जिज्ञासु मन ने एक दिन गीता का कर्म सिद्धान्त पढ़ा, 'जो प्राप्त है वही पर्याप्त है' की धारणा को हृदय से स्वीकार पुरुषार्थ की और उन्मुख हुआ और सचमुच ईश्वर की कृपा से सब बदल गया।
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सुमित्रा मासी, छोटा कद थोड़ी थुलथुल काक वर्णी चेहरे में चमचमाते सफेद दांत और प्यार बरसाती आँखे, उनका नाम लेते ही यही स्मरण आता है। पता नही रिश्तों के नामकरण के पीछे क्या सिद्धांत रहे होंगे पर सुमित्रा मासी वाकई माँ सी ही थी। ओड राजपूत परिवार की यह ममतामयी स्त्री और इसके पतिदेव जब हमारे पड़ोस में रहने आए तो मासी ने बिना किसी आग्रह माँ को बहन बना लिया। मासी दिन में कई बार बाबे की दुकान से आते जाते हमारे घर आ जाती, बाबे की दूकान से उनकी खरीददारी 1-2 रूपये से ज्यादा की न होती जिसे वो बड़े गर्व से बताती। दरअसल मासी के पतिदेव सिंचाई विभाग में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी थे, तनख्वाह में से पतिदेव की शराब का भारी भरकम खर्च निकलने के बाद जो चिल्लर बचता मासी उस से भी पुरे घर का खर्च चलाने में सिद्धहस्त थी। रात का बचा भोजन ले जाती (सभी के घर से नही) कहती 'आवदे घर दी रोटी ह सिट्टीए क्यों, जवाकां दे ढ़ेड च पवे ता चंगा नई (अपने घर की रोटी है तो फिर फेंके क्यों, बच्चों के पेट में जाएं वो अच्छा नहीं)।
मासी के दो लड़के पप्पी (विनोद) और राजू मेरे हमउम्र थे, बहुत शरारती भी, हम तीनों की गैंग ने मोहल्ले के सब लड़को को वजह बेवजह धोया जरूर था, प्रसाद स्वरूप माँ और मासी दोनों ने समान रूप से हमारी आरती भी उतारी। साथ मिल कर मिट्टी में लोटना, अंताक्षरी खेलना , नहर में नहाना, लकड़ी काट लाना, बिना बताये सिंचाई विभाग की कॉलोनी में चले जाना जैसे अनेक मनोरम पल हम लोगों ने साथ बिताए।
समय बदला समय के साथ मासी के परिवार की माली हालत भी अच्छी हो गई , पर मासी के लिए कुछ न बदला क्योंकि वो अच्छा बदलाव उनके पतिदेव की दारू की मात्रा और क्वालिटी में ही हुआ। मासी के पतिदेव लगभग रोज पेटभर शराब छकने के बाद मासी को ढेर सारी गन्दी गन्दी गालियों से विभूषित करते , कभी कभार ठुकाई भी हो जाती पर मासी के चेहरे पर कोई शिकन न दिखाई दी कभी किसी से कोई शिकायत नही मशीन की तरह हाड तोड़ मेहनत करती, कपास चुगने जाती, घर चलने का जुगाड़ करती और उसी मुस्कुराते चेहरे के साथ हमारे घर आती रही (हमारा मासी के घर जाना कम ही होता था, कारण मासी के पतिदेव थे), मासी की अपने पति के प्रति उनकी श्रद्धा न जाने किस कारण से अटूट बनी हुई थी। गालियां और पिटाई को अपनी नियति मान उसी में जीने का तरीका मासी ने निकाल लिया था हालाँकि अकारण कष्ट सहने की उनकी प्रवृत्ति हमारे सम्मान नही क्षोभ का हेतु ही रही, पर मासी कहती 'बन्दा जिना मर्ज़ी माड़ा होवे बूड़ी नु ओनु कदे नी छड़ना चाहिदा, परछावें वांगु'(आदमी चाहे जितना भी बुरा हो औरत को कभी उसका त्याग नही करना चाहिए, परछाई की तरह) । बेचारी भोली औरत नही जानती थी की परछाई भी प्रकाश में ही साथ देती है। 😑
पप्पी राजू की शादी हुई तो लगा की शायद अब मासी को मेहनत नही करनी पड़ेगी आखिर दो बहुएँ आई थी, पर उन्होंने अलग अलग कमरों में अपनी अलग अलग दुनिया बसा ली, मासी की दिनचर्या में विशेष फर्क न पड़ा, फर्क पड़ा तो ये की पतिदेव के अलावा उनको सुनाने वालों की सूची में कुछ नाम और जुड़ गए।
बड़ा आश्चर्य होता था आखिर ये औरत न जाने क्या क्या अपने भाग्य में लिखवा लाई है।
उन दिनों मैं प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुटा रहता था, लगातार असफल मन को मासी की सांत्वना से बड़ा आराम मिलता, कहती ' कुछ नी लग जेंगा बेटा, रब सब वेखदा ए' (कोई बात नही लग जाओगे बेटा, भगवान सब देखते हैं)। मन में विचार आता सबके कल्याण की कामना करने वाली तुम्हारी और ईश्वर की दृष्टि क्यों नही पड़ती ?
पर मासी को अभी बहुत कुछ सहन करना बाकी था, अचानक अधरंग हो गया आधा शरीर सुन्न पड़ गया, दवा दिलाने के नाम पर औपचारिकता भर हुई, पैसे अगर थे भी तो बेचारी मासी के लिए नहीं थे किसी के भी पास, बेचारी अभावों में भी मुस्कुराने वाली जिन्दादिल अब बिना सहारे के उठ भी न पाती, बोलने के नाम पर आआअ ऊऊ जैसी समझ न आने वाली आवाज़ें निकलती, बहुत दुःख होता ये सब देख कर, बड़ी बहु भी उनकी हालत से पसीज गई, उसने ही उनकी देखभाल की, उनको खिलाती पिलाती कपड़े साफ़ करती। लघुशंका के लिए स्थाई तौर पर थैली वाली नलकी लगा दी गई थी, उसे भी खाली करती। माँ जब भी मिलने जाती तो आआ की आवाज़ करते हुए खूब रोती। शायद कह रही थी मुझे ये किस कर्म की सज़ा दी भगवान ने, एक दिन जब माँ फिर से मिलने गई तो बड़ी बहु ने बड़े संकोच के साथ जो बताया उसने मानवता का सर तक झुक दिया, मासी के पतिदेव ने कामांध होकर उस बेचारी बीमार अपाहिच जो बोल भी नही सकती थी, को खूब पीटा, नलकी हटा दी और जो मन में आया वो किया। सुबह मासी की अस्त व्यस्त हालत और अनवरत बहते आँसुओ ने रात की कहानी कह दी। माँ से मिल कर आँसू फिर से बहने लगे, चुप होने को कहा, तो इशारों में कहने लगी अब तो भगवान उठा ले तो ही अच्छा है।
एक दिन सुबह सुबह चिल्ल पों सुनी, पता लगा भगवान ने मासी की सुन ली थी, फाइनली।
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ईश्वर की ये कैसी लीला है मैं अब तक नही समझा, शायद कुछ और भी बुरा होता जो मासी को झेलने से ईश्वर ने बचा लिया हो। मैं कयास भर लगाता हूँ, पर ईश्वर से इतनी प्रार्थना जरूर करता हूँ कि हे ईश्वर दुनिया में मासी जरूर बनाना पर उनको इस मासी जैसा जीवन न देना।
‪#‎जयश्रीकृष्ण‬

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