पिछले महीने हमारे पड़ोस में एक बन्दा टपक गया (वैसे तो किसी की मृत्यु के लिए देहावसान, देहांत या निधन जैसे शब्द प्रयोग की प्रथा रही है, पर फिर भी ये साहब तो चुपचाप टपक गए। क्योंकि अफसोस जताने की सामाजिक औपचारिकता निभाने जब मेरा उनके घर जाना हुआ तो पाया कि उनकी पत्नी को छोड़ पुरे परिवार में से किसी आँख की कोर तक नम न हुई थी। पता लगा शराबी थे, पर वो तो उनका बेटा भी है 😣 , बोले परेशान थे घरवाले सो किसी को कोई फर्क नही पड़ा। बड़ा टुच्चा सा कारण लगा अपनी हृदयहीनता छुपाने का, कुछ भी हो बाप तो था, खैर जब उनके किसी अपने को कोई अफसोस नही हुआ तो दूसरों को क्यों होने लगा। बेचारे बारिश की बूँद की तरह टपक कर अनन्त में विलीन हो गए।
***
पिछले शनिवार को मेरे 3 महीने के बेटे की तबियत अचानक खराब हो गई, हॉस्पिटलाइज करना पड़ा रातो रात, ईश्वर की कृपा है की जान पहचान के चलते राजकीय चिकित्सालय में भी निजी से बेहतर दवा और देखभाल उपलब्ध हो गई। वायरल इन्फेक्शन था ठीक होने में 7 दिन लग गए, इन 7 दिनों में चिकित्सा प्रणाली को थोडा नजदीक से देखने का मौका मिला।
रोज देखता था तरह तरह के मरीज , उनकी चीत्कारें, अपने मरीज के लिए चिंता की लकीरे माथे पर उकेरे दौड़ भाग करते परिजन, कुछ मौते भी देखी। कुछ लोग अच्छे होते स्वास्थ्य से प्रफुल्लित तो कुछ सेहत के निरन्तर गिरते ग्राफ को लेकर व्याकुल दिखे। इन सब के बीच कुछ लोग ऐसे थे जो हर स्थिति में एक जैसे नज़र आये, ये थे वहाँ के कर्मी, कोई फर्क नही पड़ता किसी को किसी से, कोई जीए या मरे उनकी बला से। अजीब लगा न आपको ? मुझे भी लगा था, और पूछ भी लिया एक नर्सिंगकर्मी से, वो बोला भाई साहब हमारे प्रोफेशन में ये रूटीन वर्क है। रोज लोग आते है बहुत से जिन्दा रहते है कुछ मर भी जाते है अब हम किस किस के लिए गम में डूबें ? और क्यों डूबें ?
भई पॉइंट तो उसकी बात में भी है।
पर रात में दर्द से बिलबिलाते मरीज के परिजनों द्वारा ड्यूटी पर तैनात चिकित्साकर्मी से मरीज को देखने की विनती करने पर घुड़की मिलना, ब्लड बैंक इंचार्ज के वांछित रक्त समूह के रक्त मांगने पर लम्बी चौड़ी नियमावली गिनवा कर चलता करना, मृतक के पोस्टमार्टम के लिए मेडिकल ज्यूरिस्ट का पैसे मांगना, बॉडी देने के लिए चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी का पैसे मांगना आदि कुछ ऐसी घटनाएँ थी जिनसे लगा अपने सेवा कर्म को व्यवसाय समझ कर इसमें वांछित संवेदनशून्यता को बहुत से लोग हृदयहीनता की हद तक ले जा चुके हैं।
***
कुछ दिन हुए व्हाट्सएप्प पर एक वीडियो देखा , बहुत ही व्यस्त सड़क पर सड़क पार करते असावधानी या परिस्थितिवश एक व्यक्ति को चोट लग गई, वो लड़खड़ा कर सड़क के किनारे से कुछ दूर सड़क पर ही गिर गया। वाहन दना दन अपनी रफ़्तार से गुजर रहे थे, किसी को उसकी फ़िक्र क्यों होगी भला, वो उनका थोड़े न कुछ लगता है। पैदल चल रहे लोग इस तरह से गुजर रहे है जैसे उनके एक पल की देरी से न जाने कितना बड़ा नुकसान हो जाएगा, कुछ राहगीरों ने देखा भी पर अनदेखा कर आगे बढ़ गए। घायल व्यक्ति कराह रहा था, मदद के लिए हाथ उठाने की कोशिश कर रहा था पर इस व्यस्त चर्या में किसी के पास उसे बचाने जैसे फालतू काम के लिए वक्त नही था। आखिर अपनी बची खुची हिम्मत और जान दोनों समेट कर घायल ने उठने की चेष्टा की तभी एक और वाहन की जोरदार टक्कर, धड़क। इस बार किनारे के कुछ और करीब पहुंचा गया भला आदमी, खून लगातार बह रहा था। अचानक एक राहगीर ने उसका हाथ पकड़ कर किनारे खींचा और एक खम्बे से टिका कर आगे बढ़ गया, इंसानियत जिन्दा है थोड़ी ही सही, थोड़ी देर में घायल कराहते कराहते शांत हो गया। हमेशा हमेशा के लिए।
इसी वीडियो में ऐसा ही एक वाकया एक कुत्ते के साथ भी हुआ, एक कुत्ता व्यस्त सड़क पर घायल हुआ पर उसी व्यस्त सड़क से एक दूसरे कुत्ते ने अपने जीवन की परवाह न कर घायल मित्र को किनारे तक लाकर उसका जीवन बचा लिया।
वीडियो खत्म हुआ तो विचार करने लगा इंसान और पशु कौन था इन दोनों घटनाओ में ?
***
आजR Kamal Varshneyy जी की एक पोस्ट पढ़ी जिसमे उन्होंने बताया की कैसे एक गधी ने खुद उनको गधा बना दिया। मदद के चक्कर में मारे गए बेचारे गुलफ़ाम। किसी विधवा को पति के बीमा की रकम दिलवाते दिलवाते अच्छा खासा झपीड़ खुद को लग गया। अब किसी की मदद करने से पहले सौ बार सोचेंगे पक्का।
तो मोरल ऑफ़ दिस स्टोरी ये है कि जो भी हो मनुष्य जरूर बनिए, बस थोड़ी सी सजगता रखे ताकि कहीं कोई गधा न बना जाये। ;)
#जयश्रीकृष्ण
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें