🚋🚋🚋🚋🚋 रेल-मटेल ♠♠♠♠♠


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(कृपया ध्यान देवें : यह पोस्ट मेरी पूर्व पोस्ट 'डर्टी पीपल' का ही विस्तार है, इसे पढ़ने से पहले वो पढ़ लेंगे तो सन्दर्भ जानने में आसानी रहेगी, शेष जिसकी जैसी इच्छा)
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मूड बड़ा फिलोसॉफियाना सा होने लगा था, बुद्ध के दुःख को जीवन का पर्याय कहे जाने पर अचानक श्रद्धा हो आई फिर सोचा, 'अजी छोड़ो फिलिम वाले भी तो बता बता के थक गए कि लड़की बस और ट्रेन एक जाती है तो दूसरी आती है, वैसे भी जो परी हो उसका तो उड़ना तय ही मानो :), जा परी जा जी ले अपनी जिंदगी' मयंक के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान तैर गई।
फिर मुन्ना भाई बन 'आइला क्या सूरत थी वो क्या कहते हैं' गुनगुनाने लगा।
अब ट्रेन में तांक झांक करने का मन नहीं हो रहा था, टाइम पास के लिए मयंक बाहर के नजारे देखने लगा। मन में गाना बजने लगा 'एम पी गज़ब है, सबसे गज़ब है' वाकई खूबसूरत है, पर अकेले में ये नजारे भी खोखले से लगते हैं, काश रवि, तनय, अतुल, जीत आए होते तो कहता की सालो देखो इसे कहते है कुदरत के नज़ारे।
अचानक नेतराम का ख्याल आया देखा वो उसकी सीट पर पड़ा ऊँघ रहा था। साला पोस्ती, पता नहीं कितने जन्म की नींद पूरी करेगा ट्रेन में 18 घँटे से सो ही रहा है।
'ओये, आजा बाहर के नजारे देख, मस्त हैं भाई।'
'मन्ने ना देखणे भाई, तू देख ले।'
'अबे क्या आदमी है यार तू भी,आ ना'
'मन्ने ना देखणे भाई, तू देख आराम त'
कया अजीब आदमी है यार। देखा तो ट्रेन के अधिकतर चेहरे बदल चुके थे, मोटा फैमिली भी नही थी, चलो दफ़ा हुए अच्छा हुआ। परी वाली सीट अब भी खाली ही थी, वही बैठ खिड़की से सर टकरा कर बाहर ताकने लगा, विंध्याचल की पहाड़ियाँ, हरियाली, पहाड़ों को काट कर बनाए रस्तों से जा रही रेल उसे किसी खिलौना गाड़ी की याद दिल रही थी, ठंडी ठंडी हवाओं के साथ आती नन्ही नन्ही बूँदो के बीच न जाने कब पलकें मूँद गई पता ही न चला।
करीब 4 घँटे बाद किसी ने उसके कंधे को पकड़ हल्का सा हिलाया
'हेल्लो मिस्टर, टिकट दिखाओ अपना', देखा टीटीई था। बेमन से खड़ा होकर ऊपर रखे अपने बैग से टिकट और पास निकाल कर दिखाया, 16 नम्बर, ये बर्थ पर कौन लेटा है ?
'मेरे साथ है, उसके पास भी एग्जाम पास है, इसका रिजर्वेशन नहीं था, इसलिए एडजस्ट करके जा रहे हैं।'
'ओके ओके' टीटी इतना कह आगे बढ़ गया।
मयंक ने भीतर का नजर देखा, कुछ भी दिलचस्प न लगा तो बाहर देखने लगा, अजीब अजीब नामों वाले स्टेशन आने लगे थे पेदमपल्ली, ये पल्ली वो पल्ली, ये पेट वो पेट, तो आंध्रा शुरू हाँ ? 😊😊 तभी तो, चल अच्छा है। लग तो यूँ रहा था की ये सफर कभी खत्म ही नही होगा, मगर अब लगता है होगा तो सही। मयंक ने सोचा।
शाम को ठीक 7:45 बजे ट्रेन पुरे 28 घँटे की यात्रा पूरी करने की घोषणा कर रुकी तो जान में जान आई।
नेतराम को उठाया, 'अब तो उठ जा यार, सिकन्दराबाद आ गया अब तो'
'हैं हाँ' आलस मरोड़ अंगड़ाई लेकर उबासी की बरसात करता नेतराम उठ कर उसके साथ बाहर आ गया। फिर बोला, 'हाँ भाई इब बता कित जावांगे?'
'अरे तू तो बड़ा कॉन्फिडेंट था न यार, टोह लयां गए टिकाणा, मुझसे क्या पूछ रहे हो , चल टोह अब' मयंक हँसता हुआ बोला।
'अर वा तो यूँ ही लिकड़गी थी, बोल न कित जावांगे ?'
'जाना कहाँ हैं, कहीं नही, सुबह एग्जाम है यहीं से निकल लेंगे।'
स्टेशन के बाहर निकल कर थोडा इधर उधर घूमे फिर वापस आकर स्टेशन की पार्किंग के फुटपाथ पर बैठकर खाना खाया। समय देखा 10 बज रहे थे।
'यहाँ तो मच्छर उठा ले जाएंगे, अंदर वेटिंग हॉल में चलते हैं।' मयंक ने कहा।
वेटिंग हॉल उनके जैसे अभ्यर्थियों की भीड़ से अटा पड़ा था। वहीं थोड़ी जगह बना कर चद्दर बिछाई और दोनों सेट हो गए, थोड़ी देर में निंदिया रानी का आशीर्वाद मिल गया और दोनों सुंदर भविष्य के मीठे सपनों में खो गए।
मयंक के सपने में :
"प्रियंका अगेन, ,,,,,,,,,,,बातचीत, ,,,,,,,,,,इजहार, ,,,,,,,,,इंकार, ,,,,,,,,,,,,फिर इकरार, ,,,,,,,,,,,ढेर सारा प्यार, ,,,,,,,,,,,मीठी बाते, ,,,,,,,,,,गाने, ,,,,,,,,,,,,,ताने ,,,,,,,,,,तकरार, ,,,,,,,,,पुनर्मिलन, ,,,,,,,,,,,,खड़ूस बाप, ,,,,,,,,,,,,,पैसे वाला,,,,,,,,,,,, उसका इंकार, ,,,,,,,,,,,गुंडे, ,,,,,,,,,,,,,,,,,मारने आ रहे हैं,,,,,,,,,,ऐसी की तैसी इनकी,,,,,, ,,,,,,,,,"
अचानक लगा जैसे सपना नहीं हकीकत है, नींद में बाहर का शोर चीख़ पुकार सुनाई दे रही थी। एक तेज डंडा उसकी पीठ पर पड़ा, दर्द से बिलबिलाता वो फौरन जाग गया। गन्दे वाली गाली देना चाहता था पर देखा सामने आरपीएफ का जवान डंडे के साथ खड़ा था, वेटिंग हॉल को यात्रियों की सुविधा के लिए छात्रों के कब्ज़े से छुड़ाया जा रहा था, चुपचाप सो रहे छात्रों पर डंडे भांजे गए तो थोड़ी ही देर में वेटिंग हॉल बिलकुल खाली हो गया, बाहर आकर सोचा, 'अरे यार वो बेचारा नेतराम कहाँ गया, डंडा वंडा पड़ गया तो मर भी सकता है साला।' इधर उधर देखा तो वो कहीं नजर न आया पर थोड़ी देर बाद उसकी कंधे पर हाथ रखे वो मुस्कुरा रहा था, मयंक भी मुस्कुराया।
'अरे यार कहाँ थे, तेरे पड़ी तो नही '
'ना भाई , मन्ने तो नींद ई ना आ री थी, डंडा देखतां पाण हाम तो भाज लिए थे, तन आवाज़ मारी पर तू सुणी कोन्या, ना जाणे कुणसी के सपना म खो रया था'
'क्या यार जगा लेता तो मैं भी बच जाता न डंडे से' बोल कर अपनी पीठ पर हाथ लगाया , आआआआह दर्द से तड़प कर कहा, साले न जाने किस जन्म का बैर निकालने आए थे।'
टाइम देखा तो सुबह के 4 बज रहे थे, अब न तो सोने की जगह बची थी न वक़्त।
'आजा नहा धो के फ्रेश होकर आते हैं'
'तन्ने सुलभ कॉम्पलेक्स का पता है कठे ह'
'तू चल मेरे साथ'
रेलवे वाशिंग लाइन पर खड़ी गाड़ी के एक डिब्बे का सदुपयोग करने के बाद वाशिंग लाइन के पानी से स्नान क्रिया पूर्ण की। शर्ट पहनते महसूस हुआ की डंडे का निशान उभर आया था, कपड़ा साथ लगते ही उसमे जलन हो रही थी, दर्द पीकर बोला,
'देख भाई, भारतीय रेल दुनिया का सबसे बड़ा शौचालय मने सुलभ कॉम्पलेक्स है, कभी भूलना नही अब से।'
नेतराम मुस्कुराने लगा।
6 बज रहे थे, एक दूसरे से स्टेशन पर ही मिलने का कह कर विदा ली, एग्जाम देने निकल गए। चोर चोरी से जाए पर हेरा फेरी से न जाए, डंडे का दर्द तो था पर जानबूझ कर बार बार आंध्रा की अलग अलग स्कूल गर्ल्स से पता पूछ मजे लेता मयंक सेंटर पर पैदल ही पहुँच गया। एग्जाम ठीक ठाक हुआ, घूमते घूमते स्टेशन पर पहुँचा तो देखा नेतराम पहले से वही था।
बोला ,' वापसी की टिकट कुण सी ट्रेन की है'
'कोई सी भी नही, और सब की है'
'मतलब'
'अरे यार कोई भी ट्रेन पकड़ के निकल लेंगे, रिजर्वेशन नही है पर जाएंगे रिजर्वेशन बोगी में ही, पास है हमारे पास तो जुर्माना नहीं लगता कोई, समझे'
'ठीक ह भाई'
शाम को 4:30, छात्रों की खतरनाक भीड़ ने ट्रेन की जनरल बोगियों को घेर रखा था, वहाँ जगह न मिलते देख स्लीपर पर धावा हो गया, मकोड़ों की तरह जिधर देखो स्टूडेंट ही स्टूडेंट। मयंक नेतराम के साथ एक छात्र से समझौता कर बेफिक्र उसकी बर्थ पर आसीन था, शर्त के मुताबिक उन्हें रात में अपनी तशरीफ़ को नीचे जमीन पर रख लेना था, नो प्रॉब्लम यार। भीड़ इतनी ज्यादा थी की लगा ट्रेन शायद इतना भर एक साथ लेकर अपनी जगह से खिसक ही नही पाएगी। अपने निर्धारित समय से 30 मिनट की देरी से ही सही पर ट्रेन चली , बड़ी गर्मी हो रही थी, ट्रेन चलते ही हवा लगने लगी। पहले भीड़ बहुत ज्यादा लग रही थी पर अब धीरे धीरे सब न जाने कैसे सेट हो गए। 2 घण्टे बाद अचानक काजीपेट के पास ट्रेन रोक दी गई, मालूम हुआ मजिस्ट्रेट चैकिंग है ट्रेन के दोनों तरफ rpf के कुछ जवान नजर आ रहे थे, मयंक और नेतराम दोनों कुतूहल से ये सब देख रहे थे, प्रथम अनुभव था। सहसा देखा एक काले मोटे थंगबलि टाइप टीटीई और दो rpf जवानो ने उनकी बोगी में प्रवेश किया, एक लड़के से पूछा, 'टिकीट', उत्तर मिला, 'पास है जी' धम्म से झन्नाटेदार थप्पड़ से टीटीई ने उसका मुंह लाल कर दिया।
'अबे भाग नही तो अपनी भी ठुकाई पक्की है' बैग उठाया तो देखा नेतराम उसे बिना कुछ कहे पहले ही आगे दौड़ लगा चुका था। मयंक भी डिब्बों के बीच के पासेज से होता हुआ जनरल बोगी में आ गया पर जनरल बोगी में घुसने का रास्ता नहीं मिला, नेतराम नही दिखा शायद भीतर प्रविष्ठ हो गया था। बेचारे मयंक को वही दोनों बोगीयों के बीच बने अस्थाई पुल जैसी संरचना पर खड़े रहना पड़ा, कुछ ही देर में पैर दुखने लगे तो वही बैठ गया।
लड़कों की भीड़ स्लीपर से धकेले जाने के बाद लगातार वहाँ प्रेशर बढ़ा रही थी । मयंक को डर लग रहा था, दरअसल अस्थाई पास के चारो और बना रबड़ का आवरण मयंक की साइड में फटा हुआ था, ट्रेन चल चुकी थी और मयंक को वहाँ बैठे तेजी से पीछे की और जाती पटरियाँ साफ नज़र आ रही थी, बड़ी मजबूती से उसने अपने आप को थामा हुआ था, पर एक चुक और उसके घर में चित्रहार शुरू हो जाता।
थोड़ी थोड़ी देर बाद इन सब दुःखों से अनजान अपने भीतर के दबाव को मुक्त करने कोई न कोई आ जाता, पैर रखने को जगह न थी पर वो कंधो पे, सर पे पैर रख शौचालय में दाखिल हो ही जाता। हाथों से झरती पानी की बुँदे टपकाता वापस जाता, कभी कोई चाय वाला चाय की बूंदे गिरा त्रस्त मन को और उद्विग्न कर जाता।
'सुना था स्वर्ग यहाँ, नर्क यहाँ , आज देख भी लिया" मयंक बुदबुदाया। लगातार 14 घण्टे वहीं एक करवट बैठ यातना झेली, नींद , थकान और भूख से बुरा हाल था, शरीर का रोम रोम दर्द करने लगा था। खुद को गालियाँ निकालते पक्का निश्चय कर लिया, आइंदा बिना रिजर्वेशन के कभी नही आऊंगा, और इतनी दूर तो रिजर्वेशन हो तब भी नही आऊंगा।'
भोपाल स्टेशन आने वाला था, अपनी बची खुची ताकत और हिम्मत बटोर मयंक वहाँ से उठा और फिर से स्लीपर क्लास की और चल पड़ा, एक बूढे अंकल साइड लोअर बर्थ पर सो रहे थे उनके पैरो के पास थोड़ी सी जगह बना कर बैठ गया, जान में जान आई। बड़ी मुश्किल से 10 मिनट ही हुए होंगे एक टीटीई उसी बोगी में टिकट चेक करता दिखाई दिया, दिल धक्क से बैठ गया। अब क्या होगा, वापस उसी नर्क में जाना पड़ेगा ?
'ओ भगवान जी, हेल्लो, मैं ही मिलता हूँ क्या आपको ?' पर देखा तो टीटीई अकेला था, अब चाहे लड़ाई करनी पड़े इससे जनरल बोगी में तो नही जाऊँगा। पर टीटीई के पास आने के साथ उसकी धड़कने तेज और साँसे मन्द हो रही थी। टीटीई करीब आया तो बहुत से पैसेंजरों ने उसे घेर लिया सब के सब वेटिंग टिकट वाले थे सीट कन्फर्म हुई या नही जाना चाहते थे, टीटीई ने पता नही कैसे पर सबके टिकट कन्फर्म कर सीट नम्बर दे दिया, मयंक से टिकट मांगा, उसने पास दिया तो अपने चार्ट में पास का रोल नम्बर लिख पास के पीछे लिखा S3-24 ,और कहा इस सीट पर जाओ।
'वाह भगवान जी, बिना मांगे रिजर्वेशन आपने ही करवाया न ? थैंक्यू हाँ सच्चीमुची 😊' ऊपर देखकर मयंक बोला, और S3 में सीट नम्बर 24 के पास आया, वहाँ एक लड़का लेटा था उसे खड़ा किया , 'मेरा रिजर्वेशन है भाई' और फिर खुद वहीं लुढ़क गया, आँख मूँद गई जब नींद से जागा तो बाहर न्यू डेल्ही का बोर्ड दिखाई दे रहा था।
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‪#‎जयश्रीकृष्ण‬
©अरुणिम कथा

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