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✔ हाँ जी वही तो हैं हम। धेले का क्नॉलेज नहीं। पता नही दूसरे छोटे शहर वालो के साथ भी ऐसा ही होता या नहीं, पर अपन के साथ तो येइच हुआ है। पढ़ाई के लिए सरकारी स्कूल, कहने को 'बड़ा स्कूल' पर बड़ेपन के नाम पर मिले सिर्फ बड़े कमरे, पढ़ो तो खुद पढ़ो वरना भाड़ में जाओ, नो पिराबल्म किसी को भी। 9वीं क्लास में खिड़की तोड़ दी थी मेरी क्लास के कुछ 'खतरों के खिलाड़ियों' ने, उनके साथ पहले कालांश के खत्म होते ही भागने का ऐसा हुनर सीखा कि कॉलेज में भी कभी कोई लेक्चर लगाना सिर्फ बेवकूफी महसूस हुआ। लगाते भी क्यों, जैसा टीवी में देखा था वैसा तो उस कॉलेज में कुछ मिला नही।
कॉलेज में भी वही सब मनहूस साथ थे जो स्कूल टाइम में थे, कॉलेज को कोई छोरी थी नही हमारे साथ, सो पड़े रहते थे कमरे में अपने लफंडरो के साथ सूअर की तरह। भई जब कुछ पढ़ा लिखा नही तो गियान क्या टपकता ऊपर से खोपड़ी में ?
फेसबुक पर पधारे तो लगा अबे ये तो मजे की चीज है। एक छोरी का नाम खोजो तो लाइन में हज़ारो खड़ी हो जाती है। पीपल यू मे नो, पर इनको मैं जानता हूँ? अबे ये तो मैं अब जान रहा हूँ 😊 खैर जानने में हर्ज ही क्या है। कुच्चेक कन्याओ से जान भी हुई और पहचान भी, पर ये दिल मांगे मोर,
मीठी ,खट्टी ,कड़वी , न जाने कितने रसों का आस्वादन इस आभासी संसार ने करवा दिया। प्यार इश्क़ और मुहब्बत इन सबसे परिचय होते होते पिछवाड़े पर लात पड़ गई, लगा जे दुनिया जे महफ़िल मेरे काम की नहीं।
पर यार बोलने और करने में बड़ा फर्क होवे है। और बैसे बी मैं क्यों मरूँ? खैर इत्ता ही समझ आया की लड़की बड़की अपने बस की बात नही ‼😯
फिर दौर बदला, हियाँ कुछ नए बांगड़ू मिले । कसम से यार क्या लिखते है। राजनीती, दर्शन के धागों से पिरो कर सामयिक असामयिक घटनाओं को ऐसे रखते हैं मानो जे सब घटनाये हुई ही इसलिए है की बन्दा बहादुर इस पर अपना कुछ मन्तव्य लिख दे। जब भी सत्या कर्ण, अघोरी नाथ, आनंद , अजित सिंह, सुमंत भट्टाचार्य जैसे दिग्गजों का लिखा कुछ भी पढ़ा उनकी तारीफ के साथ साथ हज़ार बार खुद को कोस भी डाला। यार कुएं के मेंढक से कोई उम्मीद न ही लगाये तो ही अच्छा है। कुछ नही आता न सही, यहां बक दिया दिल हल्का हो गया।
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